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हैदराबाद में कमल का ‘भाग्य’

हैदराबाद महापालिका चुनाव परिणामों में इस बार जिस तरह राजनीतिक दलों का समीकरण सामने आया है उसमें राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के वर्चस्व को भारतीय जनता पार्टी चुनौती देती नजर आ रही है।

हैदराबाद महापालिका चुनाव परिणामों में  इस बार जिस तरह राजनीतिक दलों का समीकरण सामने आया है उसमें राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के वर्चस्व को भारतीय जनता पार्टी चुनौती देती नजर आ रही है। हालांकि ये चुनाव नगर निकाय स्तर के ही हैं मगर दक्षिण भारत का मुंहाना समझे जाने वाले इस शहर में भाजपा ने जोरदार दस्तक देकर यह सिद्ध कर दिया है कि अब उसे केवल उत्तर भारत की हिन्दी भाषी पार्टी कह कर सीमित नहीं किया जा सकता है। वैसे हैदराबाद दक्षिण में हिन्दी प्रचारिणी सभा का मुख्यालय आजादी के समय से ही रह चुका है और इस शहर की बोलचाल की भाषा को ‘दख्खिनी हिन्दी’ का गौरव प्राप्त है। महानगरों की संस्कृति में इनके नगर निकायों का विशेष महत्व होता है क्योंकि इन पर किसी भी शहर को स्वच्छ रखने से लेकर आधुनिक सुविधाओं से लैस करने की जिम्मेदारी रहती है। इसमें बिजली, पानी से लेकर सड़क व आवास सुविधाएं आती हैं।
गौर से देखा जाये तो महानगरों की सबसे बड़ी समस्या आवास की समस्या होती है क्योंकि रोजी-रोटी की तलाश में इनकी तरफ बड़ी संख्या में सुदूर इलाकों से लोग पलायन करके आते हैं। अल्प आय वर्ग के इन लोगों के लिए सामुदायिक सुविधाओं से लेकर आवास तक की सुविधाएं उपलब्ध कराना किसी भी महापालिका के लिए एक चुनौती से कम नहीं होता। इसके साथ ही इन महापालिकाओं का बजट भी अच्छा-खासा होता है जिसकी वजह से इनमें भ्रष्टाचार भी एक बड़ी समस्या बना रहता है, परन्तु इन महापालिकाओं में प्रशासन संभालने वाले राजनीतिक प्रतिनिधियों की पहचान का असर उनके प्रदेश की राजनीति पर भी पड़ता है। इसी वजह से तेलंगाना विधानसभा में बहुमत प्राप्त तेलंगाना राष्ट्रीय समिति को अब सावधान हो जाना चाहिए कि प्रदेश स्तर पर उसे चुनौती देने की तैयारी में भाजपा आगे बढ़ सकती है और वह कांग्रेस का स्थान ले सकती है क्योंकि दक्षिण भारत कांग्रेस पार्टी का परंपरागत रूप से गढ़ माना जाता रहा था। यहां तक कि जब 1977 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमन्त्री पद पर रहते हुए चुनाव हार गई थीं तो 1980 में हुए लोकसभा चुनावों में वह तेलंगाना की मेडक सीट से भी रायबरेली के साथ चुनाव लड़ी थीं।  इसी प्रकार श्रीमती सोनिया गांधी ने भी जब लाभ के पद के मुद्दे पर लोकसभा से त्याग पत्र दे दिया था तो उन्होंने भी रायबरेली के साथ कर्नाटक की बेल्लारी सीट से चुनाव लड़ा था और जीता भी था, परन्तु भाजपा ने जहां कर्नाटक को पहले ही जीत रखा है वहीं अब इसने तेलंगाना को भी जीतने का इरादा हैदराबाद चुनावों के माध्यम से व्यक्त कर डाला है। इसके साथ यह भी सत्य है कि भाजपा या जनसंघ का प्रभाव उत्तर भारत में भी शहरी निकायों के चुनावों में प्राप्त विजय के आधार पर ही फैला है। चाहे उत्तर प्रदेश हो या मध्य