शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने एक अकेले राज्यसभा चुनाव के स्वतंत्र उम्मीदवार के विरुद्ध ऐसा किया हो लेकिन पंडित जी खासतौर पर चंडीगढ़ आए और उन्होंने कांगेेस विधायक दल और कांग्रेस सरकार के मंत्रियों के समक्ष लालाजी के विरुद्ध जो भाषण दिया वो पेश है : पंडित जी बोले ‘कुछ तंग गलियों में रहने वाले तंग दिल और सोच के लोग राज्यसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। मैंने पंजाब को दुनिया का बेहतरीन शहर फ्रांस के नक्शे में फ्रांसिसी आर्किटेक्ट ‘कार्बूजे’ से चंडीगढ़ बनवा कर दिया है लेकिन ये लोग इसका विरोध कर रहे हैं।’ फिर पंडित जी ने लालाजी पर सीधा वार किया और बोले ‘अगर यह चुनाव लाला जगत नारायण जीत जाता है तो समझो मेरी हार हो गई और अगर वो हार जाता है तो समझो मेरी जीत हो गई। जगत नारायण की हार में मेरी जीत और उसकी जीत में मेरी हार है।’ अन्त में लालाजी यह चुनाव जीत गए और पं. नेहरू तथा प्रताप सिंह कैरों की शिकस्त हो गई।
जब पहले दिन लालाजी राज्यसभा पहुंचे तो उन्हें देखते ही पंडित नेहरू तपाक से उठकर उन्हें मिलने आए और कहाः ‘लालाजी, हमने तो आपको हराने के लिए हर कोशिश की, परन्तु हम तुम्हारे समक्ष हार गए और तुम जीत गए।’ लालाजी के मुताबिक, पंडित जी खुश थे और उन्होंने लालाजी को गले लगा लिया। पंडित जी के विरोध में हम जो भी लिखें लेकिन वह बेहद भावुक और महान लोकतंत्र में विश्वास करने वाले व्यक्ति थे। लालाजी के विरोध के बावजूद इन दोनों में स्वतंत्रता संग्राम में इकट्ठे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की वजह से अभी तक बेहद प्यार था और दोनों एक-दूसरे की इज्जत करते थे। भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री आई.के. गुजराल के मुताबिकः ‘मैं लालाजी की बड़ी कद्र करता था। मैंने यथासंभव हर बार प्रयत्न किया कि जब-जब वह बोले, मैं राज्यसभा में उनके भाषण सुनूं। इसके दो कारण थे, एक तो मैं उनकी बड़ी कद्र करता था और दूसरा कारण यह था कि वह राष्ट्र के एक प्रखर पत्रकार थे। उनकी हर बात बड़ी सारगर्भित होती थी।’
उसी वर्ष यानी 1964 ई. की 27 मई को नेहरू जी चल बसे। लालाजी को इस बात का बड़ा सदमा पहुंचा। वह 1970 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। 1975 की 15 जून को भारत में एमरजैंसी लग गई। श्रीमती इंदिरा गांधी और लालाजी के विचारों में बड़ा अन्तर था। श्री वी.वी. गिरि को जिताने में वह लालाजी की भूमिका से अपरिचित नहीं थीं। वी.वी. गिरि राष्ट्रपति पद पर लालाजी के प्रयासों और सहायता से कैसे पहुंचे, इसकी एक अलग से लम्बी कहानी है। जब देश में एमरजैंसी लगी तो लालाजी और हिन्द समाचार पत्र समूह पर मानो कहर टूट पड़ा। लालाजी गिरफ्तार कर लिए गए। एमरजैंसी 19 महीने रही। इस दौरान लालाजी जालन्धर, फिरोजपुर, नाभा, संगरूर और पटियाला की जेलों में रहे। जेल में उनकी हालत ठीक न रही। 76 वर्ष की आयु थी। पेशाब भी बन्द हो गया, लालाजी Heart के एंजाईना रोग से पीड़ित थे। फिरोजपुर जेल में उन्हें Mild Heart Attack हुआ और ज्ञानी जी की पंजाब सरकार ने फौरन उन्हें पटियाला के राजेन्द्र अस्पताल में दाखिल करा दिया जिसके फलस्वरूप दो आप्रेशन करने पड़े।
