देश के किसान, दुग्ध उत्पादक और अन्य संगठन भारत के रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनामिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) समझौते में शामिल होने का विरोध कर रहे थे। किसान और लघु उत्पादक सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे। सबकी नजरें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लगी हुई थीं कि वह बैंकाक में इस समझौते पर हस्ताक्षर करते हैं या नहीं। अंततः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की अर्थव्यवस्था के हित में इस समझौते से किनारा कर लिया।
भारत ऐसे समझौते को स्वीकार नहीं कर सकता था जिससे केवल डेयरी उद्योग से जुड़े करोड़ों किसान, व्यापारी और श्रमिक प्रभावित होते हों। प्रधानमंत्री का समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करने का फैसला राष्ट्रहित में लिया गया अच्छा फैसला है। प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में स्पष्ट कर दिया कि ‘‘न ही गांधी जी का ताबीज और न ही मेरे अंतर्मन की आवाज मुझे आरसीईपी में शामिल होने की अनुमति देती है।’’
प्रधानमंत्री को इस बात का अहसास हो गया था कि इस समझौते के निष्कर्ष निष्पक्ष और संतुलित नहीं हैं। आरसीईपी को लेकर पिछले सात वर्षों से बातचीत चल रही थी, तो बहुत सी बातें जिसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था और व्यापार की परिस्थितियां भी शामिल हैं, बदल चुकी हैं। भारत के समझौते पर हस्ताक्षर न करने के पीछे कई कारण रहे। आरसीईपी समझौता दस आसियान देशों और 5 अन्य यानी आस्ट्रेलिया, चीन, जापान, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया के बीच एक मुक्त व्यापार समझौता है। इस समझौते में शामिल देश एक-दूसरे को व्यापार में टैक्स कटौती समेत तमाम आर्थिक छूट देंगे।
अगर भारत समझौते पर हस्ताक्षर करता तो इससे देश में चीनी उत्पादों की बाढ़ आ जाती। चीन का अमेरिका के साथ पहले ही ट्रेड वार चल रहा है, जिससे उसे काफी नुक्सान झेलना पड़ रहा है। वह इस नुक्सान की भरपाई भारत और अन्य देशों से करना चाहता था। आरसीईपी में शामिल होने पर भारत को आसियान देशों से आने वाली वस्तुओं पर टैरिफ हटाना पड़ता। यह कदम भारत के घरेलू उद्योगों के लिए खतरनाक साबित हो सकता था। चीन के लिए यह समझौता एक बड़ा अवसर है क्योंकि उत्पादन के मामले में बाकी देश उसके आगे नहीं टिकते। व्यापार समझौतों को लेकर भारत का ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहीं रहा।
इन समझौतों के चलते भारत का व्यापार घाटा लगातार बढ़ता ही चला गया। भारत ने आसियान देशों और दक्षिण कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) पर 2010 में हस्ताक्षर किए थे। भारत ने 2011 में मलेशिया और जापान के साथ भी मुक्त व्यापार समझौते किए थे। यूपीए शासनकाल में भारत ने अपने 74 फीसदी बाजार को आसियान देशों के लिए खोल रखा था लेकिन इंडोनेशिया ने भारत के लिए अपने 50 फीसदी बाजार को ही खोला था। यूपीए शासनकाल में चीन के साथ भी भारत ने एफटीए समझौता किया था लेकिन भारत और चीन में व्यापार संतुलन गड़बड़ाया हुआ है। वर्ष 2018-19 में आरसीईपी के 11 सदस्यों के साथ भारत का व्यापार घाटे का रहा है।
समझौता अमल में आता तो भारतीय उत्पादों के लिए हालात और खराब हो सकते थे। दूसरी ओर उद्योग जगत का मानना है कि भारत के इस समझौते में शामिल न होने से भविष्य में भारत के निर्यात और निवेश प्रवाह को नुक्सान हो सकता है। भारत सबसे बड़े समूह के 15 देशों की प्राथमिकता सूची से अलग-थलग पड़ जाएगा। भारत में किसान, व्यापार, पेशेवर लोग और उद्योग मिलकर बड़ी अर्थव्यवस्था का निर्माण करते हैं, जिनमें मजदूर और उपभोक्ता भी शामिल हैं। करोड़ों लोगों के हितों को दाव पर नहीं लगाया जा सकता।
चीन तो इस समझौते से अपना दबदबा कायम करना चाहता है और भारत ने समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करके चीन के दबाव को खारिज कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार वार्ता में कड़ा रुख अपनाया है तो यह जनभावनाओं के अनुरूप ही है।