प्रदेश, इन दोनों ही राज्यों में जनसंघ ने पहले नगरपालिकाओं के चुनावों में कब्जा करके ही राज्य विधानसभाओं में पंख फैलाये। अतः नगर निकायों के चुनावों की महत्ता को राजनीतिक दृष्टि से कम करके आंकने की गलती नहीं की जानी चाहिए मगर दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष मुख्यमन्त्री के. चन्द्रशेखर राव ने 2004 के लोकसभा व संयुक्त आन्ध्र विधानसभा के चुनाव कांग्रेस पार्टी के साथ गठबन्धन बना कर ही लड़े थे। उन चुनावों में पृथक तेलंगाना राज्य बनाने का वादा चुनावी घोषणापत्र में शामिल था परन्तु इस राज्य का निर्माण 2014 में ही केन्द्र में कांग्रेस सरकार के अंतिम दिनों में हुआ और इसके बाद इस पार्टी का नवगठित राज्य में पतन शुरू हो गया। 
वास्तव में भाजपा कांग्रेस द्वारा छोड़े गये इस खाली स्थान को ही भरने की फिराक में लगती है और उसने इसकी शुरूआत राजधानी हैदराबाद से की है। इस शहर में असदुद्दीन ओवैसी की इत्तेहादे मुसलमीन पार्टी का भी खासा दबदबा रहा है और यहां की लोकसभा सीट इसके कब्जे में पिछले कई चुनावों से चली आ रही है। हालांकि श्री ओवैसी की पार्टी ने महापालिका की कुल 150 सीटों में से केवल 51 सीटों पर ही चुनाव लड़ा था मगर उनके प्रत्याशियों का विजय अनुपात सर्वश्रेष्ठ रहा है।  जबकि कांग्रेस ने 146 स्थानों पर चुनाव लड़ा था और उसके विजयी प्रत्याशियों का अनुपात सबसे कम रहा है। तेलंगाना राष्ट्रीय समिति व भाजपा ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ा था मगर भाजपा ने राष्ट्रीय समिति के गढ़ में सेन्ध लगा कर सिद्ध कर दिया है कि उसके हौंसले उड़ान पर हैं।
पिछले 2016 के चुनावों में राष्ट्रीय समिति को 99 स्थान मिले थे। इनमें जो कमी आयी है वह भाजपा के खाते में ही जमा हुई है क्योंकि इत्तेहादे मुसलमीन की सीटें पिछली बार भी 44 थीं और इस बार भी इसी के आसपास हैं। कुछ राजनीतिक विश्लेषक इन चुनावों को ध्रुवीकरण का प्रताप भी मान रहे हैं और कह रहे हैं कि यह इत्तेहादे मुसलमीन व भाजपा के नेताओं द्वारा एक- दूसरे के खिलाफ की गई भावुक भाषणबाजी का परिणाम है जिससे मतदाताओं का धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण होने में मदद मिली है। इसके लिए वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ द्वारा हैदराबाद का नाम बदल कर भाग्यनगर रखने को भी बता रहे हैं। शहर की ऐतिहासिक चारमीनार इमारत के निकट बने भाग्यलक्ष्मी मन्दिर का मुद्दा उठाने को भी मान रहे हैं मगर हकीकत यह है कि राष्ट्रीय समिति को नुकसान हुआ है और कांग्रेस इन चुनावों से बुरी तरह लहूलुहान होकर निकली है मगर महाराष्ट्र राज्य में विधानपरिषद की छह सीटों में से केवल एक पर ही भाजपा को विजय मिली है। इससे राजनीति के बहुमुखी व बहुआयामी होने का प्रमाण भी मिलता है और सिद्ध करता है कि जनता को कोई भी पार्टी अपनी बन्धक मान कर नहीं चल सकती बल्कि लोकतन्त्र में राजनीतिक दल ही जनता की निगाहों के तलबगार होते हैं और उसकी वजह से ही कोई भी पार्टी उसकी हुक्मरान नहीं बल्कि सेवा करने की हकदार बनती है।

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