डाक्टरों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री को लिखाः ‘ज्यादा दिन और जेल में रहना इनकी जान के लिए खतरा है।’ स्वर्गीय जैल सिंह तब मुख्यमंत्री थे। उन्होंने जवाब दियाः ‘लालाजी को छोड़ा जा सकता है अगर वह लिखित रूप से यह वचन देंगे कि वह किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेंगे।’ लालाजी ने ज्ञानी जी को लिखाः ‘वह ऐसी स्थिति में मर जाना पसंद करेंगे, पर झुकेंगे नहीं।’ कालान्तर में उन्हें दोबारा पटियाला के राजेन्द्र अस्पताल में दिल का दौरा पड़ा। यह 1977 का साल था। सरकार घबरा गई लेकिन लालाजी नहीं झुके।
भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री चन्द्रशेखर जी एमरजैंसी में पटियाला जेल के संस्मरण मुझे बता रहे थे। 1977 में चन्द्रशेखर जी पटियाला जेल में बन्द थे। लालाजी जब फिरोजपुर जेल में थे तो प्रकाश सिंह बादल, स्व. श्री गुरचरण सिंह टोहरा और पंजाब की अकाली और जनसंघी राजनीति से संबंधित सभी दिग्गज व्यक्ति लालाजी के साथ यहीं बंद थे। बादल जी उन दिनों को याद करके बताते हैं कि हर शाम जेल में लालाजी के साथ अकाली और जनसंघ के नेताओं की महफिल जमती थी। हमें लगता था कि (बीबी) इंदिरा गांधी अब हमें नहीं छोड़ेगी लेकिन लालाजी कहा करते थे ‘जब अत्याचार अपनी सीमा लांघ जाए तो उसका अन्त निश्चित है। भारत का लोकतंत्र महान है। मैंने जीवन में बहुत कुछ देखा है। एक दिन बीबी एमरजैंसी हटाएगी। उसका छोटा बेटा संजय उसके विनाश का कारण बनेगा।’
अभी पांच वर्ष पहले देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर जी ने मुझे बताया था कि एक साल छह माह के एमरजैंसी काल की गिरफ्तारी के पश्चात अचानक उन्हें रोजाना जेल में अखबारें मिलने लगीं। चंद्रशेखर जी ने पता करवाया तो उन्हें बताया गया कि आजकल लालाजी का पटियाला जेल में ‘ट्रांसफर’ हुआ है और लालाजी उन्हें हर रोज अखबारें भिजवाते हैं। सचमुच चंद्रशेखर जी के उद्गारों से मेरी आंखें नम हो गईं। धीरे-धीरे लालाजी की स्थिति में सुधार आया। वह घूमने-फिरने लगे। सम्पादकीय कार्य को स्वयं देखते थे।
जब 1977 में देश में लोकसभा चुनाव हुए तो सभी अकाली और जनसंघ के नेता लालाजी के पास इकट्ठे होकर उन्हें चुनाव लड़ने के लिए कहने लगे। उन्हें उनके पुराने क्षेत्र चंडीगढ़ से ही लड़ने को कहा गया। मोरारजी देसाई, चौ. चरण सिंह और अटल जी के लालाजी को फोन आए कि आप चंडीगढ़ से चुनाव लड़िए। अगर लालाजी यह चुनाव लड़ते तो केन्द्र सरकार में उच्च पद पर कैबिनेट मंत्री के रूप में नवाजे जाते, लेकिन राजनीति से तंग आ चुके लालाजी ने चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया।
