जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल श्री गिरीश चन्द्र मुर्मू द्वारा ठीक 5 अगस्त को अपने पद से इस्तीफा देना कम विस्मयकारी नहीं माना जा रहा है। इस दिन राज्य का विशेष दर्जा समाप्त होने का एक साल पूरा होने पर इस अर्ध राज्य के पहले उपराज्यपाल का पद छोड़ना बताता है कि राज्य की प्रशासनिक प्रणाली में आन्तरिक तनाव का वातावरण बन रहा था। उनके स्थान पर भाजपा के नेता श्री मनोज सिन्हा का उपराज्यपाल बनाया जाना दूसरी तरफ यह सिद्ध करता है कि राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया की गति तेज हो सकती है। श्री मुर्मू मूलतः प्रशासनिक सेवा के आईएएस अधिकारी ही हैं मगर ओडिशा के आदिवासी जनजाति परिवार में जन्म लेने की वजह से उनकी जमीनी पकड़ कम नहीं थी जिसकी वजह से वह राज्य प्रशासन को जन मूलक और नौकरशाही को जबावदेह बनाने के प्रयास कर रहे थे। वह राज्य में जल्दी चुनाव चाहते थे और आम कश्मीरी को मूलभूत नागरिक सुविधाएं भी उपलब्ध कराना चाहते थे। इस क्रम में वह मीडिया के सहयोग से आम लोगों को आश्वस्त भी कर रहे थे कि 4-जी जैसी इंटरनेट सुविधाओं का प्रदान किया जाना कोई दुष्कर कार्य नहीं होना चाहिए। उन्होंने यह भी साफ करने की कोशिश की थी कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लम्बे समय तक नहीं लगा रह सकता और जनता के मत से चुनी हुई लोकप्रिय सरकार जल्दी ही गठित होनी चाहिए।
राज्य में चुनाव कराने को लेकर उनका बयान चुनाव आयोग को इस कदर नागवार गुजरा कि उसने सार्वजनिक रूप से इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज करा दी जबकि वास्तव में श्री मुर्मू ने आयोग के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का प्रयास नहीं किया था बल्कि केवल अपनी राय व्यक्त की थी कि चुनाव क्षेत्र परिसीमन की जिम्मेदारी राज्य सरकार पूरी कर रही है। अब यह देखना चुनाव आयोग का कार्य है कि मतदान किस तरीके से कराया जाये और कब कराया जाये, उनकी राय में चुनाव जल्दी होने चाहिए। विगत वर्ष 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर के दो अर्ध राज्यों लद्दाख व जम्मू-कश्मीर में बंट जाने के बाद राज्य के प्रशासनिक व आय स्रोतों का बंटवारा करना कोई आसान काम नहीं था। इस कार्य को कोई कुशल जमीन से जुड़ा हुआ प्रशासक ही कर सकता था।
इस कार्य को श्री मुर्मू ने बखूबी निपटाया। यह आधारभूत कार्य करने में अड़चनें भी कम नहीं थीं क्योंकि पुलिस से लेकर समूचे विधानमंडलीय व आय स्रोतों का बंटवारा होना था और इस प्रकार होना था कि लद्दाख को कहीं भी यह न लगे कि उसकी पुनः उपेक्षा हो रही है क्योंकि जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा होते हुए लद्दाख के लोगों की शिकायत अपनी उपेक्षा होने की ही ज्यादा रहती थी। श्री मुर्मू ने यह कार्य बहुत ही सफलतापूर्वक सम्पन्न किया है। दूसरी तरफ नये उपराज्यपाल मनोज सिन्हा छात्र राजनीति से निकले हुए नेता हैं। वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं। यह संयोग ही कहा जायेगा कि राज्य के अंतिम राज्यपाल श्री सत्यपाल मलिक भी छात्र राजनीति की देन थे, जो मेरठ कालेज, मेरठ छात्र संघ के अध्यक्ष रहे थे। उन्हीं के कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 समाप्त हुआ। अब दूसरे छात्र राजनीति से निकले नेता के हाथ में केन्द्र सरकार ने इसे अर्ध राज्य के रूप में विकसित करने की जिम्मेदारी दी है। अर्द्ध राज्य बनने पर उपराज्यपाल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि चुनी हुई सरकार होने के बावजूद शासन का अन्तिम सूत्र उन्हीं के हाथ में रहेगा। श्री मनोज सिन्हा पूर्व में मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में रेल राज्यमंत्री व स्वतन्त्र प्रभार के सूचना टैक्नोलोजी राज्यमन्त्री भी रह चुके हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से वह तीन बार लोकसभा सांसद भी रहे हैं। अतः जमीनी राजनीति पर उनकी पकड़ भी कम नहीं आंकी जा सकती। उनकी विशेषता ही कही जायेगी कि वह एक सिविल इंजीनियर हैं, अपनी इस योग्यता का उपयोग वह जम्मू-कश्मीर के विकास में कर सकते हैं मगर इस राज्य की पहली जरूरत यह है कि यहां आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाई जाये और आतंकवादियों का सफाया किया जाये। घाटी में शान्ति हुए बिना चुनाव भी निर्विघ्नता से सम्पन्न नहीं कराये जा सकते।
राजनीतिक प्रक्रिया को तेज करने और स्थिति सामान्य बनाने के लिए जरूरी है कि राजनीतिक ढांचे की कड़ियों को जोड़ा जाये जिसमें राजनीतिज्ञों की रिहाई भी शामिल है। श्री सिन्हा इन चुनौतियों का सामना किस प्रकार करेंगे यह तो समय ही बतायेगा परन्तु केन्द्रीय मन्त्री के रूप में उनके पिछले कार्यकाल को देखते हुए कहा जा सकता है कि वह शोर से दूर रहते हुए शान्त भाव से ठोस काम करने में यकीन रखते हैं। श्री सिन्हा की योग्यता पर सवालिया निशान नहीं है। एक समय वह भी था जब 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा के चुनाव जीतने पर उनका नाम मुख्यमन्त्री पद के लिए लिया जा रहा था।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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