अमर शहीद स्व. लाला जगत नारायण जी के साथ तीन विशेषणाें को मैं बिना अपनी लेखनी में बांधे आगे बढ़ ही नहीं सकता था। आइये, पहले उनके जीवन पर एक दृष्टिपात करें ताकि हम इस विषय के साथ न्याय करते हुए उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित कर सकें- थोड़ा अतीत में झांकना बड़ा आवश्यक है। मैं “Nobility of Blood” पर विश्वास करने वाला व्यक्ति हूं। इसलिए मैं आपको ‘सिख राज’ की ओर लिए चलता हूं।
सिख राज यानी महाराजा रणजीत सिंह का काल। महाराजा रणजीत सिंह को विश्व एक ऐसे महाराजा के रूप में देखता है जिनके साथ इतिहास ने न्याय नहीं किया। मैं जब छोटा था तो पूज्य लालाजी मुझे ‘दीवान साहिब’ कहकर आवाज मारा करते थे। जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो मैंने दादाजी से पूछा कि आप मुझे ‘दीवान साहिब’ कहकर क्यों पुकारते हो, तो उन्होंने मुझे बताया कि उनके परदादा दीवान मूलराज चोपड़ा महाराजा रणजीत सिंह की फौज में हरिसिंह नलवा के साथी और नम्बर दो के सेनापति थे।
लालाजी के परदादा दीवान मूलराज चोपड़ा का जन्म गुजरांवाला (पंजाब) में 1786 में हुआ था। जब 1805 ई. में महाराजा रणजीत सिंह ने बसंतोत्सव पर एक प्रतिभा खोज प्रतियोगिता का आयोजन किया तो दीवान मूलराज चोपड़ा ने भाला चलाने, तीर चलाने तथा अन्य प्रतियोगिताओं में अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया। उसी समय उन्हें महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी फौज में शामिल कर लिया।
तब वे मात्र 19 वर्ष के जवान गबरू थे। बाद में वजीराबाद से आए फौज के सेनापति हरिसिंह नलवा से गहरी दोस्ती हो गई और महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी फौज में नम्बर दो सेनापति की पदवी प्रदान की। हरिसिंह नलवा के नेतृत्व में दीवान मूलराज चोपड़ा और उनकी फौज ने महाराजा रणजीत सिंह के लिए कश्मीर फतह किया और बाद में अफगानिस्तान पर चढ़ाई करके उसे भी फतह करलिया।
महाराजा रणजीत सिंह इतने खुश हुए कि उन्हें ‘दीवान साहेब’ का खिताब दिया और उसके बाद उन्हें अपना प्रधानमंत्री भी बना लिया। इस खिताब के बाद ‘दिवान मूलराज चोपड़ा’ इस नाम से विख्यात हुए। लालाजी के दादाजी को अपने पिता से ‘दीवान साहेब’ का खिताब विरासत में हासिल हुआ और वे भी दीवान मूलराज चोपड़ा के नाम से विख्यात हुए। युद्ध के क्षेत्र में जिस वीर महाराजा रणजीत सिंह की तलवार का लोहा मानते हुए इतिहास ने उन्हें ‘शेरे-पंजाब’ की संज्ञा दी, वह वीर अन्दर से कितनी करुणा से ओतप्रोत था, उसे किस लेखनी ने चित्रित किया! निःस्पृह भाव से एक कर्मयोगी की भूमिका का निर्वाह करते दीवान मूलराज चोपड़ा को महाराजा ने लायलपुर (अब पश्चिमी पाकिस्तान) में शाही जमीन का एक टुकड़ा भी प्रदान किया, जिसमें एक अर्द्धनिर्मित हवेली भी थी, उसे महाराजा रणजीत सिंह द्वारा अविलम्ब पूर्ण करने का हुक्म दिया गया।
यह इमारत कालांतर में ‘दीवानां दी हवेली’ के नाम से विख्यात हुई। इसी के साथ ही ‘दीवानां दी हवेली’ के दीवान साहब को एक और खिताब महाराजा रणजीत सिंह की तरफ से प्राप्त हुआ और वह ख़िताब था-‘छोटियां मोहरां वाले।’ यहां इस बात का विस्तार थोड़ा सा उचित होगा। मुहर हम बोलचाल की भाषा में ‘सील’ को कहते हैं, जो राजसत्ता के प्रतीक की प्रतिमूर्ति मानी जाती है। ‘वड्डियां मोहरां वाले’ तो स्वयं महाराजाधिराज थे, उनके द्वारा दीवान साहब को यह शक्ति प्रदान की गई कि काेई भी व्यक्ति चिनाब नदी को उस वक्त तक पार नहीं कर सकता जब तक उनके द्वारा हस्ताक्षरित पारपत्र पर उनकी मुहर अंकित न हो। यह तथ्य इस बात को साबित करता है कि दीवान मूलराज चोपड़ा का क्या मुकाम और मुल्तान महाराजा रणजीत सिंह जी की नजरों में था।
यह सभी तथ्य Google में Wikipedia पर उपलब्ध हैं। यहां यह बात कहनी भी मैं प्रासंगिक ही समझता हूं कि गुजरांवाला की धरती में कोई न कोई सिफत अवश्य उस परमात्मा ने बख्शी थी कि यहां मेरे पितामह के अतिरिक्त भी कुछ ऐसी विभूतियों ने जन्म लिया, जिनका नाम स्वर्णाक्षरों में इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। इनमें भीमसेन सच्चर-भारतीय पंजाब के प्रथम मुख्यमंत्री, महाशय कृष्ण-अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार, श्री सीताराम दीवान, कामरेड रामगाेपाल, मौलाना जफर अली, कारमेड अब्दुल करीम, मलिक निरंजन दास आदि गुजरांवाला और वजीराबाद के हैं। सचमुच किसी शायर ने कितना ठीक फरमाया है-
‘‘न राजा रहेगा, न रानी रहेगी, यह दुनिया है फानी और फानी रहेगी,
जब न किसी की जिन्दगानी रहेगी, तो माटी सभी की कहानी कहेगी।’’