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जय जवान- जय किसान

सरकार और किसानों के बीच आज सातवें दौर की चली बातचीत का नतीजा सुखद रहा जिसमें किसानों की दो मांगों को सरकार ने स्वीकार कर लिया और शेष दो मांगों पर बातचीत करने के लिए अगले वर्ष की चार जनवरी को पुनः बैठक करने का प्रस्ताव रखा।

सरकार और किसानों के बीच आज सातवें दौर की चली बातचीत का नतीजा सुखद रहा जिसमें किसानों की दो मांगों को सरकार ने स्वीकार कर लिया और शेष दो मांगों पर बातचीत करने के लिए अगले वर्ष की चार जनवरी को पुनः बैठक करने का प्रस्ताव रखा। किसान आज सरकार से अपने चार सूत्री एजेंडे को लेकर ही बात कर रहे थे जिसमें से दो को सरकार ने मान लिया है। यह है नया प्रस्तावित बिजली विधेयक व पुराली जलाने पर किसानों पर भारी जुर्माना और फौजदारी मुकदमा चलाया जाना। अब पुराली जलाने के मामलों को गैर फौजदारी श्रेणी में रखा जायेगा तथा नये प्रस्तावित बिजली  विधेयक में राज्य सरकारों को छूट होगी कि वे रियायती दरों पर कृषि क्षेत्र को बिजली देती रहें। इनके अलावा किसानों के एजेंडे के दो सूत्र नये तीन कृषि कानूनों को रद्द करना व उपज के घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसानों का संवैधानिक अधिकार बनाये जाने के मुद्दे पर आगामी चार जनवरी को बातचीत होगी। अतः यह कहा जा सकता है कि यह वार्ता सार्थक रही है और किसानों की दो मांगें सरकार ने मान कर लचीला रुख दिखाया है। इससे उम्मीद बंधती है कि आगामी 4 जनवरी की बातचीत का परिणाम भी सुखद निकलेगा जिससे  किसानों का एक महीने से चले आ रहे आन्दोलन के वापस होने का मार्ग प्रशस्त होगा। बेशक यह कहा जा सकता है कि आन्दोलनकारी किसानों की जीत का आगाज ही है क्योंकि कृषि कानूनों को निरस्त करने व समर्थन मूल्य को कानूनी हक बनाने की उनकी मांग पर अभी कोई अन्तिम फैसला नहीं हुआ है, परन्तु यह लोकतन्त्र की प्रक्रिया है जिसमे संवाद से ही रास्ता निकल रहा है अतः इस प्रक्रिया को दोनों ही पक्ष खुले दिल से अपनाते हुए समस्या की तह तक भी पहुंच ही जायेंगे।
पूरे प्रकरण में हमें यह ध्यान रखना होगा कि कृषि संविधान की राज्य सूची का विशिष्ट मामला है अतः इसमें राज्यों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। इसलिए कुछ कृषि विशेषज्ञों का मत है कि किसानों की मांग को देखते हुए जब इन नये तीनों कानूनों की समीक्षा की जाये तो उसमें राज्य सरकारों का मत भी लिया जाये। मगर सरकार ने आज किसानों की दो मांगों को मान कर सिद्धान्त रूप से यह स्वीकार कर लिया है कि कृषि क्षेत्र के विकास में सरकार की भूमिका को समाप्त नहीं किया जा सकता।  इससे यह ध्वनि निकलती है कि सरकार तीन नये कृषि कानूनों की समीक्षा करते समय इस तथ्य का ध्यान रखेगी और किसानों का विश्वास अर्जित करने में सफलता प्राप्त कर सकेगी। यह भी तर्कपूर्ण है कि जब सरकार वर्तमान कृषि कानूनों के विभिन्न प्रावधानों में संशोधन करने के लिए राजी है और उसके लिए पुनः उसे संसद के पास ही जाना पड़ेगा तो क्यों न इन कानूनों को नये सिरे से इस प्रकार तैयार किये जाये जिससे उसे किसानों का आशीर्वाद भी प्राप्त हो सके। क्योंकि लोकतन्त्र में लोगों का विश्वास ही किसी भी सरकार की सबसे बड़ी पूंजी होती है। आन्दोलनकारी किसानों के एक प्रवक्ता का यह कहना कि सरकार ये तीनों कानून संविधान की समवर्ती सूची के तहत ‘व्यापार व वाणिज्य’ में दखल करने के नाम पर लाई है, महत्वपूर्ण है क्योंकि कृषि उपज के मामले में व्यापार व वाणिज्य तब शुरू होता है जब किसान अपनी फसल बाजार में बेच देता है। जबकि कृषि उपजों का विपणन राज्य सरकारों का विशेषाधिकार होता है। अतः यह तो स्वीकार करना होगा कि आज का किसान अनपढ़ नहीं है। वह कानूनों को भलीभांति समझता है और उसका विश्लेषण भी कर सकता है, परन्तु हमें इसके मूल में जाकर यह भी विचार करना होगा कि किसानों की आय बढ़ाने के लिए सरकारी कदमों की वर्तमान अर्थव्यवस्था में कितनी जरूरत है।  जाहिर है ये सभी बुनियादी सवाल आगामी 4 जनवरी की किसान-सरकार वार्ता में उठेंगे और इनका वाजिब हल निकलेगा। फिलहाल तो यह खुशखबरी है कि किसानों ने आज 31 दिसम्बर को होने वाली ट्रैक्टर रैली रद्द कर दी है। वैसे पाठकों की जानकारी के लिए बताता चलूं कि जब 1947 में देश आजाद हुआ था तो पूरे भारत में ट्रैक्टरों की संख्या मात्र पांच हजार थी जो आज बढ़कर 53 लाख से भी ज्यादा हो चुकी है। यह सब हमारे किसानों ने अपनी मेहनत से ही किया है। यही जय जवान- जय किसान नारे का मूलार्थ है।

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