सबसे पहले यह स्पष्ट होना बहुत जरूरी है कि किसान सिर्फ किसान होता है वह हिन्दू या मुसलमान नहीं होता और न जाट, गूर्जर या राजपूत होता है और न पंजाबी या बिहारी या मराठी, बंगाली या मद्रासी होता है। इसकी वजह यह है कि सभी किसानों की समस्याएं एक समान होती हैं। भारत की माटी का यह सपूत अपनी एक औलाद के हाथ में यदि हल पकड़ा कर धरती का सीना चीर कर फसल उगाने का प्रशिक्षण देता है तो दूसरी औलाद को फौज में भेजकर भारत माता की सुरक्षा करने में प्रशिक्षित कराता है। किसान का एक बेटा भारत को भीतर से मजबूत बनाता है तो दूसरा उसकी बाहर से होने वाले खतरों से सुरक्षा करता है। इसीलिए 'जय जवान-जय किसान' का नारा भारत के कण-कण में गूंजता रहता है। भारत आज भी कृषि प्रधान देश है क्योंकि देश की 60 प्रतिशत आबादी इस पर निर्भर करती है और अपनी रोजी-रोटी चलाती है। इसलिए भारत की हर सरकार का यह पहला धर्म होता है कि वह कृषि क्षेत्र को मजबूत बनाने के लिए ऐसे कदम उठाये जिससे देश की 60 प्रतिशत जनता की माली हालत सुधरे। इसकी हालत सुधरने पर ही देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और भारत के औद्योगिक क्षेत्र से लेकर बाजार चहकेंगे।
मगर हम देख रहे हैं कि आज पंजाब व कुछ अन्य राज्यों के किसान फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य कानूनी बनाने को लेकर सड़कों पर उतरे हुए हैं। पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की सभी सीमाएं कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए सील कर दी गई हैं। लोकतंत्र में आंदोलन करने का अधिकार सभी को है लेकिन जिस तरह से सड़कों पर जाम देखा गया और शम्भू बार्डर पर तनाव की आंच दिल्ली तक आ पहुंची, इससे लोगों को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। ट्रैफिक जाम के चलते लोग अपने घरों को देर रात तक लौटे। अगर किसानों को आंदोलन का हक है तो देश के नागरिकों को भारत में कहीं आने-जाने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। दूसरी तरफ किसानों को भी समझना चाहिए कि वे किसान ही लगें और कोई भी ऐसी कार्रवाई न करें जिससे उन्हें कुछ और समझने का भ्रम पैदा हो। किसानों की मांग है कि जिन कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन को सरकार ने पिछले दिनों भारत रत्न सम्मान दिया है उन्हीं की सिफारिशों के अनुसार एमएसपी को तय किया जाये और इसे कानून बना कर लागू किया जाये। ऐसा करने से सरकार पर किसी भी प्रकार का आर्थिक बोझ नहीं बढे़गा। जितना अनाज सरकार पहले खरीदती थी उतना ही वह आगे भी खरीदेगी मगर खुले बाजार में किसान की फसल तय एमएसपी से नीचे नहीं बिक सकेगी चाहे उसे कोई आढ़ती खरीदे या पूंजीपति या औद्योगिक घराना। इसमें दिक्कत कहां है? हां यह जरूर देखने वाली बात होगी कि कहीं खाद्य वस्तुओं के दामों में महंगाई न बढ़ जाये। सवाल यह भी है कि सरकार फसल उत्पादों को एमएसपी पर खरीद सकने में इतनी बड़ी धनराशि का प्रावधान कैसे करेगी।
सवाल यह है कि जब खाद्य को छोड़ कर अन्य सभी औद्योगिक व उत्पादित सामान के दाम बढ़ते हैं तो उसका असर किसान पर भी होता है क्योंकि अपनी फसल बेचने के बाद वह स्वयं एक उपभोक्ता के रूप में बाजार में खड़ा होता है। इसमें कृषि में उपयोग होने वाली वस्तु के दामों में भी वृद्धि होती है। इसके लिए समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने 68 के दशक में एक फार्मूला दिया था कि औद्योगिक सामान की कीमतों की वृद्धि को सीधे फसल के दामों से बांधा जाये जिससे महंगाई व किसान के बीच में लगातार सन्तुलन बना रहे। चौधरी चरण सिंह भी इस फार्मूले के हिमायती थे।
किसानों के आन्दोलन को लेकर अब पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय भी बीच में आ गये हैं। देखना होगा कि ये क्या तजवीज पेश करते हैं परन्तु दिल्ली महानगर को एकदम बाड़े में तब्दील करके इसमें काम करने वालों के लिए मुश्किल हालात बना कर हम गांवों व शहरों के बीच की खाई को बढ़ाने का अनायास ही प्रयास न कर बैठें। इस तरफ बहुत ही गंभीरता से सोचने की जरूरत है। गांव भी भारतीयों के हैं और शहर भी भारतीयों के हैं। गांवों से चलकर ही लोग दिल्ली जैसे महानगरों में काम करने के लिए आते हैं और इसे रोशन बनाते हैं। चौधरी चरण सिंह तो जीवनभर यही कहते रहे कि गांवों की कीमत पर शहरों का विकास करके हम भारत में असमानता को ही बढ़ावा देते हैं। मगर किसानों का भी कर्त्तव्य बनता है कि वह अपनी समस्याओं का हल बातचीत के जरिये ही ढूंढने का प्रयास करें और कोई ऐसी कार्रवाई न करें जो गांधी के अहिंसक सिद्धांतों के विरुद्ध हो। केन्द्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने स्पष्ट कहा है कि एमएसपी लागू करने का फैसला जल्दबाजी में नहीं लिया जा सकता। इसके लिए गहन चिंतन-मंथन की जरूरत है। केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा है कि सरकार के द्वार वार्ता के लिए खुले हैं। वहीं नित नई मांगें जोड़ने से समस्या का तुरन्त समाधान नहीं निकल सकता। इस प्रकार के संघर्ष को रोकने के लिए सरकार व किसान दोनों को ही आगे आना चाहिए और शान्तिपूर्ण ढंग से आन्दोलन चलाने की इजाजत मिलनी चाहिए। लोकतन्त्र में विरोधी आवाज को भी बराबर का सम्मान दिया जाता है। इसी सिद्धान्त पर लोकतन्त्र टिका होता है और इसी रास्ते से सर्वानुमति का सृजन भी किया जाता है। हमें इसी तरफ आगे बढ़ना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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