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ज्योतिरादित्य का नया स्वरूप

दिसम्बर 1960 में जब कांग्रेस पार्टी के भीतर रहे महाविद्वान भाषा शास्त्री डा. रघुवीर ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दिया तो 1961 के शुरू में ही भारतीय जनसंघ की सदस्यता ग्रहण कर ली। जनसंघ उन जैसे विद्वान को अपने बीच में पाकर धन्य हो गया और उन्हें अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने में भी उसने देर नहीं की।

राजनीति भी अजब शह है। अक्सर वही लोग पाले बदलते देखे गये हैं जो दीवार पर खड़े होकर सामने वाले पाले की कटु आलोचना करने में मशगूल रहते हैं। पिछली लोकसभा में ज्योतिरादित्य सिन्धिया कांग्रेस के ऐसे  रहनुमा थे जो राहुल गांधी की बगल में बैठ कर भाजपा सरकार पर हमला करने के नुस्खे बताया करते थे। उनका आज भाजपा में आना बताता है कि उनके सब्र का वह प्याला भर चुका था जो किसी भी राजनीतिज्ञ की महत्वाकांक्षाओं से लबरेज रहता है। परन्तु  राजनीतिक दल मूलक लोकतन्त्र की सियासत में यह नाजायज काम नहीं होता है। दिसम्बर 1960 में जब कांग्रेस पार्टी के भीतर रहे महाविद्वान भाषा शास्त्री डा. रघुवीर ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दिया तो 1961 के शुरू में ही भारतीय जनसंघ की सदस्यता ग्रहण कर ली। जनसंघ उन जैसे विद्वान को अपने बीच में पाकर धन्य हो गया और उन्हें अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने में भी उसने देर नहीं की।
डा. रघुवीर को कांग्रेस पार्टी ने ही संविधान सभा का सदस्य बनाया था और बाद में दो बार राज्यसभा का सदस्य भी बनाया था परन्तु चीन के मुद्दे पर उनके कांग्रेस से मतभेद हो गये थे। उससे पहले वह 1956 में चीन की यात्रा करके आये थे और उन्होंने वहां से आने के बाद जो विचार व्यक्त किये थे वे अन्ततः 1962 में सही सिद्ध हो गये थे। डा. रघुवीर ने कहा था कि आज का चीन भारत का ऐतिहासिक सांस्कृतिक मित्र नहीं हैं बल्कि एक विस्तारवादी देश है। भारत को बौद्ध सांस्कृतिक समरूपता वाले देशों के साथ मिल कर राष्ट्रवादी दृष्टि से अपनी विदेश नीति बनानी चाहिए। पं. नेहरू से उनके मतभेद जग-जाहिर हुए और उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर जनसंघ का पल्ला थाम लिया, परन्तु 1963 में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद जनसंघ उनकी विरासत से कोई लाभ नहीं उठा सकी और 1967 में उसे गऊ माता के भरोसे उत्तर भारत के राज्यों में लोकसभा की 32 के लगभग सीटें प्राप्त हुईं। 
डा. रघुवीर ने कांग्रेस में रहते हुए ही 1950-51 में जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की नीतियों का विरोध किया था और जम्मू क्षेत्र का दौरा करने के बाद जम्मू-प्रजा परिषद द्वारा चलाये जा रहे शेख विरोधी आन्दोलन की हिमायत की थी। बाद में यही आन्दोलन जनसंघ के जन्मदाता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कश्मीर अभियान का आधार बना।  सिन्धिया का कद निश्चित रूप से डा. रघुवीर के आसपास तक का नहीं है मगर राजनीतिक वजन उनके ग्वालियर के पूर्व नरेश होने की वजह से भारी इसलिए हैं कि भारत के स्वतन्त्र होने के बाद उनके पुरखों ने जिस पार्टी का भी हाथ थामा उसी का सितारा चमक गया। 
1956 में राज्यों का पुनर्गठन होने तक आज के मध्यप्रदेश में कई राज्य जैसे मध्य, भारत, विन्ध्य प्रदेश व भोपाल होते थे। 1952 में आजाद भारत के पहले चुनावों में इन तीनों विधानसभाओं के चुनाव हुए थे। मध्य भारत कमोबेश ज्योतिरादित्य सिन्धिया के पुरखों की ग्वालियर रियासत का ही हिस्सा था जिसके राजप्रमुख उनके दादा जीवाजी राव सिन्धिया थे। राज्य में उनका वरद हस्त हिन्दू महासभा व राम राज्य परिषद जैसी पार्टियों पर रहता था। इस 99 सदस्यीय विधानसभा में तब कांग्रेस को 75, हिन्दू सभा को 11 भारतीय जनसंघ को चार और रामराज्य परिषद को दो सीटें मिली थीं। परन्तु 1961 में जीवाजी राव सिन्धिया की मृत्यु होने से पहले ही उनकी पत्नी जिन्हें बाद में राजमाता विजयराजे सिन्धिया के नाम से जाना गया, कांग्रेस के टिकट पर ही ग्वालियर संभाग की गुना सीट से लोकसभा पहुंची। 1962 का चुनाव भी वह कांग्रेस के टिकट पर ग्वालियर से लड़ीं, परन्तु इसके बाद उन्होंने 1967 के चुनाव से पहले चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतन्त्र पार्टी का दामन पकड़ा और चुनाव जीता। स्वतन्त्र पार्टी तब तक सभी पूर्व राजे-रजवाड़ों की पसन्दीदा पार्टी बन चुकी थी, परन्तु सांसद बन जाने के बावजूद उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा देकर जनसंघ की सदस्यता ली और वह मध्यप्रदेश की प्रान्तीय राजनीति में सक्रिय हो गईं।
