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कन्हैया का फिर ‘माखनचोर’ हो जाना

कन्हैया कुमार वर्तमान दौर का बिना शक सबसे बड़ा ‘विद्रोही’ नाम है लेकिन इसे ‘देशद्रोही’ तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कि न्यायालय उन पर लगाये गये आरोपों का दो टूक फैसला न सुना दे। अतः फिलहाल उन्हें व्यवस्था का विरोध करने वाले तीक्ष्ण तर्क बुद्धि युक्त युवक के रूप में ही देखा जायेगा। शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति का हस्तक्षेप विचारों की उन्मुक्त उत्कंठाओं को बदलते सामाजिक परिवेश में सुगठित स्वरूप देने का कार्य करता है जिसकी वजह से लोकतन्त्र में विश्वविद्यालयों को इसकी प्रयोगशाला भी माना जाता है। प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय ‘रट्टू तोते’ पैदा करने का काम नहीं करते हैं बल्कि जीवन के हर क्षेत्र की विधा में प्रतिभा का इस्तेमाल करने वाली युवा पीढ़ी को तैयार करते हैं जिनमें दुनिया बदलने का जज्बा भरा होता है  

इसीलिए ये ‘विश्वविद्यालय’ कहलाये जाते हैं। जहां तक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का सम्बन्ध है, यह भारत के सुदूर क्षेत्रों में पली-बढ़ी प्रतिभाओं को उनकी आर्थिक विपन्नता को दर किनार करके, तराशने वाला शिक्षण संस्थान है जिसका लाभ समाज का सम्पन्न वर्ग भी अपनी प्रतिभा के बूते पर उठाने से पीछे नहीं रहा है। कन्हैया कुमार बिहार के बेगूसराय जिले के एक गांव की ऐसी ही विपन्न आर्थिक पृष्ठभूमि से उपजा हुआ विद्रोही नाम है जो पढ़ाई पूरी करने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य हो चुका है। निश्चित रूप से यह उनका निजी चुनाव है जो उन्होंने अपने राजनैतिक दर्शन की रोशनी में किया होगा। किसी भी भारतवासी को इससे कोई गिला नहीं हो सकता।

शिकायत वहां पैदा होती है जब उनकी राष्ट्र भक्ति पर सवालिया निशान पुलिस लगाती है। चार वर्ष पूर्व जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष के तौर पर 5 फरवरी 2016 को विश्वविद्यालय परिसर में संसद पर हमला करने के खतावार अफजल गुरु को फांसी पर लटकाये जाने की बरसी मनाने के तौर पर जो सभा हुई थी उसमें  भारत को तोड़ने के नारे लगे थे। जो पक्के तौर पर देशद्रोह का काम था। इस सभा की वीडियो में कन्हैया कुमार व उनके कुछ अन्य साथियों को दिखाया गया था। इस वीडियो के फर्जी होने का मामला भी सामने आया था। पुलिस को लगा था कि छात्र संघ के अध्यक्ष होने के नाते कन्हैया कुमार की इसमें शिरकत थी और वह नारेबाजी में भी शामिल थे।

 असली मामला यही है जिसकी तस्दीक न्यायालय में होनी है परन्तु पुलिस ने स्वयं इस मामले में कन्हैया कुमार व उनके नौ साथियों के खिलाफ आरोपपत्र (चार्जशीट) लगभग तीन साल बाद दायर की। इस चार्जशीट पर न्यायालय में कार्रवाई तभी आगे बढ़ सकती थी जबकि दिल्ली सरकार अपनी रजामन्दी दे देती।  दिल्ली सरकार ने रजामन्दी देने के लिए 400 दिन का समय लिया और विगत गुरुवार को औपचारिकता पूरी की लेकिन इसी बीच दिल्ली राज्य के चुनाव भी हो गये और यह मामला राजनीति के घेरे में भी आ गया।

