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It’s My Life (31)

इससे पहले कि मैं आगे बढूं, जब पूज्य दादा लाला जगत नारायणजी 1965 में संसद सदस्य बने तो उनका संबंध किसी भी राजनीतिक दल से नहीं था।

इससे पहले कि मैं आगे बढूं, जब पूज्य दादा लाला जगत नारायणजी 1965 में संसद सदस्य बने तो उनका संबंध किसी भी राजनीतिक दल से नहीं था। कांग्रेस पार्टी से तो उन्होंने 1956 में संबंध तोड़ लिया था। 1947 से 1952 की कांग्रेस और अब की कांग्रेस में बहुत फर्क पड़ चुका था। तब कांग्रेस पार्टी भारत की स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रही थी। महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और पं. नेहरू की कांग्रेस थी। अब उसका स्थान व्यक्तिवाद और परिवारवाद के भरोसे चल रही इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने ले लिया था। इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बन चुकी थीं। इस दमघोटू राजनीतिक परिदृश्य में लालाजी जैसे आजाद ख्यालात के व्यक्ति की न तो कोई जगह थी और न ही कोई भूमिका थी। लालाजी न तो इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत तौर पर विरोधी थे और न ही पं. नेहरू के विरोध में रहे। 
उन्होंने तो पंजाब से राज्यसभा का चुनाव इस वजह से जीता था कि वे पं. नेहरू को बता सकें कि आज भी उनका वजूद राजनीतिक तौर पर मौजूद है। साथ ही प्रताप सिंह कैरों को इस बात का अहसास करवाना चाहते थे कि अगर वो अपने आप को शक्तिशाली समझते हैं तो समझ लें कि कांग्रेस के विधायकों और मंत्रियों की वजह से ही लालाजी को विजय प्राप्त हुई है। मैं पहले भी ​लिख चुका हूं कि जब राज्यसभा की सदस्यता की शपथ के लिए लालाजी राज्यसभा में उठे तो प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने उन्हें गले लगा लिया। पंडित जी बोले ‘लालाजी आप को हराने की बहुत कोशिशें कीं लेकिन आप जीत गए और हम हार गए।’ लालाजी ने पंडित जी को नमस्कार किया और वापिस अपनी राज्यसभा की सीट पर आ बैठे।
लालाजी 1967 से 1971 तक राज्यसभा के छह वर्ष तक संसद सदस्य रहे। इस दौरान इंदिरा गांधी पर पंजाब के अकाली नेताओं का सिखीस्तान लेने का दबाव बढ़ने लगा। अकाली नेता मास्टर तारा सिंह, श्री प्रकाश सिंह बादल और श्री जी.एस. टोहरा यह समझते थे कि अगर सिखों का अलग राज्य नहीं होगा तो उन्हें कभी भी मुख्यमंत्री या राज करने का मौका नहीं मिलेगा। उधर दक्षिणी पंजाब के इलाके में चौ. देवीलाल की भी यही सोच थी कि अगर इस इलाके के जाटों को अलग राज्य मिल जाए तो उनका मुख्यमंत्री का दांव भी लग सकता है। पंजाब के उत्तरी पहाड़ी इलाके में श्री परमार और अन्य कांग्रेसी नेताओं की भी यही सोच थी। सभी के स्वार्थ राजसत्ता और मुख्यमंत्री बनने के सपनों से जुड़े थे।
मास्टर तारा सिंह ने तो अपने भाषणों में यहां तक साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने के प्रयास शुरू कर दिए जिससे सिखों और हिंदुओं में दोफाड़ हो जाए। मास्टर तारा सिंह अपने भाषणों में कहते थे कि ‘भारत के 1947 के विभाजन के समय मुसलमानों को तो पाकिस्तान मिला। हमने सिखीस्तान की मांग रखी थी। पं. नेहरू ने सिखों से वायदा किया था कि अभी तो आप हमारा साथ दो बाद में आपको सिखीस्तान दे दिया जाएगा लेकिन सिखों के साथ महात्मा गांधी और नेहरू-पटेल ने घोर ना-इंसाफी की है।’ इस तरह अकाली नेताओं द्वारा पंजाबी सूबे की मांग पंजाब के एक भाग में जोर पकड़ती जा रही थी। 