राज्य में जनसंघ के पैर राजमाता ने इस तरह जमाये कि 1971 के चुनावों में इन्दिरा गांधी के चले तूफान को उन्होंने मध्यभारत इलाके में थाम कर इस अंचल की तीन लोकसभा सीटें जीती और जीतने वालों में स्वयं राजमाता के अलावा स्व. अटल बिहारी वाजपेयी और ज्योतिरादित्य के पिताश्री स्व. माधव राव सिन्धिया भी थे।  इन चुनावों में राजमाता की चुनाव प्रचार की वह ‘वातानुकूलित विशेष बस’ भी चर्चा का विषय बनी थी जिसमें सभी प्रकार की सुविधाएं थीं। राजमाता का जनसंघ का सफर 1967 के बाद से ही शुरू हुआ था। मगर इस पार्टी के विस्तार में इस पूर्व राजवंश की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही। इमरजेंसी के बाद बदले हालात में माधव राव सिन्धिया एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीते जबकि राजमाता जनता पार्टी में थीं।
1979 में माधवराव कांग्रेस में शामिल हुए और 1980 में राजमाता ने रायबरेली से इन्दिरा जी के खिलाफ चुनाव लड़ा, परन्तु 1980 में जनसंघ का भाजपा में रूपान्तरण होने के बाद राजमाता इस पार्टी की उपाध्यक्ष बनाई गईं। परन्तु राजमाता की दोनों पुत्रियों ने इसके बाद भाजपा का दामन थामा और वाजपेयी सरकार के केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के बाद उनकी ज्येष्ठ पुत्री वसुन्धरा राजे पहले लोकसभा में आकर केन्द्र में मंत्री बनीं और बाद में लालकृष्ण अडवानी के आशीर्वाद से 2003 में राजस्थान की मुख्यमन्त्री बनाई गईं। उनकी छोटी बहन यशोधरा राजे मध्य प्रदेश की पिछली भाजपा शिवराज सिंह सरकार में मन्त्री थीं। वसुन्धरा राजे के पुत्र दुष्यन्त सिंह भी अब भाजपा से  लोकसभा के सदस्य हैं। राजमाता के भाई ध्यानेन्द्र सिंह की पत्नी मायासिंह भी भाजपा में हैं और मध्य प्रदेश की मंत्री रहने के साथ ही राज्यसभा की सदस्य भी रह चुकी हैं। अतः ज्योतिरादित्य सिन्धिया भाजपा में आकर अपने विस्तृत परिवार में ही आ रहे हैं मगर भाजपा के खिलाफ यह तथ्य जा सकता है क्योंकि यह पार्टी परिवारवाद को लेकर कांग्रेस पर निशाना साधती रहती है, परन्तु सियासत में इसे भी नाजायज नहीं कहा जा सकता।
जहां तक मध्यप्रदेश की राजनीति में ज्योतिरादित्य के सक्रिय होने का सवाल है तो वह भविष्य ही बता पायेगा कि कमलनाथ जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ के रहते इस झटके का क्या हश्र होगा। वैसे यह तो मानना पड़ेगा कि कांग्रेस में रहते हुए ही सिंधिया को दो बार मन्त्री पद मिला और संगठन में भी उन्हें  रुतबा दिया गया। लोकतन्त्र में सिद्धान्त भक्ति चलनी चाहिए न कि स्वामी भक्ति। इसकी तरफ संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने 26 नवम्बर,1949 को देश को संविधान देते हुए ही चेतावनी दे दी थी और कहा था कि लोकतन्त्र में भक्तिभाव की कोई जगह नहीं हो सकती। ऐसा होने पर राजतन्त्र की दास प्रवृत्ति नागरिकों को अपने अधिकारों  से वंचित रखेगी। मगर श्री सिन्धिया के साथ कांग्रेस से जाने वाली एक विधायक का यह कहना कि अगर श्रीमन्त सिन्धिया उनसे कुएं में कूदने को भी कहेंगे तो वह कूद जायेंगी, बताता है कि राजनीति किस स्तर तक बदल चुकी है।
 दूसरी तरफ कांग्रेस को भी सोचने की जरूरत है कि उसके वफादार समझे जाने वाले लोगों में सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा का जज्बा क्यों मर रहा है। लोकतन्त्र में जब भी सार्थक विद्रोह होता है तो सिद्धान्तों को लेकर ही होता है जैसा कि 1967 में चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से ही  किया था। लेकिन राज्यसभा की सदस्यता के लिए इतना बड़ा महाभारत होना राजनीति के हक में नहीं है।

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