सर्वोच्च न्यायालय में राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष श्री सीपी जोशी की याचिका पर सोमवार तक के लिए सुनवाई टल जाना न्यायिक प्रक्रिया का सामान्य शिष्टाचार कहा जायेगा जबकि याचिका असामान्य परिस्थितियों में दाखिल की गई थी। देश की सबसे बड़ी अदालत के तीन न्यायमूर्तियों ने आज की सुनवाई के दौरान सचिन पायलट के बागी कांग्रेसी विधायकों को अध्यक्ष द्वारा दिये गये प्राथमिक नोटिस को लेकर जो सवाल खड़े किये उन पर श्री जोशी के विद्वान वकील श्री कपिल सिब्बल ने उल्टा सवाल किया कि विधानसभा अध्यक्ष की कार्यप्रणाली न्यायालय के विचार क्षेत्र का विषय नहीं है क्योंकि संसदीय लोकतन्त्र में चुने हुए सदनों की व्यवस्था का स्वतन्त्र और अर्ध न्यायिक अधिकारों से सम्पन्न तन्त्र मौजूद है जो भारतीय लोकतन्त्र की संरचना का आधारभूत सिद्धान्त है। संसदीय प्रणाली की संरचना हमारे देश में इस प्रकार हुई है कि संसद की सत्ता सर्वोच्च रहे क्योंकि यह संस्था देश के करोड़ों मतदाताओं का सीधे प्रतिनिधित्व करती है जिसका अर्थ लोकशाही या जनता की सरकार होता है। यही वजह है कि संविधान मेे संशोधन करने का अधिकार भी संसद को दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य दायित्व संविधान के शासन की व्यवस्था को सुनिश्चित करने और कानून की व्याख्या व समीक्षा करने का इस प्रकार रखा गया कि कोई भी सरकार अपने बहुमत की निरंकुशता में संविधान के आधारभूत ढांचे से बाहर जाकर न तो कानून बना पाये और न ही शासकीय कामकाज में संविधान का उल्लंघन कर पाये। इसी वजह से न्यायपालिका का स्वतन्त्र दर्जा संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने स्थापित किया परन्तु इसके साथ ही चुने हुए सदनों की कार्य स्वतन्त्रता व सत्वाधिकार की स्थापना भी की और इनके संचालन से भीतरी बुनावट व नियमचारिता को न्यायिक समीक्षा के दायरे से पृथक रखा। राजस्थान के मामले में मूल सवाल इसी संवैधानिक बुनावट का है और श्री जोशी की याचिका का सार भी यही है। उनके द्वारा दिये गये नोटिस की पृष्ठभूमि से लेकर आगे की कार्रवाई में न्यायिक हस्तक्षेप तब तक निषेध है जब तक कि वह नोटिस के सन्दर्भ में अपना अंतिम फैसला न दे दें क्योंकि विधायकों की अयोग्यता कानूनी सवाल कम और राजनीतिक सवाल ज्यादा है जिसकी वजह से संविधान की दसवीं अनुसूचि में अध्यक्ष को न्यायिक अधिकार दिये गये हैं। किसी पार्टी के विधानमंडल दल के सदस्यों पर उस पार्टी के संविधान के अन्तर्गत सदन के नियमों के तहत कार्रवाई की जायेगी। इसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मुद्दा पार्टी के संविधान के तहत आता है क्योंकि किसी भी पार्टी के टिकट पर जब कोई व्यक्ति जन प्रतिनिधि चुना जाता है तो वह पार्टी के अनुशासन से बन्ध कर विधानमंडल दल का सदस्य बनता है और विधानमंडल दलों की स्थिति अध्यक्ष तय करते हैं। अतः मूल सवाल यह है कि क्या सचिन एंड कम्पनी के लोग कांग्रेस में रहते हुए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर विधानमंडल के अनुशासन को तोड़ सकते हैं। विधानमंडल दल में अनुशासन बनाये रखने की जिम्मेदारी पार्टी के मुख्य सचेतक या ‘चीफ व्हिप’ की होती है।
मुख्यमन्त्री विधानमंडल दल के नेता होते हैं, उनके आग्रह पर जब विधानमंडल दल की बैठक बुलाई जाती है तो यह कार्य विधानमंडल के नियमों के तहत होता है जिसका बहिष्कार करने पर चीफ व्हिप संज्ञान ले सकते हैं और अध्यक्ष को सूचित कर सकते हैं कि कुछ विधायक नियमों को तोड़ रहे हैं और उनकी इच्छा विधानमंडल दल का सदस्य बने रहने में नहीं है। पूरा मामला यही है जिस पर सर्वोच्च न्यायालय में बहस चल रही है। इस मामले में न्यायालय की संसदीय स्वतन्त्रता से निरपेक्षता का मामला जुड़ चुका है जिसकी वजह से श्री जोशी ने राजस्थान उच्च न्यायालय में सचिन पायलट द्वारा दायर याचिका की सुनवाई पर प्रश्न चिन्ह लगाया है।
इस न्यायालय ने अपना फैसला 24 जुलाई तक सुरक्षित रखा है, परन्तु अब इस फैसले का कोई अर्थ नहीं रहा है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि उच्च न्यायालय के फैसले को उसके फैसले की रोशनी में ही रख कर देखा जायेगा मगर यह मामला लोकतन्त्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन चुका है क्योंकि इससे दल बदल कानून का भविष्य जुड़ा हुआ है। जिसे स्वयं सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने ही 1992 में परिभाषित करते हुए कहा था कि एक बार विधानसभा अध्यक्ष द्वारा इस कानून के तहत जांच की कार्यवाही शुरू करने पर कोई भी न्यायालय हस्तक्षेेप नहीं कर सकता। उसका हस्तक्षेप सम्बन्धित व्यक्ति की याचिका पर तभी होगा जब अध्यक्ष का अंतिम फैसला आ जायेगा। देखना अब यह है कि लोकतन्त्र किन-किन परीक्षाओं से और गुजरता है। वैसे विधानसभा का सत्र बुला कर भी इस विवाद को निपटाया जा सकता था जहां दूध का दूध और पानी का पानी बहुत पहले ही हो जाता मगर माहौल ही ऐसा बना कि विधायकों की बोलियां लगने लगी थीं।