हम बात कर रहे थे हमारे दादा लाला जगत नारायण के पिता दीवान लक्ष्मी दास जी की जो जरा कड़क मिजाज के व्यक्ति थे। जैसा व्यक्तित्व था, उससे मिलती-जुलती मूंछें। लोगों ने कहा, आप पुलिस वर्दी में बहुत जंचेंगे। पैसे की उनको कोई कमी नहीं थी। मौज में आकर पुलिस विभाग में भर्ती हो गए थे। बाद में ‘लायलपुर’, जिसका नाम आजकल फैसलाबाद है, के अंग्रेजों के राज में थानेदार बन गए। परिवार पहले वजीराबाद की हवेली से लायलपुर आया फिर लाहौर में लालाजी बाद में ‘शिफ्ट’ कर गए।
उस समय ब्रिटिश पुलिस में किसी भी शहर का थानेदार बनना एक बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। पूज्य दादाजी बताते थे कि ऊंची-लम्बी काठी और लम्बी-लम्बी कड़क मूंछें (उनकी एक फोटो आज भी हमारे जालन्धर के घर में लगी है) जब सफेद घोड़े पर चलते थे तो पूरा शहर दहल जाता था। ये बातें पूज्य पितामह से ही हम सुना करते थे। एक दिन किसी बात पर तैश में आकर एक अंग्रेज अफसर से झड़प कर ली। वह घोड़े पर बैठे अपनी मस्ती में जा रहे थे, सामने से कोई अंग्रेज अफसर भी आ रहा था। वह भी कोई बड़ा अफसर था, जिन्हें दीवान लक्ष्मीदास जी पहचानते नहीं थे। अंग्रेज अफसर को दुःख हुआ कि “ओह! काले आदमी ने सलाम नहीं किया।” इन्हें बुलाया गया।
जब उन्होंने अंग्रेज के तेवर देखे तो इनका पारा भी सातवें आसमान पर चढ़ गया। घोड़े से उतरे और लात मार कर उसे भगा दिया। टोप और थानेदारी के तगमे निकाल फैंके और बोले-“ओये अंग्रेज के पुत्तर! मैं बादशाह हूं, गुलाम नहीं। थानेदारी तो मैं मौज में आकर कर रहा था। आगे से सम्भल कर रहना और बादशाह को सलाम करना।” इतना कहकर चलते बने, नौकरी को लात मार दी। नियति ने लेकिन मेरे परदादा जी को अपने अनुशासन में ढालने का पूर्ण प्रबंध करके रखा था। उनका विवाह ऐसी महिला से हुआ जिनकी सारी पृष्ठभूमि ‘आर्य समाज’ के संस्कारों की थी और उनका मायका आर्यसमाजी परिवार कादियां से संबंध रखता था।
हमारी परदादी हमारे परदादा श्री लक्ष्मी दास की दूसरी पत्नी थी। उनकी पहली पत्नी का सम्बन्ध सिख परिवार से था। एक दुर्घटना में उनकी पहली पत्नी की मृत्यु हो गई। तब दूसरी शादी हमारी परदादी से की गई, जो उम्र में हमारे परदादा जी से बहुत छोटी थी। मेरी परदादी 105 वर्ष की आयु में स्वर्ग को प्राप्त हुईं। मैं तब 4 या 5 वर्ष का था। मेरी परदादी मेरे से बहुत प्यार करती थी क्योंकि एक लम्बे अर्से के बाद उन्होंने अपने पड़पोते का मुंह देखा था। वो कहा करती थी कि घर में लड़कियों की लाईन लगी थी। एक अर्से के बाद अश्विनी मेरे लड़के पड़पोत्र ने घर में जन्म लिया। मुझे आज भी याद है उनके कमरे में एक जाली वाला डिब्बा था जिसमें वह अपने फल रखती थी।
मुझे आज भी याद है वो मुझे बुलाकर चीकू और संतरे खिलाया करती थीं। यह दो व्यिक्तत्वों का अद्भुत संगम था। लालाजी के पिता और मेरे परदादा दीवान लक्ष्मीदास जी के पिता और दादा दीवान चंद चोपड़ा सिख धर्म पर आस्था रखते थे, अतः इन पर सिख संस्कारों का भी असर था और हमारी परदादी लालदेवी तो आर्य समाजी थीं ही। प्रखर व्यक्तित्व, वेदों पर आस्था, हवनादि पर निष्ठा। जैसे मुझे बताया गया कि बाद में लाला जगत नारायणजी तो लाहौर चले गए तो मेरे परदादा और परदादी ने उनकी दो बड़ी संतानों यानि मेरी सबसे बड़ी बुआ स्वर्गीय संतोष जी और पिताजी को अपने पास लायलपुर रख लिया।
