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जम्मू-कश्मीर का ‘सर्कस’

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जम्मू-कश्मीर विधानसभा को अचानक भंग करके इस सूबे के राज्यपाल श्री सत्यपाल मलिक ने पूर्व मुख्यमन्त्री श्रीमती महबूबा मुफ्ती और उनकी पार्टी पीडीपी को जिस तरह राजनैतिक बढ़त प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया है वह इस घटनाक्रम का अन्तिम निष्कर्ष नहीं है क्योंकि यह पार्टी राज्य मंे पिछले जून महीने तक जिस तरह धुर विरोधी पार्टी भाजपा के साथ मिलकर सरकार चला रही थी उसने इस राज्य के राजनैतिक माहौल को पूरी तरह साम्प्रदायिक गुटों में बांट दिया था और जम्मू-कश्मीर के संयुक्त अस्तित्व के लिए ही चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां बना दी थीं। जाहिर है यह प्रयोग पूरी तरह असफल रहा था जो राजनैतिक मजबूरियों के चलते ही सिरे चढ़ा था क्योंकि विधानसभा की दलीय संरचना ही इस प्रकार थी कि तीन वर्ष पूर्व हुए चुनाव परिणामों को देखते हुए केवल पीडीपी और भाजपा के सहयोग से ही टिकाऊ सरकार का गठन हो सकता था। पीडीपी के 28, भाजपा के 25, नेशनल कान्फ्रेंस के 15, कांग्रेस के 12 , पीपुल्स कान्फ्रेंस के दो और तीन निर्दलीय व मार्क्सवादी पार्टी और पीडीएफ का एक-एक विधायक चुने जाने पर 87 सदस्यीय विधानसभा का गठन हुआ था जिसमें दो मनोनीत विधायक भी शामिल थे।

अंक गणित राजनैतिक समीकरणों को धराशायी कर रहा था क्योंकि सिद्धान्त विरोधी गठबन्धन के बनने का ही एकमात्र रास्ता किसी भी चुनी हुई सरकार के गठन के लिए बचा हुआ था। अतः ‘भाजपा-पीडीपी’ गठबन्धन की सरकार का गठित होना प्रदेश को राज्यपाल शासन से बचाने के लिए इसलिए लाजिमी हो गया क्योंकि चुनावी जंग से निकले राजनैतिक दलों में सत्ता प्राप्त करने के लिए ही बाजियां लगती हैं मगर जून से पांच माह बीत जाने तक राज्य में किसी दूसरी वैकल्पिक सरकार के गठन का प्रयास न होना यह बताता था कि राज्य के हर राजनैतिक दल को एक-दूसरे के खिलाफ रुख रखते हुए ही अपना अस्तित्व बचाने की चिन्ता थी परन्तु अचानक पिछली सरकार गिरने का छठा महीना शुरू होते ही जिस प्रकार पीपुल्स कान्फ्रेंस के दो विधायकों वाली पार्टी के नेता सज्जाद लोन ने भाजपा के 25 विधायकों की मदद से सरकार बनाने का दावा ठोकने की तरफ कदम बढ़ाया उससे अन्य दलों में बेचैनी होने लगी थी क्योंकि इस राज्य मंे दलबदल कानून उस रूप में लागू नहीं होता है जिस प्रकार शेष पूरे देश में।

