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वादी-ए-कश्मीर का ‘इकबाल’

गृहमन्त्री ने सभी नागरिक अधिकारों की पुख्ता बहाली का जो ऐलान किया है उस पर शक करना किसी भी तरीके से वाजिब नहीं कहा जा सकता। संसद में कहा गया वचन सबूती दस्तावेज होता है।

जम्मू-कश्मीर राज्य की कश्मीर घाटी में सामान्य हालात को लेकर आज संसद के उच्च सदन राज्यसभा में विपक्ष ने जो आशंकाएं प्रकट कीं उनका जवाब गृहमन्त्री अमित शाह ने उन सभी अवधारणाओं को नकारते हुए दो टूक तरीके से दिया जो इस राज्य का विशेष दर्जा समाप्त होने के बाद सर्वव्यापी असन्तोष के सम्बन्ध में पैदा की जा रही हैं। इस मामले में सबसे पहले यह समझ लिया जाना चाहिए कि राष्ट्रहित से ऊपर कोई भी दूसरा हित नहीं हो सकता। राजनीतिक मतभेद लोकतन्त्र में होना जरूरी है मगर ये मतभेद राष्ट्रहित को किसी भी तरह अपने विमर्श में समाहित नहीं कर सकते।
बेशक राष्ट्रवाद की परिकल्पना और विवेचना व व्याख्या पर मतान्तर हो सकता है परन्तु राष्ट्रीयता पर किसी प्रकार का मतभेद संभव नहीं है। इस राज्य के पुनर्गठन हो जाने और इसके केन्द्र शासित राज्य बन जाने के बाद इसकी कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी अब पूरी तरह केन्द्र सरकार की है और पाकिस्तान के साथ इसकी सीमाएं लगी होने की वजह से व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी कड़े कदम उठाने की जरूरत को नकारा नहीं जा सकता। अतः मानवीय अधिकारों के हनन का जो ढिंढोरा नामुराद पाकिस्तान के हुक्मरान कश्मीर को लेकर पूरी दुनिया में पीटना चाहते हैं, भारत की संसद से उसकी प्रतिध्वनि किसी भी रूप में सुनाई नहीं पड़नी चाहिए। 
गृहमन्त्री ने सभी नागरिक अधिकारों की पुख्ता बहाली का जो ऐलान किया है उस पर शक करना किसी भी तरीके से वाजिब नहीं कहा जा सकता। संसद में कहा गया वचन सबूती दस्तावेज होता है। जरूरत इस बात की है कि घाटी में सामान्य हालात बनाने के लिए जो भी प्रयास मोदी सरकार या गृह मन्त्रालय द्वारा किये जा रहे हैं उन्हें सफल बनाने के राजनीतिक प्रयास सभी दलों द्वारा किये जाने चाहिएं। बेशक राज्यसभा में विपक्ष के नेता श्री गुलाम नबी आजाद को यह जानने का हक है कि राज्य में पूरी तरह सामान्य स्थिति कब तक कायम हो जायेगी मगर इस बारे में उन्हें संसद में  रखे गये गृहमन्त्री के विवरण व सम्बन्धित आंकड़ाें पर यकीन करना होगा और राज्य की जनता से अपील करनी होगी कि वह प्रशासन द्वारा उठाये गये नागरिक हितों के कदमों में अधिकाधिक सहयोग करके अमन-चैन की जिन्दगी की तरफ बढ़े।
अनुच्छेद 370 के हटने से कश्मीरी अवाम के वे हक मजबूत हुए हैं जिन्हें भारत के संविधान ने हर राज्य के नागरिकों को बराबरी के साथ दिया है। जाहिर तौर पर आम कश्मीरियों के हकों में इससे इजाफा ही हुआ है क्योंकि सामाजिक असमानता समाप्त करने के वे सभी कानून इस राज्य के लोगों को भी मिले हैं जिनसे विरासत में मिले भेदभाव को जड़ से मिटाया जा सकता है। भाजपा सरकार के इस कदम को केवल तस्वीर के एक पहलू को देखकर ही नुक्ताचीनी का शिकार नहीं बनाया जाना चाहिए बल्कि तस्वीर के दूसरे पहलू को भी गौर से देखा जाना चाहिए। दूसरा पहलू यह है कि कश्मीर के विशेष दर्जे को उस पाकिस्तान ने अपनी दहशतगर्द मुहिम  का हिस्सा बना रखा था जिसके कब्जे में 1947 से ही कश्मीर घाटी का दो-तिहाई हिस्सा पड़ा हुआ है।
