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न्यायप्रणाली से न्याय की गुहार!

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आजादी के बाद यह पहला मौका है जब सामान्य संवैधानिक ढांचे के तहत चल रहे भारत में लोकतन्त्र के लिए भारी खतरा मुंह बाये खड़ा हुआ है क्योंकि इमरजेंसी के दौरान लोकतन्त्र को खतरा संवैधानिक व्यवस्था को मुल्तवी करके ही पैदा हुआ था। एेसी परिस्थिति इससे पहले कभी नहीं बनी कि देश के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग चलाकर उन्हें पद से हटाने के लिए संसद में संकल्प पेश करने की दरख्वास्त दी जाये। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा पर संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के तहत जिन 71 राज्यसभा सदस्यों (प्रभावी तौर पर 64 सदस्यों) ने महाभियोग चलाने हेतु इस सदन के सभापति श्री वेंकैया नायडू को अपना संकल्प प्रपत्र दिया है उसमें उन पर अपने पद की गरिमा और मर्यादा के विपरीत दुर्व्यवहार या दुराचरण ( मिस बिहेवियर) करने का आरोप लगाया है और इसके पक्ष में पांच मामलों को गिनाया गया है (महाभियोग चलाने के ​लिए 50 राज्यसभा सदस्यों का संकल्प ही काफी होता है)। पांच में से एक वह मामला भी है जिसमें एक वकील की हैसियत में काम करते हुए श्री मिश्रा ने जमीन का एक टुकड़ा एेसा ‘शपथ पत्र’ देकर हासिल किया था जिसे 1985 में सम्बन्धित सहायक जिलाधीश ने ‘गलत’ करार दे दिया था मगर जमीन का टुकड़ा श्री मिश्रा ने 2012 में तब सुपुर्द किया जब वह सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बन गये। हालांकि आरोपों की गंभीरता तब सभी सीमाएं तोड़ देती है जब उनके मुख्य न्यायाधीश रहते इसी साल की 12 जनवरी को उन्हीं की सदारत में चलने वाले न्यायालय में पदस्थ चार न्यायमूर्ति न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार प्रेस कान्फ्रेंस करके कहते हैं कि मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय न्यायिक प्रशासन के स्थापित मानदंडों को तोड़ रहा है जिससे समूची न्यायप्रणाली पर आघात हो रहा है और देश का लोकतन्त्र खतरे में पड़ता नजर आ रहा है?

यह संयोग नहीं है कि इसके बाद भी दो न्यायमूर्तियों ने चेतावनी दी कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता पर निजी आग्रह प्रभावी हो रहे हैं। निश्चित रूप से यह नितान्त चिन्तनीय विषय है जिसका सम्बन्ध भारत के भविष्य से सीधे जुड़ा हुआ है। अतः इस परिस्थिति को बदलने के लिए संविधान के अनुसार जो एकमात्र रास्ता निकलता है वह महाभियोग ही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 124 के तहत जब सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की तो इसे निरंकुशता से बचाने के भी पुख्ता इंतजाम किये और इस अनुच्छेद के अनुभाग चार और पांच यही काम करते हैं। न्यायाधीशों के दुराचरण और अक्षमता (इनकेपेसिटी) के प्रकट होने पर भारत के लोगों द्वारा चुनी गई संसद के सदस्यों को यह अधिकार दिया गया कि वे इसके आधार पर दोनों सदनों में प्रस्ताव पारित करके राष्ट्रपति से उन्हें पद मुक्त करने को कह सकते हैं। अतः हमारे संविधान निर्माताओं विशेषकर बाबा साहेब अम्बेडकर की दूरदर्शिता का अन्दाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि भारत में सर्वोच्च अधिकार अन्ततः आम जनता के हाथ में ही रहेंगे जिससे ‘उनकी’ चुनी हुई सरकार ‘उनकी’ अपनी सरकार हो और ‘उनके’ लिये हो। बाबा साहेब ने इस सरकार के चार प्रमुख संवैधानिक खम्भे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व चुनाव आयोग बताये। इन्हीं चार खम्भों पर भारत का लोकतन्त्र भारत के लोगों द्वारा चलाया जायेगा। बाद में डा. लोहिया ने ‘स्वतन्त्र प्रेस’ को चौथा खम्भा कहा क्योंकि तब चुनाव आयोग पांच वर्ष में एक बार ही क्रियाशील हुआ करता था।

