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न्यायपालिका का बुलन्द इकबाल

भारत की न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पूरे विश्व में बहुत ऊंचे पायदान पर रख कर इसलिए देखी जाती है क्योंकि न्याय करते समय इसकी नजर सिर्फ भारतीय संविधान के उन विभिन्न प्रावधानों पर रहती है

भारत की न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पूरे विश्व में बहुत ऊंचे पायदान पर रख कर इसलिए देखी जाती है क्योंकि न्याय करते समय इसकी नजर सिर्फ भारतीय संविधान के उन विभिन्न प्रावधानों पर रहती है जिसके तहत उसे इस देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत स्वतन्त्र और निष्पक्ष रहने का दर्जा इस तरह दिया गया है कि हर सूरत में हर मोर्चे पर केवल संविधान का शासन ही रहना चाहिए। बेशक भारत की शासन प्रणाली राजनैतिक आधार पर ही संसदीय प्रारूप में चलती है और संसद में बहुमत पाने वाली सियासी पार्टी का शासन ही कामय होता है मगर ‘राज सिर्फ संविधान’ का ही होता है। भारत की इस संवैधानिक खूबसूरती का लोहा दुनिया का हर देश मानता है और यहां की न्यायप्रणाली को कमोबेश आदर्श रूप में भी स्वीकार करता है। अतः भारत का उच्चतम या सर्वोच्च न्यायालय जब किसी जनहित या लोक मामलों से जुड़े मुकदमे में अपना फैसला सुनाता है तो उसकी प्रतिध्वनी समूची शासन व्यवस्था में सुनाई पड़ती है। केन्द्रीय गृह राज्यमन्त्री अजय कुमार मिश्रा ‘टेनी’ के पुत्र आशीष मिश्रा के विगत वर्ष 3 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी इलाके में अपने वाहन के नीचे चार किसानों को दबा कर मार देने के फौजदारी मुकदमे में जिस तरह इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने विगत फरवरी महीने में जमानत मंजूर की उसे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने रद्द करते हुए आदेश दिया कि उच्च न्यायालय को जमानत याचिका मंजूर किये जाने के विविध पक्षों पर बहुत गंभीरता के साथ सुनिश्चित कानूनों के तहत विचार करना चाहिए था और जमानत का विरोध करने वाले पीडि़त पक्ष के लोगों की तरफ से दायर दलीलों पर पूरी जिम्मेदारी के साथ विचार करना चाहिए था। जमानत मंजूर करने के लिए गवाहों के बूते पर बुने हुए भ्रमजाल के प्रभाव में आये बिना तथ्यों की रोशनी में उन सभी कारणों पर विचार किया जाना चाहिए था जो पीडि़तों की तरफ से रखे गये थे। अतः उच्च न्यायालय को जमानत याचिका पर ताजा तरीके से विचार करना चाहिए।
 सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमण, न्यायमूर्ति सूर्यकान्त व न्यायमूर्ति हिमा कोहली ने अपने संयुक्त आदेश में उच्च न्यायालय को निर्देश दिये कि वह जमानत याचिका पर पूरी तरह जायज व निष्पक्ष रहते हुए बिना किसी राग या द्वेष के नये तरीके से स्थापित न्यायिक मानकों के तहत विचार करे और पीडि़त पक्ष को भी समुचित रूप से सुने। यदि आशीष मिश्रा द्वारा लखीमपुर खीरी में पिछले वर्ष किये गये कांड को बारीकी से देखा जाये तो स्वतन्त्र भारत में यह ऐसा  कांड था जिसकी बर्बरियत की मिसाल आजाद भारत के इतिहास के लोकतान्त्रिक इतिहास में नहीं मिलती है। 3 अक्टूबर, 2021 को लखीमपुर खीरी में किसान विरोध-प्रदर्शन करके वापस आ रहे थे और उन पर आशीष मिश्रा ने अपना तेज रफ्तार वाहन चला कर चार किसानों व एक पत्रकार की हत्या कर दी थी और बाद में तीन व्यक्ति और मारे गये थे। जो वाहन इस कार्य में प्रयोग किया था वह आशीष के पिता गृहराज्यमन्त्री अजय कुमार मिश्रा के नाम पर चढ़ा हुआ था।  
इस घटना के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस हरकत में तो आयी मगर उसमें नाजायज रूप से ज्यादा वक्त लगा जिसकी भारी आलोचना भी हुई मगर यह भी सच है कि अन्ततः कानून ने अपना काम किया और सर्वोच्च न्यायालय के दखल देने के बाद ही आशीष मिश्रा को गिरफ्तार भी किया गया लेकिन इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आशीष मिश्रा की जमानत याचिका दाखिल की गई और उसे अक्टूबर महीने में उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया और आशीष मिश्रा को जमानत पर रिहा कर दिया। इससे भारत की जनता में यह सन्देश अनचाहे ही चला गया कि ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’।
वास्तव में परोक्षी रूप से यह सन्देश भारत की न्यायपालिका की ‘न्याय परकता’ पर ही सवाल उठाता लग रहा था और प्राकृतिक न्याय के उस सिद्धान्त के विरुद्ध भी था जिसमें ‘गुनहगार की नीयत’ ही किसी जुर्म को अंजाम देती है। सर्वोच्च न्यायालय ने आशीष मिश्रा के मामले में उसके मुतल्लिक विभिन्न पहलुओं पर जिस तरह वृहद दृष्टि डाली है उससे सिद्ध होता है कि भारत में न्याय पाने का अधिकार किसी किसान को भी उतना ही है जितना किसी जागीरदार को। हमारी न्यायपालिका का इतिहास सुनहरे हरफों से भरा पड़ा है, जिनमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 12 जून, 1975 का वह फैसला भी है जब देश की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी का रायबरेली सीट से लोकसभा चुनाव अवैध घोषित कर दिया गया था। यह इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश स्व. ‘आनन्द नारायण मुल्ला’ ही थे जिन्होंने पुलिस को लोगों की हिफाजत करने का जिम्मेदार बताया था और बहुत कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया था। भारत के सन्दर्भ में सबसे नायाब और अनूठी बात यह है कि यहां की न्यायपालिका ‘शासन’ का हिस्सा नहीं है बल्कि शासन को ‘संवैधानिक दायरों’ में बांधने का कारगर ‘तन्त्र’ है । इसी वजह से भारत के लोकतन्त्र में इसकी भूमिका संविधान का शासन देखने की है। ‘लोकमत’ या लोक आलोचना  से बहुत ऊपर रह कर यह संस्थान अपना काम करता है और ‘नीर-क्षीर-विवेक’ से हिन्दोस्तान के लोकतन्त्र का ‘इकबाल’ बुलन्द रखता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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