 अतः समीक्षा इस बात की होनी चाहिए कि कश्मीर वादी में जिस तरह पिछले ढाई महीने में स्कूल-कालेज खोले जा रहे हैं, उनमें विद्यार्थियों की उपस्थिति शत-प्रतिशत कैसे हो ? जिन गांवों, कस्बों और शहरों में बाजार खुल रहे हैं उनमें आम शहरियों की बाखुशी शिरकत किस तरह पहले जैसी चहल-पहल में बदले और रौनक बढ़े? जब सभी ‘लैंडलाइन’ टेलीफोन चालू हो चुके हैं और ‘पोस्टपेड’ मोबाइल फोन सेवाएं शुरू हो चुकी हैं तथा ‘प्रिपेड कनैक्शन’ भी खोले जा रहे हैं तो आम नागरिकों में असुरक्षा का भाव क्यों पैदा किया जाये? आज सवाल यह नहीं है कि कश्मीर में इंटरनेट सेवाएं अभी तक क्यों शुरू नहीं हुई हैं बल्कि सवाल यह है कि स्वतन्त्रता के बाद से चली आ रही कश्मीर समस्या का निपटारा करने की तरफ निर्णायक कदम बढ़ा दिया गया है। कश्मीर में सैलानियों की आवाजाही को बढ़ाने के लिए जरूरी है कि हम इस राज्य की राजनीति से उन लोगों को निकाल कर बाहर करें जो भारत में रहते हुए पाकिस्तान की पैरवी करने में शान समझते थे, परन्तु निश्चित रूप से राज्य की नेशनल कांफ्रैंस के नेता डा. फारूक अब्दुल्ला ऐसे नेताओं की श्रेणी में किसी भी तरह नहीं आते हैं क्योंकि भारतीय संविधान में उनका अटूट विश्वास रहा है।
 राज्य की दूसरी पार्टी पीडीपी नेशनल कांफ्रैंस की अपेक्षा ज्यादा रूढि़वादी मानी जा सकती है परन्तु भारतीय संविधान से बाहर जाने की जुर्रत उसने भी कभी नहीं की और इन पार्टियों के नुमाइन्दे संसद के वर्तमान सत्र में भी भाग ले रहे हैं। श्री आजाद स्वयं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमन्त्री रहे हैं और वे जानते हैं कि इस राज्य में दहशतगर्दों को राजनीति का अंग बनाने में किस तरह के हथकंडे अपनाये गये हैं। पत्थरबाजों की जमात को किसने और किस वजह से पैदा किया! दरअसल इस राज्य के विशेष दर्जे का इस्तेमाल भारत के महान लोकतन्त्र की दलगत राजनीति को भी विशेष दर्जे का बनाने में इस तरह किया जाता रहा कि पर्दे के पीछे से पाकिस्तान भी अपनी गोटियां खेलने में माहिर होने का ख्वाब पालने लगा। इस हकीकत से कौन इन्कार कर सकता है कि 2015 के विधानसभा चुनावों के बाद पीडीपी के मरहूम नेता मुफ्ती साहब ने चुनावों के शान्तिपूर्ण सम्पन्न होने पर परोक्ष रूप से आतंकवादी संगठनों का भी शुक्रिया अदा किया था। 
अनुच्छेद 370 को खत्म करने के ​िलए तो अकेला यही कारण काफी था, परन्तु फिर भी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने सब्र से काम लेते हुए पीडीपी के साथ ही राज्य में साझा सरकार बनाकर एक राजनीतिक प्रयोग करना बेहतर समझा जो असफल रहा। अतः अब अंतिम फैसला हो गया है और संसद से सड़क तक एक बात नुमाया हो चुकी है कि कश्मीर के लोगों के बारे में यहां के राजनीतिक दलों ने ही गलत अवधारणाओं को जन्म दिया जबकि वे दिल और दिमाग से पूरे हिन्दोस्तानी हैं और इस मुल्क की रवायतों को अपनी हसीन वादी में और भी ज्यादा दिलकश अन्दाज से मानते रहे हैं, इसलिए यह समय समस्त कश्मीरियों को भरोसा दिलाने का है कि उनके साथ पूरा हिन्दोस्तान खड़ा है। इसका इकबाल हर हिन्दोस्तानी को दिल से भी ज्यादा अजीज है। केन्द्र सरकार की निगेहबानी में इसके साथ छेड़छाड़ करने की हर कोशिश को जमींदोज कर दिया जायेगा, संसद से यही आवाज निकलनी चाहिए।

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