'तू कहता है तो एक बार और पलट कर देख लूंगा तुम को
पर जानता हूं कि अब भी कंधों पर तेरे किसी और के हाथ हैं'
जनमत या बिना जनमत के भाजपा को सत्ता के घोड़े पर सवार होना आता है और विरोधियों के अच्छे-बुरे मंसूबों पर झाड़ू फेरना भी। कोई दशकभर पहले जब से दिल्ली की सियासत में अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी आप का अभ्युदय हुआ है, शनैः-शनैः भाजपा के लिए दिल्ली दूर होती चली गई, पर सत्ता पर नियंत्रण का शऊर भगवा पार्टी से कोई छीन नहीं पाया, एलजी या फिर दिल्ली की नौकरशाही के बहाने सत्ता की चाबी भाजपा ने परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर अपने पास ही रखी है।
कोई तीन हफ्ते पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी कर यह साफ कर दिया कि अब दिल्ली में किसी बोर्ड या कमीशन के गठन के अधिकार से भी दिल्ली सरकार वंचित रह जाएगी, इसके गठन का पूरा अधिकार अब दिल्ली के उप राज्यपाल के हाथों सौंप दिया गया है। अगर आपको 87 बैच के आईएएस नरेश कुमार याद हों जिन्होंने दिल्ली का मुख्य सचिव रहते तत्कालीन सीएम केजरीवाल की नाक में दम कर रखा था। इस 31 अगस्त को जब वे रिटायर हुए थे उससे पहले केंद्र सरकार की ओर से उन्हें दो बार एक्सटेंशन भी दिया जा चुका था। सूत्र बताते हैं कि अब दिल्ली के उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना के हाथ मजबूत करने के लिए व दिल्ली की आतिशी सरकार को नाको चने चबवाने के लिए केंद्र सरकार नरेश कुमार को वापिस दिल्ली लाने के लिए कृतसंकल्प है। भले ही इस बार उनका पोस्ट नया होगा, यानी वे 'एडवाइजर टू एलजी' या फिर लोकायुक्त बनाए जा सकते हैं, पर उनके काम का अंदाज वही पुराना होगा कि कैसे पहले की तरह दिल्ली सरकार की परियोजनाओं में अडं़गे लगाए जा सके।
नरेश कुमार ने दिल्ली के मुख्य सचिव का पद 2022 में संभाला था और तब से ही उन्होंने अपनी कार्यशैली से केजरीवाल की नाक में दम कर रखा था। इस 3 सितंबर को जारी नए अध्यादेश से जाहिर है कि नरेश कुमार की बांछें खिल गई होंगी जिसमें राष्ट्रपति द्वारा दिल्ली के एलजी को किसी भी ऑथरिटी, बोर्ड, कमीशन या अन्य कोई वैधानिक निकाय के गठन की पूरी शक्तियां सौंप दी गई हैं। नरेश कुमार आएंगे तो भगवा मंशाओं को एक नई धार दे पाएंगे।
यूपी के आईएएस अधिकारी के घर से 65 करोड़ की चोरी
आगे बढ़ने से पहले यहां यह बता देना लाजिमी रहेगा कि ये वही चिरपरिचित नौकरशाह हैं, चाहे लखनऊ में सल्तनत जिस पार्टी की रही हो, इनका सिक्का हर निज़ाम में बराबर चलता रहा है और योगी शासनकाल में तो इन्हें सेवानिवृत्ति के बाद भी हाई प्रोफाइल कार्य सौंपा गया है। इन साहब का एक छुट्टियों वाला घर है उत्तराखंड के भीमताल में, एक दिन अचानक पता चला कि साहब के भीमताल वाले घर में बड़ी सेंधमारी हो गई है, 65 करोड़ रुपयों की नकदी गायब है। हर ओर हड़कंप मच गया, पर बावजूद इसके स्थानीय पुलिस में चोरी की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई गई, क्योंकि इस नकदी के स्रोत को लेकर भ्रांतियां थीं। साहब ने अपने कुछ खास पुलिस ऑफिसर्स को बुलाकर मामले की पड़ताल करने को कहा, इस हिदायत के साथ कि मीडिया को इस बात की कानोंकान खबर न लगे। पर जब मीडिया ने मामले को सूंघ लिया तो साहब ने इस बात से साफ-साफ इंकार कर दिया कि उनका भीमताल में कोई घर भी है।
कुछ उत्साही सोशल मीडिया जीवियों ने तब इस घर के पेपर सोशल मीडिया पर वायरल कर दिए, नतीजन अब साहब को भी चुप कर बैठ जाना पड़ा है। ऐसा ही एक वाकया लखनऊ में तब हुआ था जब यूपी के तत्कालीन चीफ सैक्रेटरी की बेटी की शादी में से उनका बेशकीमती हार चोरी हो गया था। चीफ सैक्रेटरी ने तब अपने एक मुंहलगे एसएसपी से कहा-चोरी की कोई कंप्लेन नहीं होगी, पर हार ढूंढ कर लाना तुम्हारी जिम्मेदारी।' काफी भाग-दौड़ के बाद भी जब हार के चोर को पकड़ा नहीं जा सका तो एसएसपी ने सैक्रेटरी साहब से कहा-साहब, हार की कीमत बता दीजिए, मैं किसी लोकल ज्वेलर्स से जुगाड़ बिठाता हूं। पर उस हार की कीमत इतनी ज्यादा थी क्योंकि उसमें महंगे डायमंड लगे थे, सो एसएसपी उसका जुगाड़ बिठा नहीं पाए तो उनका लखनऊ से तबादला हो गया। पर इस दफे 65 करोड़ की पीड़ा से उबरने का भले ही साहब दिखावा कर रहे हों, पर मैडम का दुख किसी से देखा नहीं जा रहा। वैसे भी साहब की यह गहरी कमाई थी उन्होंने ही तो अपने वक्त में पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे, बुंदेलखंड और गंगा एक्सप्रेस-वे जैसे प्रोजेक्ट यूपी को तोहफे में दिए थे।
क्या राम माधव भी हो सकते हैं नए भाजपा अध्यक्ष?
