लालाजी ने कभी भी उसूलों से समझौता नहीं किया। उनकी शादी की ही बात ले लें। इतनी साधारण रीति से शादी की कि लोग अवाक् रह गए। कोई हल्ला-हंगामा नहीं। दहेज की तो बात ही करनी व्यर्थ है। वह मुहूर्त को भी नहीं मानते थे। रात्रि को विवाह नहीं किया, दिन के उजाले को ही उचित समझा। मेरे पिताजी, मेरी और मेरे पुत्र की शादी रात्रि को नहीं दिन में ही आर्य समाज मंदिर में हुई। हां, मेरे चाचा की शादी पर वे घोड़ी भी चढ़े और रात्रि के समय सभी रस्में पूरी कीं। अपनी-अपनी सोच है? यही नहीं स्वामी दयानंद ने भी कहा था कि शादियां सादी हों, लड़कियों की तीन कपड़ों में ही रवानगी हो और शादी पर कम से कम 11 या 15 बाराती होने चाहिएं।
लालाजी स्वामी जी के इस कथन के समर्थक थे। लालाजी की माता की बड़ी इच्छा थी कि काश! उनके यहां कोई पुत्री होती। शायद भगवान को यह मंजूर नहीं था। उन्होंने अपने पुत्र से कहा-“बेटा! मुझे लगता है, मेरी पुत्री की इच्छा शायद तुम्हारे माध्यम से ही पूर्ण होगी। तुम्हें अगर पुत्री हुई तो वह मैं तुमसे ले लूंगी।” लगता है इसमें उनका आशीर्वाद ही छिपा था। पहली पुत्री ही हुई। लालाजी की मां को इस खबर से इतनी खुशी हुई कि उन्हें लगा, शेष आयु वह बड़े संतोष से गुजारेंगी। बेटी का नाम भी संतोष रखा गया। वह अपनी दादी की ही मानो पुत्री हो गईं।
उनकी जन्म तिथि 5 सितम्बर, 1924 थी। मेरे पिता रमेश चन्द्र जी उनके बाद पैदा हुए। मेरे पिता और बुआजी ने 8वीं क्लास तक की शिक्षा लायलपुर में ही ग्रहण की। कालांतर में लालाजी को 8 संतानें और हुईं। स्वर्ण जी, विजय जी, संयोगिता जी, सुदर्शन जी, स्वराज जी, स्नेह जी और शुभलता जी। आज लालाजी की सबसे बड़ी सुपुत्री संतोष जी स्वर्ग सिधार चुकी हैं तथा पूज्य पिता रमेश जी को मई, 1984 को आतंकवादियों ने शहीद कर दिया।
1926 में लालाजी भाई परमानंद जी की अखबार ‘आकाशवाणी’ के सर्वेसर्वा हो गए। राष्ट्रवादी लेखों ने नई चेतना का बिगुल बजा दिया। लोग उनके लेखों के दीवाने हो गए। 1928 का वर्ष लालाजी के लिए बड़ा दुःखद था। जिस व्यक्ति को वह भगवान की तरह पूजते थे, वह चल बसे। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि जब लाला लाजपतराय पर साईमन कमिशन के विरुद्ध जुलूस निकालने पर अंग्रेजों ने लाठियां बरसाईं तो भगत सिंह, सुखदेव, जगत नारायण, राजगुरु और चन्द्रशेखर आजाद समेत सभी क्रांतिकारी लाला लाजपत राय से लिपट गए।
अंग्रेजों ने इन सभी क्रांतिकारियों के शरीर पर लाठियां बरसा कर इन्हें अलग किया और फिर लाला लाजपतराय के सिर पर लाठियां चलाईं। लालाजी स्वर्ग सिधार गए। लेकिन अस्पताल में उनके आखिरी बोल थे ‘मेरे शरीर पर एक-एक लाठी अंग्रेजों के लिए आत्मघाती साबित होगी।’ उसके बाद लाला लाजपत राय बोले “मैं अपना “लाला” का खिताब ‘जगत नारायण’ को देता हूं। आज से जगत नारायण ‘लाला जगत नारायण’ के नाम से जाना जाएगा।
साथ ही मैं पंजाब प्रदेश कांग्रेस के प्रधान पद की जिम्मेदारी भी लाला जगत नारायण को देता हूं। बाद में महात्मा गांधी, पं. नेहरू और पटेल के निर्देश पर लाला जगत नारायण को पंजाब का अध्यक्ष बनाया गया।” मेरी मुराद लाला लाजपत राय से ही है। लालाजी को बड़ा सदमा लगा। रावी के किनारे लाला लाजपत राय जी की काया को अग्नि में समर्पित किया गया। इतना लम्बा जलूस था कि कोई ठिकाना न था।
