देश की अर्थव्यवस्था को लेकर रिजर्व बैंक ने जो चेतावनी जारी की है उसका अर्थ यही है कि वर्तमान वित्त वर्ष में सकल विकास वृद्धि की दर उल्टी घूमेगी जिसका सबसे ज्यादा असर समाज के सबसे गरीब तबकों पर पड़ेगा। मगर राष्ट्रीय स्तर पर एक और घटना चक्र वस्तु व माल कर ( जीएसटी) को लेकर घूम रहा है। देश के गरीब राज्यों की हालत इस व्यवस्था के चलते बहुत खस्ता हो चुकी है क्योंकि कोरोना और लाकडाऊन ने इन राज्यों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह गड़बड़ा दिया है और अब ये केन्द्र सरकार से गुहार लगा रही हैं कि उन्हें उनका जायज हिस्सा जल्दी से जल्दी दिया जाए। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार की राजस्व उगाही भी लगातार कम हो रही है जिससे आर्थिक स्थिति जटिल होती जा रही है। केन्द्र को विभिन्न राज्यों का छह लाख करोड़ रुपए के लगभग हिस्सा अदा करना है जो मार्च के बाद से बनता है। यदि राज्यों को उनका हिस्सा नहीं मिलता है तो उनके पास अपने सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने तक के पैसे भी नहीं रहेंगे। अतः इसका हल जल्दी ही निकालना पड़ेगा। इसके साथ ही केन्द्र सरकार को उन राज्यों को मुआवजा धनराशि का भुगतान भी करना है जिन्हें जीएसटी पद्धति लागू होने के बाद राजस्व हानि हुई है। मगर सवाल यह है कि केन्द्र यह भुगतान कहां से करेगा जब स्वयं उसका खजाना खाली हो रहा है और वित्तीय घाटा बढ़ने के आसार बन चुके हैं। इसका एक रास्ता तो यह है कि केन्द्र रिजर्व बैंक से और मुद्रा छापने को कहा और अपना घाटा पूरा करने के साथ सारी देनदारियां निपटाये।
बेशक इससे वित्तीय घाटा और बढे़गा मगर अर्थव्यवस्था में धन की आपूर्ति बढ़ने से बाजार में खरीदारी का माहौल बनेगा जिससे उत्पादनगत गतिविधियों में तेजी आयेगी जिससे शुल्क उगाही में भी तेजी आयेगी और सुस्त अर्थव्यवस्था में चुस्ती का दौर शुरू होगा। दूसरा उपाय यह है कि सरकार बैंक से कर्ज उठाये। यह कर्ज उसे राज्य सरकारों के मुकाबले कम दर पर मिलेगा। यदि राज्य सरकारें स्वयं एेेसा कर्ज लेती हैं तो ब्याज की दर ऊंची देनी पड़ेगी। अतः संघीय ढांचे को मजबूती के लिए केन्द्र को यह कदम उठाने के लिए विवश होना पड़ सकता है। मगर एक इससे भी बड़ा सवाल पंजाब के वित्तमन्त्री मनप्रीत सिंह बादल ने उठाया है कि पूरा जीएसटी ढांचा कोरोना के झटके से ही चरमराता नजर आ रहा है और राज्यों के पास सिवाय इसके कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है कि वे केन्द्र के दरवाजे पर याचना करती फिरें। जबकि जीएसटी निजाम से पहले राज्य सरकारें अपने वित्तीय साधन जुटाने के लिए खुद मुख्तार थीं और हर संकट काल का समाधान खोजने के लिए स्वतन्त्र थीं। जीएसटी निजाम ने उनके विकल्प बहुत सीमित कर दिये हैं। उनके पास केवल अल्कोहल व पेट्रोल ही दो ऐसे उत्पाद बचते हैं जिन पर वे अपने हिसाब से शुल्क लगा सकती हैं मगर इन उत्पादों पर भी गैर तार्किक ढंग से शुल्क लगाने का कोई औचित्य नहीं बनता है। विशेष रूप से पेट्रोल या डीजल पर मूल्य वृद्धि कर राज्य सरकारें लगाती हैं वह उच्चतम स्तर पर है और कोरोना काल में इस शुल्क में और वृद्धि की गई है। यह सीधे आम जनता को प्रभावित करता है और उसकी कमर तोड़ता है। आज 27 अगस्त को जीएसटी परिषद की बैठक हो रही है जिसमें सभी राज्यों के वित्तमन्त्री भाग लेंगे। इस बैठक का मुख्य विचारणीय मुद्दा केन्द्र से अपने हिस्से का धन मांगना ही होगा। इसे लेकर भाजपा व कांग्रेस का भेद इस प्रकार मिट गया है कि बिहार के भाजपाई वित्त व उपमुख्यमन्त्री सुशील मोदी ने मांग कर डाली है कि केन्द्र को राज्यों का भुगतान करना ही चाहिए चाहे इसके लिए उसे कर्जा ही क्यों न लेना पड़े।
कुल मिला कर देखें तो राज्यों का भी परोक्ष रूप से यह कहना है कि केन्द्र सरकार को अब घाटा पूरा करने के लिए मुद्रा छाप कर समस्या से निपटने पर विचार करना चाहिए। बाजार में रोकड़ा की कमी होने की वजह से ही समूची अर्थव्यवस्था मन्दी की राह पर चल पड़ी है। इसमें अब कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि भारत मन्दी के चक्र में प्रवेश कर गया है क्योंकि अर्थव्यवस्था के सभी आधारभूत मानक लगातार नीचे की तरफ जा रहे हैं। उत्पादन घट चुका है, निर्यात कम हो चुका है और सरकारी शुल्क प्राप्ति निचले स्तर पर पहुंचने को है। डालर और रुपये की विनिमय दर नाजुक स्थिति में पहुंच चुकी है और रुपये की क्रय शक्ति पहले से ही कमजोर है। इससे सबसे ज्यादा परेशानी रोजगार के क्षेत्र में पैदा हो रही है।
विगत जुलाई महीने तक दो करोड़ नौकरी पेशा लोग ही कोरोना ने बेरोजगार बना दिये हैं। इसका मतलब यही है कि आर्थिक मन्दी अब चौतरफा असर डाल रही है जिसे देखते हुए अर्थ व्यवस्था को पटरी पर डालने के पुख्ता इस पर मुस्तैद दिखानी होगी। ऐसा करना जीएसटी निजाम को बचाने के लिए भी बहुत जरूरी है, वरना राज्य सरकारें इससे बाहर आने के लिए मुहीम चला सकती हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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