मैंने उनसे पूछा ‘बाऊजी आपने जनता पार्टी की टिकट पर चुनाव क्यों नहीं लड़ा।’ लालाजी बोले- बेटा ये भांति-भांति के लोग, जिनकी विचारधारा अलग-अलग है, मैदान में उतरे हैं। देखना इनका कुनबा जल्दी टूटेगा और मोरारजी देसाई तथा जनता पार्टी की यह सरकार बिखर जाएगी। आखिर ऐसा ही हुआ। दो वर्षों के अन्दर पहले जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार चौ. चरण सिंह द्वारा स्व. इंदिरा गांधी के राजनीतिक षड्यंत्रों के तहत गिरा दी गई। बाद में चौ. चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर इंदिरा ने चौ. चरण सिंह की पीठ में छुरा घोंपा और जनता पार्टी की सरकार दोबारा गिरी। बाद में आम लोकसभा चुनाव में स्व. इंदिरा गांधी की कांग्रेस (ई) को जनमत का समर्थन मिला और इंदिराजी प्रधानमंत्री पद पर वापिस आसीन हो गईं।
जब 1980 का दशक शुरू हुआ तो लालाजी की दूरदर्शी नजर ने पहले से ही पाकिस्तान की साजिशों के बारे में लिखना शुरू कर दिया। पाकिस्तानी साजिशों से जब आतंकवाद शुरू हुआ तो लालाजी बड़े चिंतित हो गए। पाकिस्तान को उनसे अच्छा कौन जानता था? इधर टोहरा-बादल ग्रुप ने एस.वाई.एल. नहर का पानी, पंजाब को ज्यादा अधिकार देने, ट्रेन का नाम गोल्डन टैंपल एक्सप्रैैस रखने आदि के सवाल पर मोर्चा लगाया। ऐसा लगा मानो यह पंजाब के सिखों की ही मांग है।
लालाजी ने सभी को समझाया, ‘आपकी मांगें जायज हैं। आप इन्हें सारे पंजाबियों की मांग बनाएं। अगर पंजाब को ज्यादा पानी मिलेगा तो न सिर्फ 52 प्रतिशत सिख ही इससे लाभान्वित होंगे बल्कि 48 प्रतिशत हिन्दू भी लाभान्वित होंगे। अगर पंजाब को अधिक अधिकार मिलेंगे तो इससे पंजाब में रहने वाले हिन्दू आैर सिख दोनों को फायदा होगा। सबसिडाइज्ड रेट पर कृषि ऋण मिलेगा तो सारे पंजाब का उद्धार होगा।’
एक तरफ सारे नेताओं ने उनकी हिन्दू-सिख एकता की अपील को समझा, तो दूसरी तरफ अलगाववादियों ने देखा कि लालाजी तो अकेले ही उनका सारा बना-बनाया खेल बिगाड़ देंगे। यानी पाकिस्तान और आतंकवादी पंजाब में हिन्दू और सिखों को आपस में भिड़ाना और लड़ाना चाहते थे, लेकिन लालाजी उनकी इस मंशा के आड़े आ गए, परिणाम ! 9 सितम्बर 1981 को लालाजी की हत्या कर दी गई। मेरे पितामह को पटियाला से वापस जालन्धर अपनी कार पर आते लुधियाना के निकट उग्रवादियों ने शहीद कर दिया। दो दिन पश्चात लालाजी के पार्थिव शरीर को हमने अग्नि को समर्पित किया।
मैंने बहुत प्रयत्न किया कि इस क्रमिक सम्पादकीय में मैं उनका जीवनवृत्त बांध सकूं। मैं कितना सफल हो पाया, इसका निर्णय पाठकों के हाथ में है। इस सम्पादकीय को लिखते, सारा समय मेरे जेहन में एक बरसात भरी काली तूफानी रात की तस्वीर घूमती रही, जिसमें बादलों की घनगरज और हवाओं का वेग न सह पाते सारी प्रकृति ही मानो दुबकी पड़ी हो और एक अकेला ‘दीया’ इन तमाम झंझावातों से टक्कर लेता जूझ रहा हो। लालाजी की कहानी तो ‘यह कहानी है दीये और तूफान की’। एक महाप्राण ने अपने महाप्रयाण से इसे साबित कर दियाः
हमने उन तुन्द हवाओं में जलाए हैं चिराग,
जिन हवाओं ने पलट दी है बिसातें अक्सर!