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कमलनाथ : बहुत कठिन है डगर पनघट की…

क्या इसका नतीजा यह निकाला जा सकता है कि मध्यप्रदेश में सियासी नाटक केवल राज्यसभा चुनावों तक सीमित रहेगा जिसमें कांग्रेस से विद्रोह करके भाजपा का दामन थामने वाले ज्योतिरादित्य सिन्धिया की सीट पक्की हो सके?

मध्य प्रदेश में मुख्यमन्त्री कमलनाथ की मुश्किलें ‘पनघट की डगर’ की मानिन्द होती जा रही हैं जो बहुत कठिन कहलाई जाती है मगर दूसरी तरफ विधानसभा की सदस्यता से कथित इस्तीफा देने वाले 19 कांग्रेसी विधायकों की स्थिति भी हास्यास्पद हो गई है क्योंकि ये अपने इस्तीफे बेंगलुरू में बैठ कर एक भाजपा नेता के हाथों विधानसभा अध्यक्ष को भिजवा रहे हैं। क्या इसका नतीजा यह निकाला जा सकता है कि मध्यप्रदेश में सियासी नाटक केवल राज्यसभा चुनावों तक सीमित रहेगा जिसमें कांग्रेस से विद्रोह करके भाजपा का दामन थामने वाले ज्योतिरादित्य सिन्धिया की सीट पक्की हो सके?
यह निष्कर्ष तब निकलेगा जब विद्रोही कांग्रेसी विधायक भोपाल आकर अपने इस्तीफों पर अगर-मगर करने लगें। दिलचस्प हकीकत यह है कि भाजपा भी इससे नावाकिफ नहीं है कि इस्तीफे तभी माने जायेंगे जब एक-एक विधायक विधानसभा अध्यक्ष एन.पी.  प्रजापति को भौतिक रूप से अपना त्यागपत्र दे और उन्हें सन्तुष्ट करे कि उसने यह कार्य बिना किसी लालच या दबाव में आये बिना स्वेच्छा से किया है। अध्य़क्ष के पास इस सन्दर्भ में जो अधिकार हैं वे कर्नाटक में ऐसी ही स्थितियों में दिये गये उच्चतम न्यायालय के  फैसले की रोशनी में देखे जाएंगे। 
इस फैसले में अध्यक्ष के केवल उस अधिकार को ही सीमित किया गया था जिसमें वह किसी विधायक के पुनः चुनाव लड़ने की शर्त निर्धारित करते हैं वरना किसी सदस्य के इस्तीफे पर वह कब अन्तिम फैसला करते हैं यह उनका विशेषाधिकार रहेगा। इस्तीफा मंजूरी के लिए उनका सन्तुष्ट होना ही आवश्यक होगा। पूरे मामले में यह मुद्दा अध्यक्ष को प्राप्त न्यायिक अधिकारों के दायरे में रहेगा कि विद्रोही कांग्रेसी विधायकों ने अपने इस्तीफे किसी दूसरी पार्टी  के नेता के माध्यम से उन तक क्यों पहुंचाये?  विधानसभा की संरचना को देखते हुए भाजपा (107) व कांग्रेस (115) के विधायकों की संख्या में केवल आठ का अन्तर है। वर्तमान 228 सदस्यीय सदन में बहुमत के समीकरण को बदलने में इस्तीफा देने वाले सदस्यों की अनुपस्थिति कमलनाथ सरकार को अल्पमत में बैठा देगी। कमलनाथ सरकार को फिलहाल सात ऐसे विधायकों का समर्थन भी प्राप्त है जो छोटे दलों से हैं अथवा निर्दलीय हैं। 
इस्तीफा मंजूर होने की सूरत में सदन की सदस्य संख्या घट जाने पर भाजपा बहुमत में आ जायेगी, परन्तु प्रश्न यह है कि मध्य प्रदेश का राजनीतिक चरित्र क्या कर्नाटक जैसा है? इसके साथ ही राज्य की  राजनीति में क्या ज्योतिरादित्य सिन्धिया का कद अपनी दादी राजमाता विजयराजे सिन्धिया जैसा है? राजमाता ने तो 1971 में इदिरा गांधी की आंधी को मध्य भारत में दीपक जला कर रोक दिया था (उस समय जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था) जबकि ज्योतिरादित्य तो मई 2019 की मोदी की आंधी में तिनके की तरह उड़ गये! सिन्धिया तो पिछला लोकसभा चुनाव अपनी ही पूर्व रियासत की एक लोकसभा सीट से हार गये थे।
 इससे पहले हुए विधानसभा चुनावों में भी वह अपने क्षेत्र से एक तिहाई कांग्रेसी प्रत्याशियों को ही जिता सके थे। क्या यह अजूबा नहीं है कि कथित इस्तीफा देने वाले किसी भी विधायक ने अभी तक भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने की इच्छा नहीं जताई है?  सिन्धिया भूल रहे हैं कि नवम्बर 2018 में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 15 वर्ष बाद बढ़त मिली थी। अतः इन चुनावों में जीते कांग्रेसी प्रत्याशी भाजपा में जाने से पहले सौ बार सोचेंगे, किन्तु यह असंभव भी नहीं है और यही तथ्य श्री कमलनाथ की राह को ‘पनघट की कठिन डगर’ बनाता है। उनके लिए सुकून की बात बस इतनी सी है कि अभी तक किसी भी विधायक ने कानूनी तौर पर नियमानुसार अपना इस्तीफा नहीं दिया है और जब तक इस्तीफों पर अंतिम निर्णय नहीं हो जाता तब तक 16 मार्च से शुरू हो रहे विधानसभा के बजट सत्र में शक्ति परीक्षण नहीं हो सकता। वैसे इस सत्र में राज्यपाल के अभिभाषण  पर रखे गये धन्यवाद प्रस्ताव पर उस सूरत में मतदान हो सकता है जबकि भाजपा को अपनी शक्ति में इजाफा होने का यकीन हो मगर यह भी इस तथ्य पर निर्भर करता है कि इस्तीफा देने वाले विधायकों की हैसियत उस समय क्या रहती है।
यह पौड़ी पार हो गई तो इसके बाद बजट पर मतदान होगा और शक्ति परीक्षण हो जायेगा मगर सब कुछ विवादास्पद विधायकों की हैसियत पर ही निर्भर करेगा।  इसके साथ ही राज्यपाल की भूमिका विधानसभा सत्र शुरू होते ही सीमित हो जायेगी और जो कुछ भी होगा वह विधानसभा के भीतर ही होगा। वैसे कमलनाथ ने एक दांव मार दिया है। उन्होंने उन कथित विद्रोही विधायकों से मन्त्री पद छीन लिया है जो बेंगलुरू में अन्य विधायकों के साथ बैठे हैं। विद्रोही विधायकों में ही फूट पैदा करने का उनका यह तरीका किस तरह कारगर हो सकता है, इसका पता तो आने वाले वक्त में ही चलेगा। फिलहाल तो माननीय कमलनाथ जी फंसे हुए लगते हैं मगर उम्मीद यह है कि अध्यक्ष प्रजापति ने जिन छह विधायकों को शुक्रवार को हाजिर होने के लिए बुलाया था, उन्होंने आना ही गंवारा नहीं किया। यह भी उलट-पुलट का संकेत है। अतः 
बहुत कठिन है डगर पनघट की 
कैसे मैं भर लाऊं यमुना से मटकी 
मैं दधि बेचन जात वृन्दावन 
लपक-झपक-पटकी मटकी  
अनत देश की अलम गुजरिया 
भूलि फिरै भटकी-भटकी  
बहुत कठिन है डगर पनघट की…

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