क्या विकास के पैसे सही दिशा में खर्च होते हैं ?

बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रुपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई
क्या विकास के पैसे सही दिशा में खर्च होते हैं ?
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बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रुपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर इस विषय के जानकारों को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। आज हम उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देख कर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये, वो सब कितने सच्चे हैं। दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रुपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रुपये में से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 70 वर्षों में कितने करोड़ रुपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, पौधारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ्य सेवाएं हों या शिक्षा का अभियान की अरबों-खरबों रुपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके हैं, जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते। जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है, इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी- बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते हैं, अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। अफ़सरों और निर्माण कम्पनियों का भांडा तब फूटता है जब लोकार्पण के कुछ ही दिनों बाद अरबों रुपए की लागत से बने राजमार्ग या एक्सप्रेस-वे गुणवत्ता की कमी के चलते या तो धंस जाते हैं या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसी धांधली केवल सड़क मार्गों पर ही होती है। ऐसा भी देखने को मिला है जब रेल की पटरियां भी धंस गई और रेल दुर्घटना हुई।

उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते हैं। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजैक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल ख़ानापूर्ति के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते हैं। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फ़र्ज़ीवाड़े का प्रतिशत काफी ऊंचा रहता है। यही वजह है कि योजनाएं खूब बनती हैं, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते। आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बाएं हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है पर चोरी पकड़ने का काम नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। ग्रामीण विकास के मंत्री ही नहीं बल्कि हर मंत्री को तकनीकी क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएं वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ति और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाएं ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें, जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरुद्ध जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढ़ेंगी और देश का सही विकास होगा। अभी भी सुधार की गुंजाइश है। लक्ष्य पूर्ति के साथ गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाए। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन घोषणाओं के चलते किए गए ये दावे गुणवत्ता के पैमाने पर कितने खरे उतरते हैं? चूंकि ऐसी योजनाओं में भ्रष्टाचार तो अपने पांव पसारता ही है? ऐसे में जनहित का दावा करने वाले नेता क्या वास्तव में जनहित करे पाएंगे?

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