आज एक बात यहां सुधि पाठकों के समक्ष रखते मुझे बड़ा संतोष हो रहा है कि लाला लाजपत राय की पावन स्मृति में फंड इकट्ठा करके एक विशेष कोष की स्थापना की गई और अखबार निकालने का निर्णय लिया गया। अखबार का नाम रखा गया-‘पंजाब केसरी।’ इसके प्रथम संस्थापक हुए-श्री पुरुषोत्तम दास टंडन। आज जो अखबार आपके समक्ष है, उसकी पृष्ठभूमि क्या है और उसके प्रेरणास्त्रोत कौन थे, आप को जानकर बड़ा संतोष हुआ होगा।
मैंने पूर्व में भी लिखा था कि लालाजी महात्मा गांधी के अनुयायी थे परंतु भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव के प्रति उन्हें बड़ा प्यार था। वह अक्सर उनके कार्यक्रमों में भी जाते थे। कुछ लोग उनसे पूछते, “लालाजी आप कौन से मार्ग पर विश्वास करते हैं?” लालाजी कहते-सत्य ही मेरा मार्ग है और राष्ट्रभक्ति ही मेरा धर्म है। क्रांतिकारियों ने नौजवान भारत सभा की स्थापना कर ली थी। लालाजी को कई बार लगता था और अक्सर वह इस बात का उल्लेख भी करते थे कि इन युवाओं का अपना कोई स्वार्थ नहीं है, यह भी इस राष्ट्र को दासता से मुक्त ही कराना चाहते हैं। कोई कारण नहीं इनका विरोध हो।
कई बार उन्होंने क्रांतिकारियों को अपनी प्रैस में छिपने की जगह दी। लालाजी की ही जुबानी- “ये युवा क्रांतिकारी मेरे और मेरे परिवार के बड़े निकट थे। ये हमारी प्रैस में अक्सर बैठते थे। प्रैस जिस जगह थी वह तीन तरफ से खुली जगह थी और भवन में निकलने के भी 5-6 रास्ते थे। पुलिस या सी.आई.डी. के लोग जब किसी क्रांतिकारी को ढूंढने आते वह चकमा देकर किसी गेट से निकल जाते थे।”
यहां एक रोचक घटना का जिक्र किए बिना रहा नहीं जाएगा। क्रांतिकार चंद्रशेखर आजाद जी के साथी थे सुखदेव राज, वे भी उनके साथ अक्सर लाहौर के हमारे घर पर आया करते थे। हमारी दादी की छोटी बहन भी छुट्टियों में हाेशियारपुर से लाहौर अपनी बड़ी बहन के पास आई हुई थी। एक दिन क्रांतिकारियों के लिए प्रैस में चाय देने के लिए उन्हें भेजा गया। जवान थी और सुन्दर भी थी। महाशय सुखदेव राज भी ‘यंग’ थे।
उन्हें हमारी दादी की बहन और पिताजी की मासी बहुत पसंद आई। एक दिन अकेले में लालाजी को मिलने आए और प्रार्थना की कि अपनी साली से मेरी शादी करवा दो। लालाजी भी मान गए। क्रांतिकारियों की बारात सजी और एक सादा समारोह में लालाजी ने सुखदेव राज से अपनी साली की शादी करवा दी। लालाजी ने कन्यादान किया। कालान्तर में सुखदेव राज से पिताजी की मासी को पांच बच्चे हुए। एक तो सबसे बड़े बेटे बलदेव राज मुम्बई के ‘टाटा न्यूक्लियर सैंटर’ में बहुत बड़े साइंसदान थे। सबको याद है इलाहाबाद का ‘एलिफ्रैड पार्क’ जहां चन्द्रशेखर आजाद को अंग्रेजों ने घेर लिया था। उस समय चन्द्रशेखर आजाद के साथ केवल सुखदेव राज ही थे।
दोनों के हाथों में पिस्टल थी। अंग्रेजों की गोलियों का जवाब यह दोनों क्रांतिकारी अपनी पिस्टल की गोलियों से दे रहे थे। सुखदेव राज जी की गोलियां खत्म होने पर चन्द्रशेखर आजाद ने उन्हें कहा कि वो वहां से भाग जाएं लेकिन सुखदेव राज आजाद को अकेले छोड़ना नहीं चाहते थे लेकिन आजाद नहीं माने और सुखदेव राज को भगा कर ही चैन लिया। बाद में वहीं इलाहाबाद के इस ‘एलिफ्रैड पार्क’ में अंग्रेजों की गोलियां खा कर चन्द्रशेखर आजाद ने शहादत को प्राप्त किया। कहां गए वो लोग, कहां से लाएं ऐसे लोग!