कन्हैया कुमार भी इसी ऊहापोह के चलते विगत वर्ष मई महीने में बेगूसराय लोकसभा सीट से चुनाव में खड़े हो गये और सरकार को चुनौती देते रहे कि अगर पुलिस के आरोपों में दम है तो उनके खिलाफ चार्जशीट दायर की जाये मगर वह भारी मतों से पराजित रहे। उनकी पराजय को सामान्य पराजय मानना भूल होगी क्योंकि बेगूसराय को बिहार का ‘लेनिनग्राद’ कहा जाता है। इस पूरे जिले में 1967 तक कम्युनिस्टों का परचम बहुत ऊंचा लहराता था। वास्तव में इस वर्ष तक भाकपा बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी थी जिसके नेता कामरेड चन्द्रशेखर सिंह इसी जिले के थे और वह स्व. कर्पूरी ठाकुर की संविद सरकार में कैबिनेट मन्त्री भी रहे थे। अतः बहुत साफ है कि कन्हैया राजद्रोह या देश द्रोह के आरोपों के दाग लिये ही छात्र नेता से राजनीतिज्ञ हो गये। अतः पूरा मामला अब राजनैतिक तेवरों से और तीखा हो गया है।

दिल्ली सरकार ने चार्जशीट दायर करने की अनुमति देने में देर तो की है मगर उसका फैसला गलत भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि आरोपों के सत्य या फर्जी होने का काम केवल न्यायालय ही कर सकता है, सरकार किस प्रकार न्यायिक अधिकारों से लैस हो सकती है? लेकिन कन्हैया कुमार का यह प्रतिक्रिया व्यक्त करना कि मुकदमा तेज गति से चले और तीन महीने के भीतर इसका फैसला आ जाये, बताता है कि विधानसभा चुनावों में जाने को बैठे बिहार राज्य की राजनीति पर इस मुकदमें का असर पड़ना लाजिमी है।  हाल ही में विगत 27 फरवरी को कन्हैया कुमार ने पटना के गांधी मैदान में ‘संविधान बचाओ’  रैली आयोजित की थी। इस रैली मे जुटी भीड़ के मद्देनजर  राजनैतिक हलकों में खासी गहमा-गहमी है।

बिहार के इन चुनावों में मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार के नेतृत्व को चुनौती देने की कूव्वत किसी दूसरे नेता में फिलहाल नजर नहीं आ रही है, उनके पुराने मित्र श्री शरद यादव विपक्षी खेमे में जरूर खड़े हुए हैं मगर समूचा विपक्ष ही दिशाहीन व नेतृत्वहीन नजर आता है लेकिन यह बिहार का आज का नजारा है। नीतीश बाबू घाट-घाट का पानी पिये हुए हैं और अवसर की नफासत और नजाकत को देख कर राजनैतिक पैंतरा मारने में इस कदर माहिर समझे जाते हैं कि उनके बायें हाथ में कौन सी कौड़ी है इसकी खबर वह अन्तिम समय तक दाएं हाथ को भी नहीं लगने देते। अतः कन्हैया कुमार का मुकदमा बिहार की राजनीति में अहम किरदार निभाने की क्षमता रखता है, कन्हैया कुमार भी जानते हैं कि न्यायालय अपनी गति से ही कामकाज करते हैं। राजद्रोह का मुकदमा बहुत गंभीर मुकदमा होता है मगर यह सोचने की भी जरूरत है कि इसकी कानूनी दफाएं स्कूली बच्चों तक पर लगा कर क्या पैगाम दिया जा सकता है।

कर्नाटक के ‘बहादुर बी.एस. येदियुरप्पा’ की सरकार ने यह कमाल करके दिखा दिया है, लोकतन्त्र का जब यह नियम है कि विपक्ष का धर्म सत्ता पक्ष को बेनकाब करना होता है और यदि ताकत हो तो इसे सत्ता से हटाना भी होता है तो फिर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मूल अधिकार के रहते रंगकर्मी या नाट्यकर्मी अथवा साहित्यकार और कवि व शायर तक अपनी संजीदगी का बयान करने को आजाद रहते हैं मगर इसका मतलब यह नहीं होता कि वे राष्ट्रीय एकता को भंग करने का कुप्रयास करें। राष्ट्र का वन्दन तो अपरिहार्य होता है, पुलिस से लेकर सेना और न्यायाधीश से लेकर राजनीतिज्ञ तक यही कसम उठातेे हैं कि वे भारत की एकता व अखंडता को अक्षुण्ण रखेंगे। इसमें किसी  अगर-मगर की गुंजाइश नहीं होती। अतः ‘कन्हैया’ को सिद्ध करना ही होगा कि वह ‘माखनचोर’ नहीं हैं।

आदित्य नारायण चोपड़ा

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