लाला लाजपत राय की शहादत के पश्चात पंजाब कांग्रेस का सारा भार लाला जगत नारायण के कंधों पर आ पहंुचा। उन्हें कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशनों में भी बुलाया जाने लगा। उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य भी बनाया गया। वहां लाला जी की मुलाकात महात्मा गांधी, पं. नेहरू, सरदार पटेल, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, अब्दुल कलाम आजाद और मुहम्मद अली जिन्ना से औपचारिक और व्यक्तिगत तौर पर भी होती थी। जो मैं लिख रहा हूं खुद मेरे दादा जी ने मुझे सभी बातें बताई हैं, जिन्हें मैं अभी तक भूला नहीं।
आज मैं एक ऐसी घटना का रहस्योद्घाटन करने जा रहा हूं जिसके बारे में शायद कोई न जानता हो, इतने गुप्त ढंग से इस घटना को अंजाम दिया गया जिससे भारत की स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई और विश्व परिदृश्य पर भी इस घटना ने गहरा असर डाला। इसका जिक्र न तो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के किसी इतिहासकार ने किया और न ही किसी किताब में इसके बारे में बताया गया।कांग्रेस के विभिन्न अधिवेशनों में लाला जी ने देखा कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में भी कांग्रेस पार्टी के कई धड़े बने हुए थे। पं. नेहरू का अपना धड़ा था।
सरदार पटेल पंडित जी के विरुद्ध नहीं थे लेकिन सरदार पटेल और पंडित नेहरू जी की सोच में फर्क था। मुहम्मद अली जिन्ना तो शुरू से ही मुस्लिम लीग के साथ थे और उनका अपना धड़ा था। सबसे महत्वपूर्ण था नेताजी सुभाषचंद्र बोस और पं. नेहरू का एक-दूसरे के घोर विरुद्ध होना। नेता जी और पं. नेहरू एक-दूसरे से आंख तक नहीं मिलाते थे। मेरे दादाजी ने मुझे नेताजी द्वारा पं. नेहरू को लिखित अंग्रेजी का एक पत्र दिखाया था जिसमें नेता जी ने पं. नेहरू को संबोधित करते हुए लिखा था- “जो तुम कांग्रेस के अधिवेशनों में बंदरों की तरह उछल-उछल कर बोलते रहते हो, उसको बंद करो” पाठकगण इन तीन पंक्तियों से ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नेताजी और पं. नेहरू में किस कदर नफरत थी।
लाला जी जहां महात्मा गांधी और पं. नेहरू की पूरी इज्जत करते थे वहां उनके खास प्रिय सरदार पटेल और नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे। सरदार और नेता जी भी लालाजी के बहुत नजदीक थे। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी तीन मुख्य धड़े में बंटी थी। महात्मा गांधी तो निष्पक्ष और निर्विरोध नेता थे। लेकिन पं. नेहरू का अपना एक धड़ा था जिसमें सरदार पटेल, अब्दुल कलाम आजाद और अन्य कई प्रमुख कांग्रेसी नेता थे। वहां मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों के लिए अलग देश पाकिस्तान की रट शुरू कर दी थी।
उन्हें बाहर से मुस्लिम लीग का समर्थन हासिल था। तीसरा धड़ा नेेताजी सुभाष चन्द्र बोस का था, जो पं. नेहरू और जिन्ना दोनों से नफरत करते थे और उनके अनुसार महात्मा गांधी के अहिंसक आन्दोलनों से अंग्रेज भारत को आजाद नहीं करेंगे। नेताजी की सोच थी कि अंग्रेजों से तो आजादी हमें छीननी पड़ेगी। इसीलिए नेेताजी ने यह नारा बुलंद कर दिया थाः “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा!” यह उन दिनों की बात है जब नेताजी ने महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन को छोड़ विद्रोह का रास्ता अपना लिया था और यह फैसला कर लिया था कि अब अहिंसा के रास्ते से अंग्रेज भारत को कभी आजादी नहीं देंगे।
नेता जी ने अंग्रेजों से बलपूर्वक आजादी छीनने की योजना बना ली थी। उन्हीं दिनों नेता जी लाला जी के बहुत करीब आ चुके थे और नेताजी लाला जी पर पूर्ण विश्वास करते थे। 1944 तक दूसरा विश्व युद्ध पूरी दुनिया में छिड़ चुका था। ऐसे में भारत को आजाद करवाने के लिए नेताजी ने पूर्व में जापान और पश्चिम में जर्मनी के तानाशाह हिटलर के जरनलों से अपना संबंध स्थापित कर लिया था। आज भी मैं जानता हूं कि महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन को तो अंग्रेजों ने भारत को आजाद करने का मुख्य कारण करार दिया। लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात आर्थिक रूप से ब्रिटेन कंगाल हो चुका था। जहां-जहां उसने अन्य देशों खास तौर पर भारत पर अपना कब्जा कर रखा था।
उन्हें लगने लगा था कि अब ज्यादा दिन भारत को अपने अधीन रखना मुश्किल होगा। उधर नेताजी जापानी सेनाओं के साथ ‘आजाद हिंद फौज’ का झंडा लिए बर्मा तक पहुंच गए थे। अंग्रेजों को जापानी और नेता जी की आजाद हिंद फौज से हर जगह शिकस्त मिलने लगी। अगर नेताजी की अकस्मात ‘कथित मौत’ न होती तो शायद आजाद हिंद फौज और जापानी फौज मिल कर भारत माता को अंग्रेजों की बेडि़यांे से आजाद करवा लेते। बहरहाल बात उन दिनों की है जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस को बर्लिन यानी जर्मनी में हिटलर को मिलने जाना था।
उनका ‘गुप्त प्लान’ जो शायद मैं इतिहासकारों और नेता जी की जीवनी लिखने वालों के लिए प्रथम बार उजागर करने जा रहा हूं। वो यह था कि नेता जी को पंजाब के पेशावर शहर पहुंचकर भारत और अफगानिस्तान के बीच दर्रा-ए-खैबर पार करके अफगानिस्तान पहुंचना था, वहां जर्मनी के ‘हैलीकाप्टर’ उनका इंतजार करते और उन्हें उठाकर जर्मनी ले जाते।
1941 से 1943 तक नेताजी जर्मनी में रहे। फिर 1943 में मैडागास्कर (Medagasker) से नेताजी एक जर्मन पनडुब्बी में गुप्त रूप से बैठ कर जापान पहुंचे। जहां से ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन हुआ। बाकी का इतिहास तो पूरी दुनिया जानती है कि कैसे नेताजी की आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों को नाकों चने चवा दिए थे। वर्ष 1941 की बात है, एक दिन लाला जी को लाहौर में एक बंगाली मिलने आया। उसने नेता जी का एक गुप्त पत्र लाला जी को दिया। इस पत्र में नेता जी ने भारत से जर्मनी जाने का अपना पूरा ‘प्लान’ लाला जी को लिख भेजा था, जो कि अत्यंत गुप्त था। इतना भरोसा था नेताजी को हमारे पूज्य दादा जी लाला जगत नारायण पर। लाला जी ने पत्र पढ़ा और उस बंगाली संदेश वाहक से कहा “जाओ नेता जी से कह दो काम हो जाएगा।” (क्रमशः)