भाजपा व संघ के बीच में तालमेल का काम महासचिव बी.एल. संतोष के जिम्मे है, पर एक और चर्चा ने परवाज भरने शुरू कर दिए हैं कि अगर जम्मू-कश्मीर के ताजा चुनाव में राम माधव इस मुस्लिम राज्य में एक हिंदू सीएम बनवा पाने में कामयाब रहते हैं तो पारितोषित के तौर पर उन्हें भाजपा अध्यक्ष बनाने पर सोचा जा सकता है। हालांकि राम माधव पिछले चार वर्षों से यानी 2020 से भाजपा की मुख्यधारा की राजनीति से अलग कर दिए गए थे। पर कहा जाता है कि इसके बावजूद भी वे संघ और पीएम मोदी के लगातार दुलारे बने रहे। मोदी के विदेशी दौरों को प्लॉन करने और वहां के भारतीय समुदाय के साथ उसे जोड़ने की प्रक्रिया को वे पहले की तरह अंजाम देते रहे।
अजित न घर के रहे ना घाट के
महाराष्ट्र के भाजपानीत गठबंधन महायुति में एनसीपी नेता अजित पवार बेहद घुटन महसूस कर रहे हैं। वे इस गठबंधन को छोड़ने के लिए बेकरार दिखते हैं, पर उनके चाचा शरद पवार हैं जो अब तक उनसे रूठे हुए हैं, अपनी ओर से स्वीकार्यता की बांहें ही नहीं फैला रहे। उल्टे चाचा शरद ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी देकर कहा है कि एनसीपी के घड़ी के निशान को फ्रीज कर दिया जाए। दरअसल एनसीपी में टूट के बाद अजित गुट को असली मान कर उन्हें घड़ी का चुनाव चिन्ह रखने दिया गया, जबकि पवार की पार्टी को 'तुरही बजाता हुआ आदमी' वाला नया चिन्ह आवंटित कर दिया गया।
पिछले लोकसभा चुनाव में शरद पवार के गुट ने 9 लोकसभा सीट जीत ली, जबकि अजित को सिर्फ एक सीट से ही संतोष करना पड़ा। पिछले दिनों महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम देवेंद्र फड़णवीस ने यह कह कर खलबली मचा दी थी कि 'अजित के साथ आने से हमारे वोटर को अच्छा नहीं लगा, पर अब हमने 80 प्रतिशत तक इसे ठीक कर लिया है।' अभी महाराष्ट्र में भाजपा को एमएलसी की जो 12 सीटें आ रही हैं, भाजपा पर दबाव है कि इसमें से आधी सीटें वे अपनी सहयोगी पार्टियों को दें यानी 3 शिंदे गुट को और 3 अजित गुट को। अगर भाजपा इस बात पर सहमत होती है और वह तीन सीटें अजित पवार को दे देती है तो फिर अजित की यह नैतिक जिम्मेदारी हो जाएगी कि वह विधानसभा चुनाव में भी महायुति के पक्ष में ही कदमताल करें।
…और अंत में
इन दिनों यूपी में भाजपा पदाधिकारी बनाए जाने में खूब पैसों का खेल चल रहा है। मंडल-जिला स्तर से लेकर किसान सेल तक में कमोबेश यही खेल जारी है। पैसा लेकर पद बांटने वाले नेताओं के तर्क हैं कि 'जब हमें चुनाव मोदी-योगी के चेहरे पर ही लड़ना व जीतना है तो ऐसे में बाकी चेहरों से क्या लेना-देना?' पार्टी ने यूपी में भी अपनी सक्रिय सदस्यता अभियान चलाया हुआ है, हर एक सदस्य को 100 और सदस्य बनाने का टार्गेट दिया गया है, कम ही लोग हैं जो टार्गेट के आसपास फटक पा रहे हैं, पर कागजों पर देखिए तो टार्गेट कब का पार हो चुका है।