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न्यायपालिका के ‘फकीर’ जिन्दाबाद

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गजब के चुनाव हो रहे हैं 17वीं लोकसभा के लिए कि पूरा का पूरा लोकतन्त्र ही इस तरह दांव पर लग चुका है कि देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई को भी दागदार दिखाने की साजिश परवान चढ़ा दी गई है। यह चुनावों से पहले ही लोकतन्त्र को पराजित करने का ऐसा षड्यंत्र है जिसे हर सच्चे और ईमानदार भारतीय मतदाता को अत्यन्त गंभीरता के साथ लेते हुए भारत की तकदीर लिखनी चाहिए। सवाल किसी राजनैतिक पार्टी का नहीं है बल्कि भारत की उस ‘राजनीति’ का है जो पिछले सत्तर साल से न्यायपालिका के ‘बुलन्द इकबाल’ के साये में अपनी कारगुजारियों का हिसाब-किताब आम जनता के सामने पेश करती रही है।

भारत की न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पूरी दुनिया में इस प्रकार सम्मान के साथ देखी जाती रही है कि इसमें काम करने वाले न्यायाधीश ‘अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय’ तक में पदस्थ होते रहे हैं। मगर चुनावी माहौल में जिस तरह पहले से ही विभिन्न फौजदारी व रिश्वत के आरोपों में घिरी हुई बदनाम औरत से न्यायमूर्ति प्रधान न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न जैसा आरोप लगवाया गया है उसने भारत के लोकतन्त्र के प्रमुख स्तम्भ स्वतन्त्र न्यायपालिका को डराने व धमकाने की नापाक कोशिश की है। भारत के न्यायाधीशों की सबसे बड़ी सम्पत्ति उनकी प्रतिष्ठा होती है जिसकी वजह से आम नागरिक से लेकर दुनियाभर की ऊंची-ऊंची अदालतें उनके सम्मान में शीश झुकाती हैं। मगर बहुत ही शातिराना अंदाज में इसी प्रतिष्ठा को निशाना बनाकर न्यायमूर्ति श्री रंजन गोगोई को महत्वपूर्ण मुकदमों से अलग रखने का कुचक्र इस तरह रचा गया है जिससे वह सबसे पहले खुद अपना ही बचाव करने को मजबूर हो जायें। मगर ये ताकतें एक बहुत बड़ी गलती कर गई हैं कि हिन्दोस्तान वह मुल्क है जिसमें बादशाहों से भी बड़ा रुतबा फकीरों का रहा है क्योंकि उनके सामने बादशाह और रियाया के किसी अदना आदमी में कोई फर्क नहीं रहता था।

बादशाहों से भी बड़ा फकीरों का रुतबा न था,
सारी दुनिया जेब में पर हाथ में ‘पैसा’ न था !

ठीक यही स्थिति न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की है जिन्होंने बीस साल की अपनी न्यायाधीश की नौकरी में सिर्फ अपने बैंक खाते में 6 लाख 80 हजार रुपये ही जमा किये हैं। इससे ज्यादा तो सुप्रीम कोर्ट के किसी चपरासी के खाते में रकम जमा मिलेगी। न्यायमूर्ति गोगोई समेत सर्वोच्च न्यायालय के अधिसंख्य न्यायमूर्ति आज की पैसे के पीछे भागने वाली दुनिया के लिए किसी फकीर से कम नहीं हैं क्योंकि उनका काम सत्ता में बैठे हुक्कामों से लेकर गांव के गरीब आदमी के साथ बराबर का न्याय करना होता है। यही वजह है कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश स्व. जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी का रायबरेली से चुनाव अवैध घोषित करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई थी और पूरे मामले को संविधान और कानून की तराजू पर रखकर निष्पक्ष भाव से तोला था।

मगर क्या सितम ढहाया जा रहा है कि आगामी सप्ताह श्री गोगोई की अदालत के सामने ही देश के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुकदमों पर सुनवाई होनी है जिनका सीधा सम्बन्ध भारत के लोकतन्त्र के भविष्य से हैं और उससे ठीक पहले उन्हीं पर एक ऐसी औरत आरोप लगा देती है जिसे रिश्वत लेने व अन्य फौजदारी जुर्मों की वजह से नौकरी से निकाला गया था। मगर श्री गोगोई ने इस मामले को भी इंसाफ की तराजू पर तोलने के लिए अपने ही दो साथियों न्यायमूर्ति अरुम मिश्रा व संजीव खन्ना को सौंपते हुए कहा कि इस पर आप फैसला कीजिये मगर मैं अपनी उस जिम्मेदारी को नहीं छोड़ूंगा जो इस देश ने मुझे दी है और सभी मुकदमों की सुनावई करुंगा। जो लोग मुझे धन के लोभ से विचलित नहीं कर सके उन्होंने ही यह तीर छोड़कर मुझे जख्मी करने का साजिश रची है। जरा सोचिये कि मुल्क के सबसे बड़े उस मुंसिफ की मानसिक स्थिति क्या होगी जिसने अपनी पूरी जिन्दगी पूरी तरह सादिक रहते हुए लोगों को न्याय देने मंे लगा दी हो लेकिन यह कोई छोटी-मोटी साजिश नहीं है इसके पीछे बड़ी ताकतों का हाथ है।

यह मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि खुद न्यायमूर्ति गोगोई ने ही भारी मन से कहा है। लोकतन्त्र में किसी अदालत के मुंसिफ और फौज के किसी अफसर का रुतबा अलग नहीं होता। एक सीमा पर तैनात रह कर बाहरी दुश्मनों से मुल्क की हिफाजत करके आम जनता को सुख चैन से रहने का वातावरण देता है तो दूसरा सीमाओं के भीतर तैनात होकर आम लोगों को समाज के दुश्मनों से महफूज रखता है। दोनों ही देश व समाज को सुरक्षा प्रदान करते हैं। मगर न्यायाधीशों की जिम्मेदारी यहीं तक सीमित नहीं रहती बल्कि उन्हें राजनैतिक दलों से लेकर उनकी सरकारों तक को संविधान की सीमा में रहते हुए काम करते देखना भी होता है और सुनिश्चित करना पड़ता है कि लोगों से कर वसूल कर देश का प्रशासन चलाने वाली सरकार का कोई भी मन्त्री या अफसर उससे अमानत में खयानत न करे जिसका संरक्षक उसे देश के लोगों ने बनाया है।

क्योंकि सरकार चाहे किसी भी राजनैतिक पार्टी की हो मगर हुकूमत उसे संविधान की ही लागू करनी पड़ती है। इसे तराजू पर रख कर तोलने का अधिकार सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय को ही संविधान ने दिया है जिसकी व्यवस्था बाबा साहेब अम्बेडकर इतनी कशीदाकारी के साथ करके गये थे कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को निर्देश देने का अधिकार राष्ट्रपति तक के पास नहीं है। वह भी उनसे किसी कानूनी नुक्ते या विषय पर राय भर ले सकते हैं और औहदा इतना ऊंचा करके गये थे कि राष्ट्रपति को उनके पद की शपथ मुख्य न्यायाधीश ही दिलायेंगे। इसलिए जरूरी है कि लोकतन्त्र के प्रमुख स्तम्भ ‘स्वतन्त्र न्यायपालिका’ के विरुद्ध रची जा रही साजिश को तार-तार किया जाये और इसके गुनहगारों को बेपर्दा किया जाये।

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