भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों को लेकर दोनों देशों की अवाम के बीच भी जिस प्रकार की उत्सुकता 1947 में पाकिस्तान बनने से लेकर ही रही है उसी के विविध आयामी परिणामों में से एक परिणाम यह भी रहा है कि इन सम्बन्धों का असर दोनों देशों की राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ता रहा है परन्तु पाकिस्तान ने अपने वजूद में आने के बाद से ही जिस तरह भारत के विरोध को अपने अस्तित्व की शर्त बनाया उससे आपसी सम्बन्धों में किसी भी दौर में मधुरता नहीं आ सकी। इसकी असली वजह यह थी कि जिन्ना के जीवित रहते ही पाकिस्तान ने जिस तरह जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण किया था उसके बाद से अब तक पाकिस्तान लगातार एक आक्रमणकारी देश के रूप में देखा जाता है। इसके बावजूद 1972 में पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बन जाने के बाद 1972 में शिमला में स्व. इंदिरा गांधी व जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच जो समझौता हुआ था उससे जरूर यह उम्मीद बंधी थी कि पाकिस्तान अपनी हदों को पहचानते हुए भारत के साथ अब सभी प्रकार के कथित विवादों का हल बातचीत की मेज पर बैठ कर सुलझायेगा और इस हकीकत को कबूल करेगा कि उसकी असल पहचान ‘हिन्दोस्तानी सखावत और तर्जो-तबीयत’ से ही निकलती है।
मगर इस मुल्क में 1977 के करीब फिर से फौजी हुक्मरान जनरल जिया के नमूदार होने की वजह से फिर से इस्लामी जेहादी व कट्टरपंथी ताकतों ने अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव को समाप्त करने के लिए अमेरिका से हाथ मिलाते हुए जिस तरह तालिबानी लड़ाकुओं को जिन्दा करने की तहरीक चलाई और बाद में उसके असर से यह खुद दहशतगर्दी के कुएं में गिरता चला गया उसने न केवल अकेले भारतीय उपमहाद्वीप को बल्कि पूरी दुनिया को ही आतंकवाद के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया जिसके निशान हमें अमेरिका से लेकर अन्य एशियाई व यूरोपीय देशों में भी देखने को मिलने लगे। मगर इस आत्मघाती नीति के तहत ‘किराये का मुल्क’ बनने का असर पाकिस्तान पर होना ही था अतः हम आज देख रहे हैं कि पाकिस्तान आज पूरी दुनिया के सामने भीख का कटोरा लिए हुए खड़ा हुआ है जिसे इस्लामी मुल्क भी हिकारत की नजर से देख रहे हैं लेकिन भारत की नीति पं. जवाहर लाल नेहरू के समय से ही दोस्ताना हाथ बढ़ाने की रही है और यह समझाने की रही है कि उसका लाभ ‘अमेरिका-कनाडा’ की तरह भारत के साथ ताल्लुकात बनाने में ही है। अगर यह बात पाकिस्तान के सियासतदानों की समझ में आ जाती तो अब तक इस मुल्क ने भारत के खिलाफ बेवजह ही चार-चार लड़ाइयां न लड़ी होतीं और हर लड़ाई में मुंह की न खाई होती और अपनी अवाम को लगातार मुफलिस व जाहिल बनाये रखने की तजवीजें न भिड़ाई न होतीं लेकिन इसके बावजूद भारत ने पाकिस्तान के साथ कभी भी दुश्मनी का भाव नहीं रखा और उसे भारतीय उपमहाद्वीप व दक्षिण एशिया के आर्थिक विकास में एक सहयोगी का दर्जा देने की मंशा जाहिर की।
दक्षेस या सार्क चैम्बर आॅफ कामर्स में भी पाकिस्तान की शिरकत करा कर भारत ने यह दिल से चाहा कि आर्थिक विकास में उसकी भी भागीदारी बनी रहे मगर पाकिस्तान ने ‘सार्क चैम्बर आॅफ कामर्स’ के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया और आतंकवाद के भरोसे ही अपना रुआब गालिब करने की नीति पर आगे बढ़ना शुरू किया। अगर पुराने वाकयों को हम भूल भी जायें तो ताजा वारदात क्या हुई? जिस दिन इस्लामाबाद से यह घोषणा हुई कि उसके विदेश मन्त्री बिलावल भुट्टो जरदारी भारत के गोवा में 4 व 5 मई को होने वाले शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में शिरकत करने जायेंगे उसी दिन जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घटना हो गई जिसमें भारतीय सेना के पांच जवान वीरगति को प्राप्त हो गये। इसका मतलब क्या यह नहीं निकाला जा सकता कि पाकिस्तान में ही कुछ एेसी ताकतें बैठी हुई हैं जो यह नहीं चाहतीं कि भारत-पाकिस्तान के बीच ताल्लुकात सुधरें? यह देखने का काम तो पाकिस्तानी हुक्मरानों का ही है। छह साल बाद जब पाकिस्तान का कोई विदेश मन्त्री भारत आने की घोषणा कर रहा है तो वे कौन सी ताकतें हैं जो इसे पसन्द नहीं कर रहीं। जाहिर है कि ये वे ताकतें ही हो सकती हैं जिन्हें भारत के साथ अच्छे सम्बन्ध होने पर अपने ही वजूद का खतरा पैदा हो सकता है और जाहिर तौर पर ये आतंकवादी ताकतें ही हैं। इसलिए भारत का यह कहना बिल्कुल बजा है कि बातचीत और आतंकवाद साथ-साथ नहीं चल सकते। अतः बिलावल भुट्टो का यह फर्ज बनता है कि वह अपनी गोवा यात्रा के दौरान यह पैगाम देकर जायें कि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों व कट्टरपंथियों को दोनों देशों के बीच के सम्बन्धों में आड़े नहीं आने दिया जायेगा। मगर जिस देश की नीति ही भारत में अलगाववादियों व आतंकियों को पनपाने की रही हो उसकी नीयत पर शक क्यों न किया जाये?
याद रखना चाहिए कि 2015 में पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मन्त्री सरताज अजीज को भारत की विदेश मन्त्री स्व. सुषमा स्वराज ने निमन्त्रण दिया था मगर यह शर्त लगा दी थी कि वह भारत आने पर कश्मीर के हुर्रियत नेताओं से नहीं मिलेंगे। इसके बाद सरताज अजीज ने यह यात्रा रद्द कर दी थी। हालांकि वह अगले साल 2016 में हार्ट आॅफ एशिया सम्मेलन में भाग लेने आये थे मगर तब उनसे द्विपक्षीय आधार पर कोई बातचीत नहीं हुई थी। वजह श्रीमती स्वराज की तबीयत नासाज होना था। इससे पिछला इतिहास बताने का कोई औचित्य दिखाई नहीं पड़ता है मगर इतना निश्चित है कि श्री भुट्टो को सभी पुराने पूर्वग्रहों को ताक पर रख कर भारत की यात्रा ‘साबुत’ नीयत के साथ करनी चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com