पहले 1947 के बंटवारे में लाला जी द्वारा हिन्दू-सिखों की रक्षा के लिए सर संघ चालक गुरु गोलवरकर जी, हिन्दू महासभा के वीर सावरकर, मास्टर तारा सिंह से हाथ मिलाया था। तब पंडित जी को अच्छा नहीं लगा था। दूसरी बार जब उन्हें अंग्रेजों ने नेता जी को जर्मनी पहुंचाने के शक पर गिरफ्तार किया था तो भी पंडित जी को अच्छा कैसे लगता। तीसरे महात्मा गांधी के बेटे को वापिस हिन्दू धर्म में लाने के मामले पर भी पंडित जी ने चुप्पी साध ली थी। चौथे सरदार पटेल और नेता जी की निकटता भी लालाजी को पंडित जी की नजरों में महंगी पड़ी। तभी तो जब मुख्यमंत्री बनाने का समय आया तो पंडित जी ने लालाजी को साम्प्रदायिक करार दे दिया। मुख्यमंत्री तो नहीं बनाया लेकिन पंडित जी लालाजी के प्रभाव को पंजाब सरकार में कम नहीं कर सके।
वैसे तो पंडित जी दिल ही दिल से लालाजी की बेहद इज्जत करते थे। लालाजी ने जो खत पंडित जी को दिया था उसमें यह भी लिखा था कि आपकी जेल और हमारी जेल में फर्क था। आप को तो अंग्रेजों ने फाइव स्टार किलों में राजकुमारों की तरह रखा था। हम तो किलों की काल कोठरियों में सड़ते रहे। वैसे भी भीमसेन सच्चर ‘लाईट वेट’ थे। दिल्ली से उन्हें थोपा गया था। पंडित जी को उनसे ज्यादा भरोसा लालाजी और प्रताप सिंह कैरों पर था। इसीलिए लालाजी और कैरों काे पंजाब की प्रथम कांग्रेसी सरकार में प्रमुख मंत्रालय दिए गए थे। 1952 से 1954 तक तो सब कुछ ठीक था। इस बीच मास्टर तारा सिंह ने सिखी का राग छेड़ दिया और स्वर्ण मंदिर परिसर में भूख हड़ताल पर बैठ गए।
पंजाब में एक नया राजनीतिक विद्रोह शुरू हो गया। ऐसे में लालाजी, प्रताप सिंह कैरों और मुख्यमंत्री श्री भीमसेन सच्चर की बैठक हुई कि इस मुसीबत से कैसे निपटा जाए? लालाजी ने राय दी कि हमें मास्टर तारा सिंह की गीदड़ भभकियों से डरना नहीं चाहिए। आप मुझ पर छोड़िए, मैं उससे निपटता हूं। लालाजी ने उसी समय डी.आई.जी. अश्विनी कुमार को बुलाया और पूछा कि क्या तुम बिना बूट डाले और बिना हथियार मास्टर तारा सिंह को गोल्डन टैम्पल परिसर से उठाकर ला सकते हो। अश्विनी ने कहा ‘Yes Sir’. दूसरे ही दिन बहादुर डी.आई.जी. श्री अश्विनी कुमार बूट उतार कर बिना किसी हथियार के स्वर्ण मंदिर परिसर में घुसे और इससे पहले कि किसी को पता चलता या शोर-शराबा होता अश्विनी कुमार अपनी गोदी में मास्टर तारा सिंह को उठा परिसर से बाहर ले आये और उन्हें हिरासत में ले लिया। जब अकालियों ने मास्टर तारा सिंह की गिरफ्तारी पर शोर मचाना शुरू किया तो इसका खामियाजा मुख्यमंत्री श्री भीमसेन सच्चर को भुगतना पड़ा और पंडित जी ने उनसे त्यागपत्र ले लिया।
मास्टर तारा सिंह के बाद संत फतह सिंह सिखों के नेता के रूप में उभरे। उनकी छवि और प्रसिद्धि सिखों में बहुत बढ़ी। उस समय पंजाब के सिखों के वे एक मात्र नेता थे। हिन्दू-सिख एकता के मुद्दे पर धर्मनिरपेक्षता को उन्होंने बहुत आगे बढ़ाया। सचमुच में वे एक संत थे। लाला जी से उनके सम्बन्ध बेहद मधुर थे। ज्यादा समय संत फतह सिंह जी लुधियाना, अमृतसर और जालन्धर समेत पूरे पंजाब के दौरों पर लगाते थे। मैं तब बहुत छोटा था। मुझे आज भी याद है कि मैं अपने पूज्य दादाजी के साथ कई बार संत फतह सिंह जी से मिलने गया। कई बार जालन्धर स्थित संत जी हमारे घर पर भी आए, लाला जी और संत फतह सिंह हमेशा पंजाब के सिख और हिन्दू भाइयों और बहनों की तरक्की और पंजाब की समृद्धि पर विचारों का आदान-प्रदान किया करते थे।