भारत के विभिन्न राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों की जो जर्जर हालत है वह हर साल किसी न किसी राज्य में होने वाले दर्दनाक हादसों से बयान होती है। मगर जब से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण व कार्पोरेटीकरण होना शुरू हुआ है तबसे सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं और भी अधिक खस्ता हाल हो गई हैं। लोकतन्त्र में किसी भी चुनी हुई सरकार की पहली जिम्मेदारी लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य व खाद्य की सुविधाएं उपलब्ध कराने की होती है। महात्मा गांधी ने आजादी से पहले ही अपने अखबार ‘हरिजन’ में इस सम्बन्ध में कई बार सम्पादकीय लिखकर चेताया था और कहा था कि जनतन्त्र में जो सरकार इन सुविधाओं को मुहैया नहीं करा सकती वह ‘सरकार’ नहीं कहलाई जा सकती बल्कि अराजकतावादियों का जमघट होती है। उत्तर प्रदेश के झांसी नगर के महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कालेज में विगत दिन जो घटना घटी है उसने भारत की जनता का दिल दहला दिया है ।
इस अस्पताल के नवजात शिशु प्रकोष्ठ में आग लगने से दस बच्चे जलकर मर गये जबकि अन्य 39 बुरी तरह झुलस गये। इनमें से बहुत से बच्चे गमभीर रूप से जले हुए हैं। जिन दस बच्चों की मृत्यु हुई है उनमें से केवल सात की ही शिनाख्त हो सकी है जबकि शेष तीन के शवों की डीएनए जांच हो रही है जिससे उनके माता-पिता को उन्हें सौंपा जा सके। झांसी बुन्देलखंड के इलाके में पड़ता है जिसमें साथ लगे मध्यप्रदेश से भी लोग इलाज के लिए आते हैं। प्रारम्भिक खबरों के अनुसार जब आग लगी तो अस्पताल के अग्निशमन यन्त्र काम नहीं कर रहे थे जिससे आग पर काबू पाने के लिए बाहर से अग्निशमन दस्ते बुलाये गये और आग पर बहुत मुश्किल से काबू पाया गया। लक्ष्मीबाई अस्पताल सरकारी अस्पताल है जिसे उत्तर प्रदेश सरकार चलाती है।
नवजात शिशुओं का ऐसे हादसों में मरना सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था पर लानत भेजता है और बताता है कि इन सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर प्रबन्धन की क्या हालत है। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में सरकारी अस्पतालों की जो उपेक्षा हो रही है और गरीब आदमी को अपना इलाज निजी अस्पतालों में कराना कितना महंगा पड़ रहा है। उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि निजी डॉक्टर को एक बार दिखाने में गरीब मजदूर आदमी की एक दिन की दिहाड़ी भी कम पड़ती है। जहां तक आयुष्मान भारत स्कीम का सवाल है तो इसका लाभ निजी अस्पताल व बीमा कम्पनियां जमकर उठा रही हैं और इस स्कीम के तहत एक बार अस्पताल जाने पर ही गरीब आदमी का लाखों रुपये का बिल बना दिया जाता है।
अन्त में सरकारी अस्पताल ही गरीब आदमी के आश्रय स्थल बचते हैं और इनमें स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर आलम यह है कि स्वास्थ्य उपकरण या मशीनें हैं तो डॉक्टर नहीं और डॉक्टर हैं तो दवाएं नहीं। आखिरकार गरीब आदमी को झोलाछाप डाक्टरों की शरण में जाना पड़ता है। मगर रानी झांसी अस्पताल उत्तर प्रदेश का प्रतिष्ठित अस्पताल माना जाता है मगर इसकी हालत यह है कि इसके नवजात शिशु प्रकोष्ठ में शिशुओं को भर्ती करने की क्षमता केवल 19 ही है मगर हादसे के वक्त इसमें 49 शिशु भर्ती थे।
सवाल यह है कि गरीब आदमी जाये तो कहां जाये ? घूम- फिर कर वह सरकारी अस्पताल ही जाता है और उत्तर प्रदेश में हालत यह है कि कुछ वर्ष पहले यहां के गोरखपुर अस्पताल में भी आक्सीजन की कमी की वजह से कई दर्जन बच्चे मर गये थे। राज्य सरकार का स्वास्थ्य बजट जिस तरह से साल दर साल कम होता जा रहा है उससे यही आभास होता है कि सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र को निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है। मगर ऐसा केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं है बल्कि अधिसंख्य राज्य सरकारों की हालत यही है। अपवाद स्वरूप केवल केरल राज्य है जहां सार्वजनिक या सरकारी स्वास्थ्य ढांचा बहुत मजबूत है।
जहां तक उत्तरी राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश आदि का सवाल है तो इनमें किसी भी चुनाव में स्वास्थ्य या शिक्षा कभी चुनावों का मुद्दा नहीं बनते। जिस भारत में 80 करोड़ लोगों को दोनों वक्त का राशन सरकार मुफ्त सुलभ करा रही हो तो सोचा जा सकता है कि इन लोगों के लिए केवल सरकारी स्वास्थ्य चिकित्सालय ही आखिरी आसरा होंगे और सरकारों ने सरकारी अस्पतालों को लावारिस बना कर छोड़ रखा है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com