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जेटली के प्रयास रंग लाए

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विश्व बैंक ने व्यापार सरलता (ईज आफ डुइंग बिजनेस) के क्षेत्र में दुनिया के 190 देशों में भारत को 100वां स्थान दिया है जो पिछले वर्ष के मुकाबले 30 स्थान ऊपर है। निश्चित रूप से यह खुशगवार समाचार है। इसका श्रेय वि​त्त मंत्री श्री अरुण जेटली को ही ​िदया जाना चाहिए। मगर व्यापार सरलता में भारत की छलांग का वास्तविक आंतरिक व्यापारिक स्थिति से विशेष लेना-देना इसलिए नहीं है कि यह आकलन मुम्बई जैसे बड़े शहर की वाणिज्यिक प्रणाली को लेकर किया गया है। ऐसा नहीं माना जा सकता कि वित्त मंत्री अरुण जेटली भारत की इस जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं हैं। यह उन्हीं के प्रयास से संभव हुआ है कि एक तरफ जीएसटी में लगातार संशोधन किए जा रहे हैं दूसरी तरफ बैंकों की वित्तीय स्थिति सुधारी जा रही है। इसके परिणाम देर-सवेर भारत के लिए अनुकूल ही निकलेंगे, ऐसा ​निश्चित तौर पर अनुमान लगाया जा सकता है। दरअसल भारत की जमीनी हकीकत हमारा ध्यान उस व्यापार व्यवस्था की तरफ ले जाती है जिसमें सरलता के साथ अपने वाणिज्य चातुर्य का इस्तेमाल करते हुए स्व. श्री रामकृष्ण डालमिया एक छोटे से दुकानदार से बड़ी-बड़ी ​फैिक्ट्रयों और वित्तीय कम्पनियों के मालिक बनकर राष्ट्रीय सेठ की पदवी पा गये थे और साइकिल के पंक्चर लगाने का धंधा शुरू करने वाले स्व. किर्लोस्कर बिजली के इंजनों का उत्पादन करने वाले इस क्षेत्र के देश के सबसे बड़े उद्योगपति बन गये थे।

उदाहरण और भी हैं जिनमें स्व. धीरू भाई अम्बानी की कहानी भी कम रोचक नहीं है जो पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरने की नौकरी करने से शुरूआत करके देश की सबसे बड़ी पेट्रोलियम रिफाइनरी के मालिक बन गये और सिंथेटिक धागे से लेकर शेयर बाजार के कारोबार तक में जिन्होंने क्रान्तिकारी पहल की। मैं जानबूझ कर टाटा, बिड़ला, श्रीराम, बजाज, थापर आदि उद्योग समूहों के नाम नहीं ले रहा हूं क्योंकि इनकी शुरूआत अपेक्षाकृत मजबूत आर्थिक आधार के साथ हुई थी परन्तु तर्क दिया जा सकता है कि यह सब या तो ब्रिटिश राज के दौरान हुआ अथवा स्वतन्त्रता मिलने के बाद संरक्षित अर्थव्यवस्था के दौर में लेकिन यह निष्कर्ष निकालने में किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि उस दौर में विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्ध लगे होने के बावजूद व्यापारिक रास्ते पर ऊंचाइयां प्राप्त करने के मार्ग में उद्यमियों के हाथ बन्धे हुए नहीं थे। बिना शक वित्तीय क्षेत्र में प्रतियोगिता शुरू होने के बाद ऋण लेना सरल हुआ है और विभिन्न वित्तीय अनुशासनिक नियमों के चलते छोटे निवेशकों की सुरक्षा भी बढ़ी है मगर विदेशी कम्पनियों के हर क्षेत्र में प्रवेश से भारत के देशी छोटे व मंझोले उद्योगों का विकास अवरुद्ध हो चुका है। इतना जरूर है कि विदेशी निवेशकों के लिए भारत में माहौल बेहतर हो रहा है मगर इसका रोजगार वृद्धि से कितना सम्बन्ध है, यह ध्यान हमें रखना होगा।

असली सवाल यह है कि जब जीएसटी के लागू हो जाने पर एक साधारण दुकानदार से लेकर छोटी सी फैक्ट्री का मालिक तक वाणिज्यिक इलैक्ट्राॅनिक कागजात की खानापूर्ति से घबराया हुआ है और उसने अपने व्यापार विस्तार को ठंडे बस्ते में डाल दिया है तो किस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारत में व्यापार करना सरल हो गया है? जब नोटबन्दी लागू होने के बाद से बाजार से नकद रोकड़ा गायब हो चुकी है तो देशी व्यापारी के लिए कौन सा रास्ता बचता है कि वह अपने कारोबार का विविधीकरण करने के बारे में सोचे? असल में व्यापार का सरल होना तब माना जाता है जब बाजार में खरीदारी करने वाले ग्राहक को प्रतियोगी दरों पर सामान उपलब्ध हो जिससे उसके हाथ में रुपये की क्रयशक्ति में मजबूती आये मगर भारत के छोटे कस्बों से लेकर बड़े शहरों तक में उल्टा हो रहा है आैर उपभोक्ता या ग्राहक खुद को लुटा हुआ महसूस कर रहा है। हिन्दोस्तान की इस हकीकत को विश्व बैंक का प्रमाणपत्र किसी भी शर्त पर नहीं बदल सकता। दरअसल हमें इस मुद्दे पर गंभीरता के साथ सोचना होगा कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे संस्थान अब आगे भारत जैसी तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्थाओं को अपने इशारे पर नहीं नचा सकते क्योंकि पूरी विश्व अर्थव्यवस्था को कन्धा देने वाले एेसी अर्थव्यवस्था वाले देश ही हैं। इन संस्थानों के वित्तीय कोषों का झुकाव इन जैसे देशों की तरफ देर–सवेर होना ही होगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संगठित व संरक्षित ये वित्तीय संस्थान अभी भी यूरोप व अमरीका को विश्व अर्थव्यवस्था का संवाहक मानकर नहीं चल सकते। बेशक भारत पिछले लगभग 26 सालों से खुली बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बना हुआ है मगर इसका मतलब यह कदापि नहीं हो सकता कि वह पश्चिम की अन्धी नकल करके अपने आर्थिक वातावरण को जोखिम में डाले। प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था के अपने कुछ मूल मानक होते हैं। यह तथ्य कभी नहीं भूला जा सकता कि जब कांग्रेस नेता श्री कमलनाथ केन्द्र की पिछली सरकार में वाणिज्य मन्त्री थे तो उन्होंने विश्व व्यापार संगठन में विकसित देश कहे जाने वाले पश्चिमी देशों की लाॅबी के इस दबाव के आगे झुकने से मना कर दिया था कि भारत जैसे दूसरे देशों को अपने कृषि क्षेत्र की सब्सिडी खत्म कर देनी चाहिए। तब कमलनाथ ने कहा था कि जिस दिन भारत के किसानों की आर्थिक हालत यूरोप के किसानों के समकक्ष हो जायेगी तब इस मुद्दे पर गौर किया जायेगा। भारत की व्यापार सरलता का पैमाना केवल यही हो सकता है कि जब कोई छोटी पूंजी से कोई उद्यमी बिस्कुट की छोटी सी फैक्ट्री लगाये तो उसके सिर पर विभिन्न विभागों के इंस्पैक्टरों की तलवार न लटकी हुई हो। वित्त मंत्री अरुण जेतली निरंतर आर्थिक सुधारों पर बल दे रहे हैं, इसका लाभ निश्चित रूप से देश की अर्थव्यवस्था को मिलेगा।

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