सुखदेव राज जी भाग कर भारत-पाक सीमा पर जंगलों में जा छिपे। फिर 1966 में प्रकट हुए एक साधू के वेष में और मुझे याद है हमारे जालन्धर के घर में एक कमरे में उनकी गोद में बैठ कर मुझे भारत के महान सपूतों और क्रांतिकारियों शहीद भगत सिंह, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, कालीचरण, दुर्गा भाभी की कहानियां और उनकी क्रांतिकारी गाथाओं को सुनने में बड़ा आनंद आता था। क्या लालाजी की पत्नी का परिवार कम क्रांतिकारी था? मैंने तो जब से होश संभाला है लालाजी से लेकर अब तक चारों ओर क्रांति-क्रांति को ही देखा है।
सुखदेव राज जी के इतना अरसा जंगलों में बिताने और बाद में साधू बन जाने के उपरान्त हमारे पिताजी की मासी ने राजधानी दिल्ली में एक सरकारी स्कूल में अध्यापक की नौकरी करके अपने बच्चों को पाल-पोस कर अकेले ही बड़ा किया।
मेरे पूज्य पिताजी कहा करते थे- “लालाजी लाहौर में एक प्रिंटिंग प्रैस चलाते थे। इससे हमारे परिवार का निर्वाह भी होता था। यह मोहन लाल रोड पर स्थित थी और इसका नाम बिरजानंद प्रैस था। मैं अपने पाकिस्तान के लाहौर दौरे पर जब गया तो अपने पूर्वजों के पुश्तैनी घर देखने के लिए वहां गया। पाकिस्तान बनने के बाद मोहन लाल रोड से बदल कर उर्दू सड़क नया नाम रखा गया है। मैंने अपने घर तब के बिरजानंद प्रैस के अन्दर और घर पर दो घंटे गुजारे। सचमुच एक अद्भुत और सुखद अनुभव था।
हम सब इसी की छत पर रहा करते थे। हमारा भवन राजनीतिक गतिविधियों का गढ़ था, यह बात किसी से छिपी न थी। लाहौर के बड़े से छोटे नेता और कार्यकर्ता तथा सम्पूर्ण पंजाब के लोग जब भी लाहौर आते, वह यहां आना कभी न भूलते। लालाजी का एक नियम था। जब भी कोई आता उसे बिना भोजन के नहीं जाने देते थे।” जब गांधी-इर्विन पैक्ट हुआ तो कांग्रेस में ही मतैक्य नहीं था। इस पैक्ट में क्रांतिकारियों का दर्जा आतंकवादियों से अधिक नहीं था। जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी हुई लालाजी की आत्मा कराह उठी।
उन्होंने वह स्थान दूसरे दिन खोजा जहां उनके पार्थिव शरीर को जल्दबाजी में जलाया गया था और वहां से पवित्र भस्म लाकर उन्होंने लाहौर डिस्ट्रिक्ट कांग्रेस कमेटी के कार्यालय में रखी, जहां वह इस कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने भगत सिंह की फांसी पर उद्गार प्रकट किए- “भारत की आजादी को मुहर लग गई, इसे कोई रोक नहीं सकता।” 1929 से लेकर 1932 तक न जाने कितनी बार लालाजी गिरफ्तार हुए। महात्मा गांधी के हर कार्यक्रम को लाहौर में मूर्तरूप देते रहे।
ब्रिटिश राजसत्ता ने हर बार उन्हें गिरफ्तार किया। वह जब भी वापस आते तो बड़े ओजस्वी लेख लिखते आैर फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता। सन् 1933 में ‘बिरजानंद प्रैस’ को ही जब्त कर लिया गया। 1940 में पूरे पंजाब से ‘सेवाग्राम’ जाकर बापू का मार्गदर्शन प्राप्त करने की जो ‘लिस्ट’ बन रही थी, लालाजी का नाम उसमें ऊपर था। लालाजी ने महात्मा गांधी के साथ तीन हफ्ते बिताए। 1941 से 1947 तक का सारा समय, करीब-करीब जेल में ही उनका बीता। आजादी के पूर्व, भारत की आजादी के वास्ते 16 वर्ष तक जेल में काटने का उनका रिकार्ड ही था।