अनुच्छेद 370 के तहत इसका विशेष दर्जा इसे इस कानून से मुक्त रखता है। इस राज्य में दलबदल का फैसला विधानसभा अध्यक्ष के हाथ में नहीं होता बल्कि विधायक की सम्बन्धित पार्टी के नेता के हाथ में होता है। इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर के इस दलबदल कानून को पिछली उमर अब्दुल्ला सरकार के दौरान इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर ढीला कर दिया गया था कि जब 2011 में कांग्रेस व नेशनल कान्फ्रेंस की सांझा सरकार के मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला के हक में भाजपा के सात विधायकों ने अपनी पार्टी के निर्देश के खिलाफ मत दिया तो उनकी सदस्यता समाप्त करने के मुद्दे पर तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष जमकर इस सरकार के कार्यकाल पूरा होने तक बैठे रहे। इससे यह मामला दलबदल के मामले में नजीर बन गया जिसमें विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण बना दी गई और विधायक दल पार्टी के नेता के फैसले को दूसरे पायदान पर डाल दिया गया। अतः पीपुल्स पार्टी के दो विधायकों वाले नेता सज्जाद लोन जिस प्रकार सरकार गठन के प्रयासों में लगे हुए थे उससे भाजपा विरोधी दलों में हड़कम्प मचना स्वाभाविक था कि यदि पीडीपी पार्टी के 28 में से दो तिहाई विधायक अर्थात 18 सज्जाद लोन के साथ चले जाते तो 45 हो जाते और सरकार बन जाती।

क्योंकि भंग विधानसभा में अध्यक्ष भाजपा का ही था तो वह पुरानी नजीर पेश करके इस पार्टी की नेता बेगम मुफ्ती के फैसले को कुर्सी के नीचे उसी तरह दबा देता जिस तरह 2011 में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष ने दबा दिया था। खतरों को पहले से भांप कर उन्हें खत्म करने की चालें चलने का नाम ही राजनीति होता है। अतः राज्य के उन दलों नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी के बीच अपना-अपना अस्तित्व बचाने की कोशिश होने लगी। क्योंकि कोई नहीं जानता था कि एक बार सज्जाद लोन की सरकार बनने के बाद नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस विधायकों का क्या हश्र होता मगर यह कार्य पूरी तरह अनैतिक व सौदेबाजी की राह पकड़ कर ही होता। बेशक पीडीपी मंे बेगम मुफ्ती के खिलाफ एक दर्जन के लगभग विधायक बागी रुख अख्तियार कर रहे थे मगर उनमें बिना 18 की संख्या तक पहुंचे खुली बगावत की हिम्मत इस हद तक नहीं हो रही थी कि वे विधायक पद से इस्तीफा दे दें।

क्योंकि इसी बीच पीडीपी, नेशनल कान्फ्रेंस व कांग्रेस ने सभी मतभेद भुलाकर भाजपा की इस रणनीति को परास्त करने के लिए आपस में हाथ मिलाकर सांझा गठबन्धन बनाने की रणनीति अमल में लाने की तरफ कदम बढ़ा दिया और इस गठबन्धन के होने वाले नेता पीडीपी विधायक अल्ताफ बुखारी का नाम भी चुन लिया और राज्यपाल को महबूबा मुफ्ती ने फैक्स कर दिया कि यह गठबन्धन नई सरकार बनाने की स्थिति में है क्योंकि उसके पास 56 विधायकों का बहुमत है मगर राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने इस बारे में फैक्स के मिलने की पु​िष्ट नहीं की क्योंकि यह फैक्स हजरत मुहम्मद साहब के जन्मदिन ‘ईद-ए-मिलादुल नबी’ बुधवार को छुट्टी के दिन भेजा गया था और इसी दिन सायंकाल उन्होंने विधानसभा भंग करने की घोषणा कर दी।

राज्यपाल द्वारा इन दलों के गठबन्धन का संज्ञान न लेना संसदीय लोकतान्त्रिक नियमों के विपरीत ही कहा जायेगा। राज्यपाल को इससे मतलब नहीं होता कि गठबन्धन के दलों में वैचारिक मतभेद हैं अथवा सैद्धान्तिक विरोधाभास है, उन्हें केवल अंक गणित देखना होता है। यह काम जनता को देखना होता है जिन्होंने इन दलों के प्रतिनिधियों को चुन कर विधानसभा मंे भेजा होता है। दूसरी तरफ यह भी देखना होगा कि जब स्वयं कांग्रेस से लेकर नेशनल कान्फ्रेस जून महीने मंे मुफ्ती सरकार गिरने के बाद जल्दी से जल्दी विधानसभा भंग करके चुनाव कराने की मांग कर रहे थे तो अब इसका विरोध क्यों कर रहे हैं?

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