और हकीकत भी यही है क्योंकि चुनाव आयोग ही समूची प्रणाली की निष्पक्ष व निर्भय आधारशिला रखकर बाकी तीनों खम्भों को अपना-अपना काम करने की संविधानगत व्यवस्था करता है। प्रेस इन सभी खम्भों की चौकसी करती है जिसमें चुनाव आयोग भी आता है परन्तु आश्चर्य की बात है कि मुख्य न्यायाधीश श्री मिश्रा ने महाभियोग चलाने के सांसदों के फैसले के बाद भारत के महाधिवक्ता से यह राय मांगी कि क्या प्रेस को इस मामले का ब्यौरा दैनन्दिन आधार पर छापने या दिखाने की इजाजत मिलनी चाहिए? यह स्वयं में बहुत ही विस्मयकारी है क्योंकि हमारी न्यायपालिका कोई भी कार्य बन्द कमरे के भीतर नहीं करती है और मीडिया को हर मामले से बाखबर रखती है। 90 के दशक में न्यायमूर्ति रामास्वामी पर लोकसभा के सांसदों ने महाभियोग चलाने की कार्रवाई शुरू की थी मगर इसके पूरा होने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। तब मीडिया ने इसका हर कोण से ब्याैरा छापा था। हमारे संविधान निर्माताओं ने सत्ता के किसी भी अंग पर बैठे बड़े से बड़े औहदेदार को अपने पद के रुआब और ताब में छुपने की इजाजत नहीं दी है। सारे अख्तियार संसद को दिये हैं। यहां तक कि संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के विरुद्ध भी संसद में महाभियोग चलाया जा सकता है अतः पद के पर्दे में गलत व्यवहार या आचरण की छूट भारत का संविधान किसी को नहीं देता है और न्यायपालिका तो इस मामले में अग्रणी रही है जिससे पूरी दुनिया को यह सन्देश जाये कि गांधी बाबा ने जिस दलित पुत्र डा. अम्बेडकर से यहां का संविधान लिखवाया था उसने ‘राजा से लेकर रंक’ तक को कानून की तराजू पर तोलने में कहीं कोई गफलत नहीं की। हमने जिस ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली अपनाई है उसका उच्च सदन ‘हाऊस आफ लार्ड्स’ ही 2010 तक वहां सर्वोच्च न्यायालय का काम करता था मगर बाबा साहेब ने तो हमें शुरू में ही सर्वोच्च न्यायालय देकर तय किया कि संसद के बनाये गये कानून की जांच भी संविधान की कसौटी पर होगी और यह काम सर्वोच्च न्यायालय ही करेगा। हमारे देश की न्याय व्यवस्था ने 1975 में प्रधानमन्त्री तक की गलत कार्रवाई को अवैध घोषित करने में कोताही नहीं बरती।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश स्व. जगमोहन लाल सिन्हा ने तब स्व. इन्दिरा गांधी के खिलाफ फैसला सुनाकर साबित किया था कि भारत में कोई ‘व्यक्ति विशेष’ नहीं बल्कि ‘कानून’ ही राज करता है। आज उसके सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर ही यदि शक की अंगुली उठने लगे तो हम किस मुंह से कह सकते हैं कि भारत एेसा देश है जहां कानून का राज चलता है? सरकार बेशक किसी भी राजनीतिक दल की हो मगर हुक्म वही आयेगा जिसकी इजाजत कानून देता हो। क्योंकि यह संविधान या कानून ही है जो सत्ता के हर संस्थान को अधिकार देता है। इन सभी संस्थानों के प्रमुख पदों पर बैठे व्यक्तियों को संविधान का निर्देश ही मानना होगा। भारत के लोकतन्त्र को निर्भय रखने में न्यायपालिका की भूमिका सर्वोच्च इसलिए रही है कि इसका दलगत राजनीति से किसी प्रकार का लेना-देना नहीं रहता जिसकी वजह से हर शक्तिशाली से शक्तिशाली राजनीतिक दल इसके अहाते में घुसते ही ‘यात्री’ बन जाता है। कहने का मतलब यह है कि भारत का मुख्य न्यायाधीश ‘विक्रमादित्य’ का वह अवतार होता है जो अपने सिंहासन पर बैठते ही संविधान की रूह में समा जाता है और अपनी हस्ती को उसके ‘हरफो’ में ही मिटा देता है इसीलिए तो न्यायमूर्ति के अलावा उसके लिए कोई दूसरा शब्द उपयुक्त नहीं बैठता है। यह बेवजह नहीं है कि भारत की न्यायप्रणाली की साख पूरे विश्व में एेसे ऊंचे पायदान पर रखकर देखी जाती है कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में भी इसके न्यायविदों पर दूसरे न्यायाधीश गर्व करते हैं। इस व्यवस्था को हम किसी भी सूरत में बदसूरत होते नहीं देख सकते।

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