मेरे पिताजी तब बहुत छोटे थे। उन्होंने मुझे बताया कि उनके दादा लक्ष्मीदास जी अपने भाइयों के साथ शाम को ‘बाटियों’ में शराब पीते थे। विशुद्ध मांसाहारी थे और दिन में दो बार सुबह और शाम हुक्के का सेवन करते थे। मेरे पिताजी याद करते थे कि उनकी ‘ड्यूटी’ दादा जी के हुक्के की चिलम में कोयले आैर तम्बाकू “फिट” करने की होती थी। उनके अनुसार कई बार उनसे ‘चिलम’ बनाने में गलती हो जाती थी तो क्रोध में दादाजी पिताजी को बहुत पीटा करते थे। जब हमारी दादी उन पर चिल्लाती थी तो सुबह की गलती के एवज में शाम को मेरे पिताजी को उनके दादा गर्म दूध में जलेबी डाल कर खिलाते थे और बहुत प्यार करते थे। इस पर मेरी परदादी कहा करती थी- ‘रमेश तू तो बस ‘दूध-जलेबी’ से खुश हो जाता है, जो मार तुझे पड़ती है तेरे दादाजी उसे भुला देते हैं। क्या फायदा इस जलेबी-दूध खाने का!’
फिर एक दिन लायलपुर में एक अजीब घटना घटित हुई। उस शाम एक बहुत बड़े समाज सुधारक आर्य समाज के स्वामी जी का ठीक लायलपुर के घड़ी चौक पर भाषण था। लायलपुर की यह खास बात है कि घड़ी चौक शहर के बीचोंबीच है और वहां से सभी दिशाओं की तरफ नौ सड़कें निकलती हैं जहां मुख्य बाजार और रहने के मकान स्थित थे। लालाजी के पूज्य पिताजी भी स्वामी जी की शोहरत सुनकर उनका भाषण सुनने जा पहुंचे। स्वामी जी ने जहां ब्रिटिश शासकों से भारत की स्वाधीनता की बातें कहीं वहीं उन्होंने शराब के बहिष्कार और शाकाहारी होने के लिए भी जनता को प्रोत्साहित किया। अचानक लालाजी के पिता भीड़ में से उठे और महात्मा के नजदीक आकर जोर-जोर से बोले ‘मैं दीवान लक्ष्मीदास यह कसम खाता हूं कि आज से मैं न तो शराब पीऊंगा और न ही मांसाहारी भोजन ग्रहण करूंगा’। इसके बाद पूरी उम्र दीवान लक्ष्मीदास जी ने शराब और मांस को हाथ नहीं लगाया।
लक्ष्मीदास जी कुछ समय के उपरांत विशुद्ध शाकाहारी हो गए। इसी कुल में लालाजी का जन्म 31 मई, 1899 को हुआ। सारे परिवार में खुशी की लहर दौड़ आई। माता लाल देवी ने यह घोषणा कर दी-‘मेरा पुत्र शेरों के सदृश है। शेरनी का एक ही पुत्र सैंकड़ों पर भारी पड़ता है। यह नरसिंह है, मुझे और किसी संतान की आवश्यकता नहीं।’ यह था उस हुतात्मा का जन्म और उनकी मां का उद्घोष। सारी विरासत तो गुजरांवाला और वजीराबाद ही छोड़ आए थे। एक बार उस ओर मुड़ के ताका तक नहीं और यह निश्चय किया कि किसी अंग्रेज की दासता को स्वीकार नहीं करना है। मेहनत-मशक्कत भी कर लेंगे। थानेदार की नौकरी छोड़ने के उपरान्त उन्होंने लायलपुर में प्रख्यात हिन्दू एडवोकेट बोधराज वोहरा के साथ ‘ला क्लर्क’ का कार्य शुरू किया। उस जमाने में उन्हें ‘प्लीडर्स क्लर्क’ भी कहा जाता था। लालाजी ने नर्सरी से लेकर मैट्रिकुलेशन तक की शिक्षा यहीं लायलपुर में ही प्राप्त की और वह दो खालसा स्कूलों में ही वहां पढ़ते रहे।