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क्षेत्रीय भाषा में न्याय ?

भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली के तीन प्रमुख स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका में से सर्वज्ञता में संविधान का शासन स्थापित करने की अन्तिम जिम्मेदारी न्यायपालिका पर ही इस तरह आती है

भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली के तीन प्रमुख स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका में से सर्वज्ञता में संविधान का शासन स्थापित करने की अन्तिम जिम्मेदारी न्यायपालिका पर ही इस तरह आती है कि वह सर्वोच्च संसद द्वारा बनाये गये कानूनों की भी न्यायिक समीक्षा करके बता सके कि संवैधानिक सीमाएं कहां तक हैं। बेशक संसद को किसी कानून में संशोधन करने का भी अधिकार है परन्तु संविधान के आधारभूत मूल मानकों के भीतर ही। इसके साथ ही भारत का संघीय ढांचा विभिन्न राज्यों के संगठन का समुच्य (राज्यों का संघ) जिस तरह परिभाषित है उसमें भी न्यायपालिका की भूमिका इस तरह निहित है कि प्रत्येक राज्य में भी केवल संविधान का शासन ही स्थापित रहे। यह दुष्कर कार्य हमारे संविधान निर्माता पुरखों ने जिस सरल तरीके से किया उसकी मिसाल दुनिया के किसी दूसरे लोकतान्त्रिक देश में नहीं मिलती। अतः यह कोई अजूबा नहीं है कि भारत के संसदीय लोकतन्त्र में आज भी सबसे ऊंची प्रतिष्ठा न्यायपालिका की ही है। इसका श्रेय भारत के संविधान को ही जाता है जिसकी प्रस्तावना में ही लिखा गया है कि ‘हम भारत के लोग’ इस संविधान को लागू करते हैं अर्थात हमारे एक वोट की ताकत पर चुनी गई बहुमत की सरकार सदैव इस संविधान का पालन करते हुए अपने दायित्व का निर्वाह करेगी। 
भारत की बहु-दलीय राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्था में यह उस संविधान का शासन है जिसे भारत के लोगों ने ही अपनी अन्तिम स्वीकृति दी है। अतः सामान्य व्यक्ति को अपनी भाषा में न्याय पाने का भी अधिकार है जिससे न्यायिक प्रणाली की उसकी समझ में इजाफा हो सके और वह कानूनी पेचीदगियों को आसानी से समझ भी सके। गत दिन राजधानी में राज्यों के मुख्यमन्त्रियों व उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इस आशय का विचार व्यक्त करते हुए कहा कि न्यायालयों में स्थानीय या क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जिसका स्वागत सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमण ने भी किया परन्तु साथ ही स्पष्ट भी किया कि यह कार्य झटके में नहीं किया जा सकता बल्कि धीरे-धीरे इस तरफ बढ़ने का समय आ गया है। न्यायमूर्ति रमण ने जिस तरफ देश का ध्यान खींचने का प्रयास किया वह हमारे लोकतन्त्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने इस बात पर हैरत जताई कि न्यायालयों द्वारा दिये गये फैसलों के अमल में सरकारें जानबूझ कर देर लगाती हैं जिससे न्यायपालिका पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। 
हमारी प्रणाली में कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका के कार्यक्षेत्रों के बीच एक सुविचारित लक्ष्मण रेखा है जिसका उल्लंघन किसी भी पक्ष को नहीं करना चाहिए। पिछले सात दशकों से राज्य के ये तीनों अंग जिस समन्वय से अपना-अपना काम करते आ रहे हैं उससे इस हमारे देश का लोकतन्त्र संरक्षित रहा है और इसे मजबूती मिली है। अतः तीनों ही अंगों को काम करते हुए अपने फैसले इस विवेक के साथ करने चाहिए कि अधिकारों की ‘लक्ष्मण रेखा’का उल्लंघन न होने पाये। न्यायपालिका प्रशासन के मामलों में कभी भी बीच में नहीं आयेगी बशर्ते यह कानून या संविधान के मुताबिक हो। आम जनता की भलाई और कल्याण के प्रति चिन्ता तीनों ही अंगों की साझा है। न्यायालयों में भारी संख्या में लम्बित पड़े मुकदमों की संख्या के बारे में भी प्रधान न्यायाधीश महोदय ने जो खाका खींचा वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यदि कार्यपालिका अपने कार्य को पूरे न्यायपूर्ण तरीके से अपने स्तर पर ही निपटाये तो न्यायालयों में मुकदमों के अम्बार ही न लगें। इस सन्दर्भ में उन्होंने जो उदाहरण पेश किये वे 140 करोड़ जनसंख्या वाले भारत की जमीनी हकीकत खुद-ब-खुद बयान करते हैं। श्री रमण ने कहा कि आम किसान कभी अदालत का दरवाजा नहीं खटखटायेगा। यदि तहसीलदार उसकी जमीन या राशनकार्ड से जुड़ी शिकायतों का न्यायपूर्ण हल करे। इसी प्रकार कोई नागरिक कभी अदालत जाना पसन्द नहीं करेगा यदि नगर पालिकाएं या ग्राम पंचायतें अपना कार्य निष्पक्षता के साथ करें इसी प्रकार जमीनी झगड़े या भूमि विवाद भी अदालतों में नहीं घूमेंगे यदि राजस्व विभाग जमीन अधिग्रहित करते हुए निश्चित कानूनों व नियमों का पालन करें। 
अदालतों में सबसे ज्यादा भूमि विवाद के मुकदमे ही होते हैं जो कुल विवादों के 66 प्रतिशत के लगभग आंके गये हैं। न्यायमूर्ति रमण ने इस बात पर भी आश्चर्य व्यक्त किया कि सरकार के विभिन्न विभागों के झगड़े भी न्यायालय में आ जाते हैं और वहीं से उनका फैसला होता है। इसी प्रकार सार्वजनिक कम्पनियों व सरकार के बीच के झगड़े भी न्यायालय में पहुंच जाते हैं। यह तो एक तथ्य शुरू से ही रहा है कि भारत में सबसे ज्यादा मुकदमे खुद सरकार के ही होते हैं। अब इनकी संख्या 50 प्रतिशत के करीब है। इस नजरिये से अगर हम देखें तो भारत की न्यायपालिका बहुत ही तंग हाली में अपनी अहम भूमिका निभा रही है अतः इसके आधारभूत ढांचे का विस्तार किया जाना भी वक्त की जरूरत लगता है। 
इस तरफ भी श्री रमण ने देश का ध्यान आकृष्ट कराया परन्तु यह कार्य काफी पेचीदगियों भरा है। इसमें राज्य सरकारों का योगदान बहुत मायने रखता है क्योंकि प्रादेशिक स्तर पर उच्च न्यायालय से निचले स्तर की अदालतों का ढांचा गत कामकाज देखने की जिम्मेदारी उन्हीं की होती है। अतः राष्ट्रीय स्तर पर न्यायिक ढांचा गत प्राधिकरण गठित करने की योजना को केन्द्र ने मंजूरी नहीं दी है मगर राज्य स्तर पर एेसी परियोजनाएं बनाने के लिए सहमति है। यह काम राज्य सरकारें अपने-अपने उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की सलाह व सहभागिता से कर सकेंगी। वास्तव में मुख्य न्यायाधीश ने बहुत पहले भी राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय प्राधिकरण बनाने का सुझाव दिया था परन्तु गत दिन हुए सम्मेलन में भी इस पर सहमति नहीं बन पाई हालांकि राज्य स्तर पर इसे लागू करने पर सहमति थी। 

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