जद (यू) और एनडीए गठबंधन

जद (यू) और एनडीए गठबंधन
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सत्तारूढ़ भाजपा नीत गठबन्धन एनडीए के भीतर कुछ सैद्धान्तिक विषयों पर जिस प्रकार के वैचारिक मतभेद उभर रहे हैं उन पर किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि यह गठबन्धन लोकसभा के भीतर सत्ता के समीकरणों को देखते हुए बनाया गया है। भारत के संसदीय लोकतन्त्र में बहुमत और अल्पमत का खेल संसद विशेषकर लोकसभा के भीतर विभिन्न राजनैतिक दलों के चुने गये सदस्यों की संख्या पर निर्भर करता है। विशेषकर तब जब किसी भी राजनैतिक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं होता है। 2024 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को अपने बूते पर पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हो सका और यह 543 (चुने हुए) सदस्यीय लोकसभा में इससे 32 सदस्य कम रह गए और इसके केवल 240 सांसद ही चुने गये अतः सरकार बनाने के लिए इसे अन्य दलों की मदद लेनी पड़ी हालांकि इन दलों के साथ इसका चुनाव पूर्व गठबन्धन था परन्तु चुनाव के बाद इसमें शामिल हर दल को किसी भी तरफ जाने की स्वतन्त्रता थी। वैसे भी संसदीय लोकतन्त्र में सरकार बनाने का उसी पार्टी को पहला अवसर दिया जाता है जिसके सदस्य सबसे बड़ी संख्या में चुने जाते हैं अतः भाजपा का पुनः सरकार बनाना स्वाभाविक था क्योंकि विपक्षी 'इंडिया' गठबन्धन की संयुक्त शक्ति 234 सदस्यों पर ही अटक गई थी।

इसलिए भाजपा ने अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई। केन्द्र में 1989 से गठबन्धन सरकारों का दौर तब से शुरू हुआ जब स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में उनकी पार्टी जनता दल की संयुक्त मोर्चा सरकार गठित हुई थी। इस सरकार को तब बाहर से एक तरफ भाजपा समर्थन दे रही थी तो दूसरी तरफ वामपंथी दल भी समर्थन दे रहे थे। अतः हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि सत्ता के लिए राजनैतिक दल वैचारिक मतभेदों को ताक पर रख देते हैं। इसलिए वर्तमान सत्तारूढ़ गठबन्धन में जो मतभेद सामने आ रहे हैं वे कोई अनहोनी नहीं हैं। एनडीए में बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश बाबू की पार्टी जनता दल (यू) भी शामिल है और आन्ध्र प्रदेश की तेलुगू देशम पार्टी भी शामिल है और स्व. राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी भी इसके समर्थन में है। इन तीनों दलों को ही उदारवादी विचारधारा का प्रवाहक माना जाता है जिसका भाजपा की विशुद्ध हिन्दुत्व की राष्ट्रवादी विचारधारा से कोई मेल नहीं है। यही वजह है कि जनता दल(यू) के राष्ट्रीय प्रवक्ता रहे श्री के.सी. त्यागी ने इजराइल को भारतीय मदद से लेकर लेटरल एंट्री तक के मुद्दों पर अपनी पार्टी की विचारधारा के अनुसार पृथक राय व्यक्त की और साफ किया कि ऐसे मामलों में वे भाजपा के मत से अलग राय रखते हैं। श्री त्यागी जनता दल (यू) के बनने से लेकर अभी तक इसी पार्टी में हैं और नीतीश बाबू के वफादार सहयोगी माने जाते हैं।

हालांकि उनकी राजनैतिक शिक्षा-दीक्षा स्व. चौधरी चरण सिंह की सिद्धांतवादी राजनीति के साये में हुई थी परन्तु 1996 में संयुक्त जनता दल के बिखराव के बाद उन्होंने स्व. जॉर्ज फर्नांडिज से लेकर स्व. शरद यादव के साथ रहना पसन्द किया परन्तु उन्होंने कभी भी न तो ग्रामीण राजनीति के चरण सिंह के नीति सिद्धान्तों को छोड़ा और न कभी समाजवादी विचारधारा को। उनकी पार्टी जनता दल (यू) भी इन्हीं सिद्धान्तों की पैरोकार मानी जाती है। अतः उन्होंने एक समान नागरिक संहिता से लेकर दलितों व पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण मुद्दे पर बेबाकी के साथ अपनी पार्टी की विचारधारा का प्रतिपादन करते हुए वक्तव्य जारी किये और साफ किया कि जनता दल(यू) का वैचारिक रूप से भाजपा के साथ सामंजस्य नहीं है। दरअसल सत्ता के लिए बने गठबन्धन और वैचारिक गठबन्धन में आमूलचूल अन्तर होता है। सत्ता पर बैठने के लिए प्रायः हर दल समझौता करता है।

लोकतन्त्र की यह राजनैतिक मजबूरी भी होती है। क्योंकि संसदीय लोकतन्त्र भी सभी कुछ जनता द्वारा दिये गये आदेश पर निर्भर करता है। पूर्व में 1998 से लेकर 2004 तक स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने तो दो दर्जन के करीब राजनैतिक दलों की मदद से सरकार चलाई थी और उसके बाद 2004 से 2014 तक डा. मनमोहन सिंह ने 18 दलों के सहयोग से सरकार बनाई और पूरे दस साल तक चलाई। इसे सत्ता के मोह में सैद्धान्तिक समझौता भी कहा जा सकता है। जहां तक के.सी. त्यागी का सवाल है तो उन्होंने अपनी तरफ से यह स्पष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि उनकी पार्टी सत्ता में रहने के बावजूद वैचारिक मुद्दों पर भाजपा से अलग राय रखती है। मगर कहा जा रहा है कि जनता दल(यू) के सर्वेसर्वा नीतीश बाबू ने पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता पद से उनका इस्तीफा इसलिए ले लिया है क्योंकि एनडीए की एकता को खतरा हो रहा था और उनके वक्तव्यों के अलग राजनैतिक अर्थ निकाले जा रहे थे।

इस मामले में स्व.पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति के सरपरस्त चिराग पासवान का उदहारण भी दिया जा सकता है जिन्होंने दलितों के वर्गीकरण के मुद्दे पर खुलकर अपनी राय व्यक्त की और अल्पसंख्यकों के विषय में भी अपनी पार्टी का उदार नजरिया व्यक्त किया जबकि वह तो एनडीए सरकार में मन्त्री हैं। यह माना जा रहा है कि एनडीए के दलों के भीतर मतभेदों को देखते हुए ही मुस्लिम वक्फ विधेयक को संसद की संयुक्त समिति के पास भेजना पड़ा और सूचना प्रौद्योगिकी विधेयक भी वापस लेना पड़ा तथा लेटरल एंट्री आदेश को भी मुल्तवी करना पड़ा। गठबन्धन सरकारों के दौर में यह संभव है क्योंकि इसकी विशेषता यह होती है कि इसमें हर निर्णय सर्वसम्मति से ही लिया जाता है। इसलिए कुछ राजनैतिक पंडित गठबन्धन सरकारों को भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए ज्यादा कारगर मानते हैं। इस तर्क में लोकतन्त्र में वजन न हो ऐसा नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र सर्वानुमति से ही चलता है। हमारी संसदीय प्रणाली की पूरी प्रक्रिया इसी सिद्धान्त पर टिकी हुई है।

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