उधर चौ. देवीलाल और जाट नेता तथा श्री परमार और उनके समर्थकों ने भी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पर दबाव डालना शुरू कर दिया। नतीजा 1965 में इंदिरा जी ने पंजाब को तीन प्रदेशों में बांट दिया। इस तरह पंजाब, हरियाणा और हिमाचल यानि एक प्रदेश से तीन प्रदेशों का जन्म हुआ। इन प्रदेशों में चुनाव करवाए गए तो पंजाब में श्री प्रकाश सिंह बादल, हरियाणा में चौ. देवीलाल और हिमाचल में श्री परमार मुख्यमंत्री बन गए। लालाजी शुरू से ही पंजाब के बंटवारे के विरोधी थे। वह उन दिनों अपने सम्पादकीय और राज्यसभा के पटल पर भाषण देकर प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के इस फैसले का विरोध करते रहते थे। लालाजी का मत था कि पंजाब का इस तरह से बंटवारा नहीं होना चाहिए। इसका परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ेगा।
देश के कई राज्य भी टुकड़ों में बंटेंगे और ऐसा ही हुआ। लालाजी पंजाब के प्रति अत्यंत गंभीर थे। उनकी राय में अगर अकाली नेताओं की पंजाबी सूबे की मांग मान ली गई तो भ​विष्य में पंजाब के अंदर साम्प्रदायिक माहौल पैदा हो जाएगा और फिर इस इलाके के सिख और हिन्दुओं में आपसी तनाव भविष्य में भयानक रूप भी ले सकता है। ऐसा ही हुआ, पंजाबी सूबे से अकालियों ने आनंद साहिब मत पास किया जिसमें पंजाब को देश के संविधान के विपरीत भारत के अन्य प्रदेशों के मुकाबले ज्यादा ताकत और ज्यादा अख्तियार देने की बात थी। अमरीका के Federal Structure की तरह केन्द्र के पास केवल विदेश, संचार, सुरक्षा, मुद्रा, न्यायपालिका और लोकसभा तथा राज्यसभा जैसे विभाग ही सिमट जाएं और बाकी सभी अधिकार प्रदेश को दिए जाएं। अगर ऐसा होता तो केन्द्र और राज्यों के बीच सन्तुलन बिगड़ जाता। 
फिर देश के अन्य राज्य भी यही मांग रखते। इससे देश में पृथकतावादी सोच को सहायता मिलती। देश का संविधान जिसे बहुत सोच-समझ कर पूरी दुनिया के संविधानों से अच्छी बातें निकाल कर, बाबा साहिब अम्बेडकर और पं. नेहरू और पटेल ने बनाया था, आनंद साहिब मत से निरस्त कर दिया जाता। भारत देश खंडित हो जाता। साम्प्रदायिक भावनाओं को बढ़ावा मिलता और अन्ततः भारत माता सदा-सदा के लिए खत्म हो जाती। लालाजी का यही सोचना था और वे बार-बार इंदिरा गांधी की सरकार के विरोध में उसे सचेत करते हुए भारत देश के हित और भविष्य की दुहाई देते रहते थे लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा ने एक न सुनी और पंजाब को तीन प्रदेशों में बांट दिया जिसका खामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है।
पंडित नेहरू ने 1947 में कश्मीर के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण किया था और उनकी बेटी श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1965 में पंजाब का बंटवारा कर दिया। इंदिराजी, लालाजी, रमेश जी और हजारों-लाखों हिन्दुओं और सिखों की हत्याओं के बीज यहीं पर डाल दिए गए थे। 1981 में लालाजी की हत्या, फिर पंजाब में सैकड़ों हिन्दुओं की हत्यायें, 1984 मई में पिता रमेश जी की हत्या, फिर नवम्बर में इंदिरा जी की हत्या और फिर राजधानी दिल्ली और कानपुर समेत पूरे देश में सिखों के विरुद्ध भड़के दंगों में सैंकड़ों-हजारों सिखों की हत्या कर दी गई। पूरा देश साम्प्रदायिकता के घने काले बादलों से काला हो गया। उपरोक्त घृणित सभी दुर्घटनायें इस बात की गवाह हैं कि अगर पंजाब के बंटवारे को रोक दिया जाता तो ऐसा कभी नहीं होता।

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