लोकसभा चुनाव नजदीक हैं, इसलिए दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों के नियमितीकरण का मुद्दा फिर उठाया जा रहा है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने दिल्ली में अनधिकृत कॉलोनियों के निवासियों को सम्पत्ति कर स्वामित्व या स्थानांतरण अधिकार देने की प्रक्रिया तय करने के लिए एक समिति गठित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों के निवासियों को मालिकाना हक कैैसे दिया जाए, इस बात का अध्ययन करने के लिए उपराज्यपाल की अध्यक्षता में कमेटी विचार करेगी और प्रक्रिया तय करेगी। राजधानी में 1797 अनधिकृत कॉलोनियां हैं और महानगर की 40 फीसदी आबादी इन कालोनियों में रहती है।
राजधानी की चमचमाती सड़कें, गगनचुम्बी अट्टालिकाएं, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, स्कूल, कॉलेजों व अस्पतालों की भरमार, मैट्रो नेटवर्क के लगातार विस्तार और पड़ोसी राज्यों के शहरों तक नए राजमार्गों ने दिल्ली की चमक-दमक को पहले से अधिक बढ़ा दिया है लेकिन इसका एक स्याह पहलू भी है। राजधानी की काफी आबादी अनधिकृत कॉलोनियों, पुनर्वास बस्तियों और झुग्गी-झोंपडि़यों में रहती है। यह एक बड़ा वोट बैंक है। साफ है कि दिल्ली की सियासत में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कई दशकों से इनका इस्तेमाल वोट बैंक के तौर पर होता रहा है। चुनाव दर चुनाव इन कॉलोनियों को नियमित करने के वादे कर सरकारें वोट बटोरती आई हैं।
दिल्ली शहर का विकास आजादी के बाद से ही बेतरतीब ढंग से हुआ है। लुटियन की दिल्ली को छोड़ दें तो अनधिकृत कॉलोनियों की बसावट आजादी के बाद से ही शुरू हो गई थी। वर्ष 1957 में दिल्ली के योजनाबद्ध विकास के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) का गठन किया गया था तब तक काफी संख्या में अवैध कालोनियां बस चुकी थीं। 1962-63 में शहर की 103 कॉलोनियों को पहली बार नियमित करने की घोषणा की गई थी। नई-नई अनधिकृत कालोनियां बसती गईं और वर्ष 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के निर्देश पर 567 कॉलोनियों को नियमित किया गया। कुकुरमुत्तों की तरह अनधिकृत कॉलोनियां उगती रहीं।
आखिर यह रातोंरात तो उगी नहीं। डीडीए सफेद हाथी साबित हुआ। शुरूआती योजनाओं में उसे सफलता मिली लेकिन महानगर की बढ़ती आबादी के चलते डीडीए पूरी तरह नाकाम हो गया। प्राधिकरण इतनी बड़ी आबादी को छत्त कैसे मुहैया करा सकता था। रोजी-रोटी और बेहतर भविष्य की तलाश में दूसरे राज्यों के लोग हर साल दिल्ली में आकर बसते रहे। आखिर उन्हें भी रहने के लिए छत्त चाहिए थी। चन्द राजनीतिज्ञों की शह पर माफिया ने डीडीए, एएसआई (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण), वन विभाग, रेलवे सहित विभिन्न सरकारी विभागों की खाली पड़ी जमीन पर रातोंरात प्लॉट काट दिए। दिल्ली में 200 से ज्यादा अवैध कॉलोनियां वन विभाग तथा एएसआई की जमीन पर बसी हुई हैं। भूमाफिया, अफसर और राजनीतिज्ञों की सांठगांठ के चलते कालोनियां कटती रहीं।
माफिया ने अरबों रुपए तो कमाए ही, साथ ही उन्होंने इन कालोनियों के लोगों को स्थायी तौर पर वोट बैंक बना दिया। 1993 में दिल्ली में राज्य सरकार के गठन के बाद भाजपा के मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने तो इस मामले पर सियासत काफी गर्माई। 1998 के अन्त में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा को पराजित कर कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में सरकार बनाई। कांग्रेस को सत्ता दिलाने में महंगाई की भूमिका तो थी ही लेकिन अनधिकृत कालोनियों में रहने वाले लोगों ने कांग्रेस के पक्ष में जमकर मतदान किया। एक भी कालोनी नियमित नहीं की जा सकी लेकिन कालोनियों में बिजली, पानी, सड़क आदि की सुविधाएं जरूर बहाल की गईं।
2008 के विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस ने फिर तुरुप का पत्ता फैंका और शीला दीक्षित सरकार ने केन्द्र सरकार के सहयोग से करीब 1200 कालोनियों को नियमितीकरण का अस्थायी प्रमाणपत्र बांटने की घोषणा की। यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के हाथों यह प्रमाणपत्र भी बंटवा दिए। हार की चर्चा के बावजूद भी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की शानदार जीत हुई। लोगों को विश्वास हो गया था कि आज न कल उनकी कालोनी नियमित हो जाएगी। सरकारें बदलती रहीं लेकिन कालोनियां नियमित नहीं की गईं। इस मुद्दे पर सियासत जमकर हुई लेकिन 1977 के बाद 42 वर्ष बीत गए।
इतने वर्षों में अनेक नाटकीय घटनाक्रम भी हुए। सीलिंग के दौर में दिल्लीवासियों ने अपने आशियाने उजड़ते भी देखे। अनधिकृत कालोनी होने के कारण सम्पत्तियों की रजिस्ट्री, भवन निर्माण के लिए बैंक ऋण जैसी दिक्कतों का सामना लोग कर ही रहे हैं। दिल्ली की अरविन्द केजरीवाल सरकार ने भी अब अनधिकृत कालोनियों में मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने की मुहिम छेड़ रखी है। निर्वाचित सरकारों का काम ही जनता के जीवन को सहज बनाना होता है। अनधिकृत कालोनियों को चमकाने के लिए दिल्ली सरकार ने बजट में व्यवस्था की है। इन कालोनियों में सड़क, नाली, पेयजल और सीवर लाइन सहित मूलभूत सुविधाएं पहुंचाने की दिशा में काम किया जा रहा है। अवैध कालोनियों को नियमित कैसे किया जाए, इस प्रक्रिया का निर्धारण तो चुनावों के बाद ही तय होगा। दिल्ली के लाखों लोगों के जीवनस्तर को सुधारना नई सरकार की प्राथमिकता होनी ही चाहिए। अब इस मुद्दे को और लटकाया नहीं जाना चाहिए।