मुझे याद है मैं 1979 में पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से पत्रकारिता की डिग्री लेकर अपने दादा लाला जगतनारायण जी और पिता श्री रमेश जी के चरणों में बैठकर पत्रकारिता की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग ले रहा था। इससे पहलेे मैंने जालंधर डीएवी कालेज से बी.काम की डिग्री फर्स्ट क्लास में हासिल की थी और साथ ही साथ इंटर कालेज क्रिकेट टूर्नामेंट भी खेला करता था। ग्रेजुएशन के साथ-साथ मेरा क्रिकेट के क्षेत्र में उत्थान हुआ और मैं इंटर कालेज का सबसे बढ़िया खिलाड़ी पूरे पंजाब में घोषित कर दिया गया। यह भी अपने आप में एक रोचक कहानी है। कहते हैं “Man Purposes and God disposes” और इंसान के जीवन का फैसला भी उसके आसपास की सामाजिक और सियासी परिस्थितियां, भाग्य और भगवान ही करता है।
पिछले जन्मों के कर्मों, अच्छे या बुरे जैसे भी हों, वो भी हमारे इस जीवन में भाग्य निर्धारण करते हैं। पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि अगर स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश में इमरजेंसी न लगातीं तो मैं बिशन सिंह बेदी, ईरापल्ली प्रसन्ना और चंद्रशेखर जैसे टैस्ट क्रिकेट के दिग्गज गेंदबाजों से कहीं आगे निकल जाता और दस से पंद्रह वर्ष तक सारी दुनिया इंग्लैंड, वेस्टइंडीज, आस्ट्रेलिया, श्रीलंका और न्यूजीलैंड जैसे देशों में और भारत में टैस्ट क्रिकेट में अपनी गेंदबाजी से प्रभु इच्छा से वर्ल्ड रिकार्ड बनाता लेकिन कहते हैं किः-
किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,
किसी को जमीं और किसी को आसमां नहीं मिलता।
वर्ष 1968 में जब मैं मात्र 13 वर्ष का था और लाहौर के सबसे बड़े डीएवी कॉलेज जो 1947 के भारत-पाक विभाजन के पश्चात जालंधर शहर में स्थापित हो गया था, उस समय पूरे उत्तर भारत में और शायद पूरे भारत में डीएवी कॉलेज जालंधर से बड़ा और शिक्षा के मामले में उच्च श्रेणी का कॉलेज कोई नहीं था। भारत की सुदूर जगहों से विद्यार्थी यहां पढ़ाई करने आते थे। एक उदाहरण मुझे याद है कि सुदूर राजस्थान के श्रीगंगानगर से प्रख्यात गजल गायक जगजीत सिंह ने अपनी ग्रेजुएशन डीएवी कॉलेज से की थी और चार वर्ष होस्टल में रहे थे। यह बात उन्होंने मुझे खुद बताई थी। बाद में मेरी मुलाकात कितने ही देश-विदेश के उद्योगपतियों, अर्थशास्त्रियों, बड़े-बड़े अफसरों, टाॅप डाक्टरों और बड़े-बड़े राजनीतिज्ञाें, टेक्नोक्रेट, फौजी कर्नल, जनरलों से हुई जो बड़े गर्व से बताया करते थे कि वे तो डीएवी कॉलेज जालंधर में स्नातक या मास्टर डिग्री लेकर निकले थे।
अब जरा इस कॉलेज के प्रिंसिपल को याद करें तो यहां डीएवी कॉलेज लाहौर से जालंधर आने के पश्चात पहले प्रिंसिपल थे श्री सूरजभान, इतने प्रतिभावान कि बाद में वो पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ के वाईस चांसलर बने। जैसे डीएवी कॉलेज, जालंधर को देश का सर्वोत्तम कॉलेज उन्होंने बनाया वहां थोड़े समय में ही पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ का परचम भी पूरे देश में लहरा दिया। 1956 में यूनाइटेड पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ में बनी। पंजाब यूनिवर्सिटी न केवल पूरे देश की एकमात्र सर्वोत्तम यूनिवर्सिटी थी बल्कि देश और विदेशों से विद्यार्थी यहां पढ़ने आया करते थे। मुझे याद है कि उस समय के सर्वेक्षण के अनुुसार दुनिया की टाप दस यूनिवर्सिटियों में पंजाब यूनिवर्सिटी सबसे ऊपर के पायदान पर आती थी।
अब मैं फिर वापस डीएवी कॉलेज, जालंधर की ओर आता हूं। इसी कॉलेज के साथ एक स्कूल भी था जिसका नाम डीएवी माॅडल स्कूल था। यह स्कूल भी प्रदेश का सर्वोत्तम स्कूल माना जाता था। क्योंकि मेरा परिवार आर्य समाजी था और पूरे देश में फैले डीएवी कॉलेज और स्कूल स्वामी दयानंद की सोच और शिक्षा विस्तार की विचारधारा के नतीजे हैं। स्वामी दयानंद कहा करते थे कि जब तक भारत देश में पुरुषाें और स्त्रियों में शिक्षा का विस्तार नहीं होगा, तो न तो मनुष्य का मानसिक और शारीरिक विकास होगा और न ही भारत देश तरक्की करेगा। स्वामी दयानंद ने अपने जीवन में विधवा विवाह, सती प्रथा और औरतों को शिक्षा जैसे कई और सामाजिक सुधार किये। अंततः उन्हें उनके विचारों के विरोिधयों ने दूध में एक दिन कांच पीस मिलाकर पिला दिया।
पहली बार तो स्वामी जी ने अपनी योग प्रक्रिया से इस जहर को शरीर से निकाल फैंका लेकिन दूसरी बार जब भारी मात्रा में उनके दुश्मनों ने उन्हें कांच पीसकर दूध में पिला दिया तो स्वामी दयानंद बच नहीं सके और निर्वाण को प्राप्त हुए। मूर्ति पूजा के घोर विरोधी स्वामी दयानंद ने एक ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी लिखा है जिसमें ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के अलावा पुराणों को सरल भाषा में समझाया गया है। स्वामी दयानंद अपने बुद्धिजीवी अनुयायियों को आर्य समाज मंदिर में इकट्ठा कर वेदों और पुराणों पर आत्ममंथन और बहस करने को प्रेरित करते थे, ताकि सभी मनुष्यों और महिलाओं का दिमागी विकास हो सके और भारत की 5000 साल पुरानी संस्कृति और धरोहर आगे बढ़ती रहे। स्वामी जी कहा करते थे हम ‘आर्य’ हैं। गर्व से बोलो हम आर्य पुत्र हैं। आज भी लाखों आर्य समाज मंदिरों में आर्य समाज और स्वामी दयानंद के अनुयायी सप्ताह में एक दिन इकट्ठे होकर वेदों और स्वामी जी के विचारों पर चिंतन-मंथन करते हैं।