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पहाड़ों पर लगता जाम

देश के मैदानी इलाकों में पड़ रही भीषण गर्मी से निजात पाने के लिये लोग पहाड़ों की ओर जा रहे हैं। हजारों यात्री ठंडे क्षेत्रों में स्थित शक्तिपीठों और आम धर्मस्थलों की ओर जा रहे हैं।

देश के मैदानी इलाकों में पड़ रही भीषण गर्मी से निजात पाने के लिये लोग पहाड़ों की ओर जा रहे हैं। हजारों यात्री ठंडे क्षेत्रों में स्थित शक्तिपीठों और आम धर्मस्थलों की ओर जा रहे हैं। जून के महीने में न केवल उत्तराखंड के चारों धामों में मानव बाढ़ आ गई है, बल्कि हिमाचल और अन्य पर्यटक स्थलों पर भी अत्यधिक भीड़ नजर आ रही है। भारतीय पहले ही पर्यटन प्रेमी माने जाते हैं, वे पुण्य लाभ कमाने के लिये धार्मिक स्थलों की यात्रा तो करते ही हैं और वीकेंड में एक छुट्टी और जुड़ जाये तो अपनी गाड़ियां निकाल कर पर्यटन स्थलों की ओर निकल पड़ते हैं।
आस्था के केन्द्र बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे धार्मिक स्थलों पर इस बार इतनी भीड़ उमड़ आई जिसको संभालना उत्तराखंड सरकार की क्षमता से बाहर है। मसूरी, नैनीताल और अन्य स्थलों पर सभी व्यवस्थायें विफल साबित हो रही हैं। जिस शांति और शीतलता के लिये लोग पहाड़ की ओर जाते हैं अगर वहां भी उन्हें मैदानी इलाकों जैसी स्थिति का सामना करने पड़े तो वह खुद को लुटा-पिटा ही महसूस करेंगे। पिछले दो दिन में उत्तराखंड ही नहीं हिमाचल के रोहतांग और मनाली में भी पर्यटक 30-30 मील लम्बे जाम में फंसे रहे। वाहनों की लम्बी कतारों के बीच अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए पर्यटक भूखे-प्यासे ही जद्दोजहद करते रहे। 
नैनीताल और रानीखेत-हल्द्वानी रोड पर जाम में फंसना तो लोगों की नियति बन गई है। अल्मोड़ा और ​​पिथौरागढ़ की ओर जाने वाले मार्ग पर भी जाम ही रहता है। तीन दिन के वीकेंड के बाद लोगों ने अपने घरों की ओर रुख किया लेकिन वाहनों के रेंगने का दौर जारी रहा। तीन दिन तक हर जगह व्यवस्थायें इतनी गड़बड़ाईं कि हर पर्यटक कराह उठा। समुद्र तल से 4,633 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हेमकुंड साहिब विश्व का सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित गुरुद्वारा है। वहां भी श्रद्धालुओं की भारी भीड़ देखी गई। दरअसल पहाड़ी राज्याें की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार पर्यटन ही होता है। हर सरकार पर्यटन उद्योग को प्रोत्साहित कर रही है। पहाड़ काट-काट कर होटल और सड़कें बनाई जा रही हैं।
 
उत्तराखंड में केदारनाथ में आई भयंकर आपदा के बाद भी कई जगह बादल फटने की घटनायें लगातार हो रही हैं। प्राकृतिक आपदाओं के लिये मनुष्य और उसकी अतिमहत्वाकांक्षायें ही जिम्मेदार हैं। कारण बहुत स्पष्ट है कि हमने अपने निजी सुख-सुविधा और विलासिता के चलते प्रकृति का बड़े पैमाने पर दोहन किया है। पहाड़ी राज्यों की सरकारें चाहती हैं कि उनके यहां पर्यटकों की भीड़ लगी रहे ताकि राज्य सरकार को राजस्व मिले और राज्य के लोगों की रोजी-रोटी भी चलती रहे। शासन-प्रशासन लगातार नदियों के पानी को सुरंगों में डालकर और पहाड़ों को खोदकर बिजली उत्पादन के संयंत्र लगाता जा रहा है लेकिन इससे उत्तराखंड में पारिस्थितिकीय संकट खड़ा हो गया है। 
ऐसा ही पारिस्थितिकीय संकट हिमाचल और अन्य पहाड़ी इलाकों में पैदा हो चुका है। हर वर्ष गर्मियों में भीषण पानी-बिजली संकट का सामना करना पड़ रहा है। अनेक पर्यावरणविद् लगातार राज्य सरकारों को सचेत करते आ रहे हैं कि हिमाचल का पर्यावरण बहुत अधिक दबाव सहन नहीं कर सकता लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं। अवैध खनन माफिया सक्रिय हैं और खनन भी अवैज्ञानिक तरीकों से हो रहा है जिससे हिमालय खोखला होता जा रहा है। परिणामस्वरूप भूस्खलन की घटनायें बढ़ती जा रही हैं। पहाड़ों पर शहरों से रोजाना हजारों वाहन जायेंगे तो पर्यावरण प्रभावित होगा ही। यही कारण रहा कि पहाड़ों की रानी मसूरी में पारा 30 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा। 
उत्तरकाशी में अधिकतम पारा 36 डिग्री रहा। हिमाचल में भी कई जगह तापमान का रिकार्ड टूटा। जम्मू के तापमान में भी बढ़ोतरी देखी गई। पिछले कुछ दिनों से माउंट एवरेस्ट पर जाम की खबरें आ रही हैं। लगातार पर्वतारोहियों की मौत हो रही है। माउंट एवरेस्ट पर शव पड़े हुये हैं और पर्वतारोही उन्हें नजरंदाज कर आगे बढ़ रहे हैं। यह कैसा रोमांच है जिसने इन्सान को इन्सान नहीं रहने दिया। नेपाल सरकार केवल भारी भरकम शुल्क लेकर अनुभवहीन लोगों को एवरेस्ट पर चढ़ने की स्वीकृति दे रही है। उसकी नजर में इन्सान की कोई कीमत नहीं। एवरेस्ट पर जो कुछ हुआ वह दुनियाभर के पर्वत प्रेमियों और पर्वतारोहण के दीवानों को बहुत चिंतित करने वाला नहीं।
पर्वतारोहियों को परमिट देने से पहले सीजन की प्रतिकूल परिस्थितियों की जानकारी देना भी जरूरी होता है। अनुभवहीन पर्वतारोहियों को प्रतिकूल परिस्थितियों की जानकारी तक नहीं थी। 85 किलोमीटर की रफ्तार की बर्फीली आंधियां जानलेवा साबित हुईं। मनुष्य के स्वभाव को भी प्रकृति कहते हैं। मनुष्य जब अपनी प्रकृति से विमुख हो जाता है तो परमात्मा की प्रकृति, जिसे पराप्रकृति कहते हैं, वह भी रुष्ठ हो जाती है। जहां मनुष्य को अपने स्वभाव का निरीक्षण करना होगा वहीं राज्य सरकारों को भी पर्यटकों को संभालने लायक व्यवस्थायें करनी होंगी या फिर पर्यटकों की संख्या पर अंकुश लगाना होगा। प्रदूषण सबसे बड़ा शत्रु बन चुका है। अगर हम अब भी नहीं चेते तो न जाने कल कैसा होगा?

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