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झारखंड चला चुनाव की ओर…

झारखंड विधानसभा के चुनाव आज (30 नवम्बर) से शुरू हो रहे हैं। पहले चरण में 13 विधानसभा सीटों पर मतदान होगा।

झारखंड विधानसभा के चुनाव आज (30 नवम्बर) से शुरू हो रहे हैं। पहले चरण में 13 विधानसभा सीटों पर मतदान होगा। बिहार से अलग होकर बने इस राज्य की सबसे बड़ी विशिष्टता इसकी खनिज सम्पदा से ‘धनवान’ धरती और उस पर बसे ‘गरीब’ लोग रहे हैं, विशेष रूप से कोयला व लौह अयस्क के भंडारों से परिपूर्ण धरती पर स्थित इस राज्य के आदिवासी इलाकों में भारत की स्वतन्त्रता से बहुत पहले से जंगलों पर अधिकार को लेकर संघर्ष होते रहे हैं। हकीकत यह भी है कि इसी राज्य में पैदा हुए कैप्टन जयपाल सिंह जैसे दूरदर्शी संसदविद की वजह से अनुसूचित जातियों के साथ आदिवासियों को भी संवैधानिक संरक्षण दिया गया था। 
संविधान सभा के सदस्य की हैसियत से उन्होंने जब यह मुद्दा इस सभा में उठाया था तो डा. भीमराव अम्बेडकर को स्वीकार करना पड़ा था कि भारत के आदिवासियों के साथ भी कथित सभ्य समाज ने पशुवत व्यवहार करने से कोई गुरेज नहीं किया है अतः उन्हें भी आनुपातिक आरक्षण अनुसूचित जातियों के समान ही दिया जाना चाहिए, बल्कि कैप्टन साहब ने तो संविधान सभा में ही यह भी सिद्ध करने की कोशिश की थी कि इस देश के जंगलों में बसने वाले आदिवासी ही मूल रूप से ‘सिन्धु घाटी की सभ्यता’ के वारिस हैं। 
यह वास्तविकता इस राज्य की महत्ता को स्वयं में रेखांकित करती है कि भारत में विभिन्न संस्कृतियों का समागम किस आकार में हुआ है परन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि इस राज्य की मूल समस्या के निवारण के उपाय इसके बिहार से अलग हो जाने के बावजूद नहीं ढूंढे गये और आदिवासियों के नाम पर इसकी राजनीति ‘जन-मूलक’ होने के स्थान पर ‘धन-मूलक’ होती गई। इसकी असली वजह भी इसकी धनवान धरती ही बनी जिस पर निजी उद्योगपतियों की हमेशा आंखें गड़ी रही और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने इसे अधिक दुष्कर बना दिया जिसके चलते यहां राष्ट्रविरोधी नक्सलवादी समस्या ने जोर पकड़ा और यहां की युवा पीढ़ी को भटकाना शुरू कर दिया। 
यह स्वयं में कम विस्मयकारी नहीं है कि चुनाव आयोग इस राज्य की 81 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव पांच चरणों में करा रहा है। हालांकि चुनाव आयोग की उसके इस फैसले के कारण कटु आलोचना भी हुई थी परन्तु इससे  स्थिति की गंभीरता औऱ भयावहता दोनों का ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। दुर्भाग्य से यह राज्य पहली बार 2003 में स्वतन्त्र रूप से विधानसभा चुनाव कराने से लेकर 2014 तक लगातार राजनीतिक अस्थिरता में डूबा रहा है और इन्तेहा यहां तक हो चुकी है कि एक निर्दलीय विधायक मधु कौड़ा भी ‘गड्ड-मड्ड’ राजनीतिक समीकरणों के चलते एक साल से ज्यादा समय तक मुख्यमन्त्री रह लिये जिन पर भ्रष्टाचार का मामला अभी तक चल रहा है और उन्हें न्यायालय ने इन चुनावों में भाग लेने की इजाजत नहीं दी। 
वर्ष 2000 में बने इस नवोदित राज्य की यह सबसे बड़ी त्रासदी रही जो 2014 में भाजपा के रघुबर दास की सरकार बनने के बाद समाप्त हुई। हालांकि इस वर्ष में हुए चुनावों में उनकी पार्टी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाया था। इन चुनावों में असली मुकाबला भाजपा व कांग्रेस के झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ बने गठबन्धन के बीच है जिसमें लालू जी की राजद पार्टी भी शामिल है परन्तु राज्य के प्रथम मुख्यमन्त्री श्री बाबू लाल मरांडी के ‘झारखंड विकास मोर्चा’ पार्टी और ‘आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन’ पार्टी भी इस बार आदिवासी मतों के बूते पर अकेले-अकेले ही चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी हैं जिससे राजनीतिक हालात बहुत ढीलेढाले लग रहे हैं परन्तु हाल ही में महाराष्ट्र व हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणाम जिस तर्ज पर आये हैं उससे यही अनुमान लग सकता है कि लोगों के सब्र का बांधा टूट रहा है। 
झारखंड में वन भूमि पर मालिकाना हकों को लेकर पिछले पूरे पांच साल में जिस तरह की तकरार रही है उसे देखते हुए आदिवासी मूलक दलों की चुनावी क्षमता की भविष्यवाणी करना खतरे से खाली नहीं होगा। 2014 के चुनाव में भाजपा को 37 सीटें मिली थीं और झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन को पांच, इनके गठजोड़ से रघुबर दास सरकार सत्ता में आ गई थी। हालांकि श्री मरांडी का झारखंड विकास मोर्चा भी अकेले ही चुनाव लड़ा था मगर उसे केवल दो सीटें ही मिली थीं जबकि गुरु जी के नाम से प्रसिद्ध शिबू सोरने की झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी को 19 व कांग्रेस को छह सीटें मिली थी और लालू की पार्टी का खाता खाली ही रहा था। 
महत्वपूर्ण यह है कि झारखंड का राजनीतिक महत्व बेशक ज्यादा करके न आंका जाता हो मगर इसका आर्थिक महत्व में बहुत भारी वजन है। अतः चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी पहले दिन से ही रहेगी कि चुनाव पूरी तरह साफ-सुथरे हों और इनमें धन का प्रभाव नगण्य हो। इसके साथ ही नक्सलवादियों को उनकी हदों में समेटने की जिम्मेदारी भी रहेगी। लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाना भी महत्वपूर्ण होता है लेकिन यह भी सच है कि भारत के किसी भी राज्य के मतदाताओं के राजनीतिक बुद्धि कौशल को कम करके नहीं आंका जा सकता। वे जो भी फैसला करते हैं राजनीतिज्ञों के हौंसले तोलने के लिए ही करते हैं।

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