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विपक्षी एकता में कन्हैया कुमार?

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लोकसभा चुनावों के लिए जिस तरह विपक्षी एकता के समीकरण पार्टी स्तर पर गढ़े जा रहे हैं उससे उन 69 प्रतिशत मतदाताओं को निराशा हो सकती है जिन्होंने पिछले 2014 के चुनावों में भाजपा के विरोध में वोट दिया था। मगर यह निराशा विपक्षी दलों के निजी हितों के टकराव से पैदा हुई है जिससे मतदातों का कोई लेना-देना नहीं है। इन दलों में किस कदर भ्रम की स्थिति है इसका सबसे बड़ा उदाहरण बिहार का चुनाव क्षेत्र ‘बेगूसराय’ है जहां से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

इस विश्वविद्यालय में लगभग सवा तीन साल पहले जो कथित राष्ट्र विरोधी नारे लगाए गये थे उनमें कन्हैया बाबू की शिरकत दिखा कर जिस वीडियो फिल्म को सबूत के तौर पर उच्च न्यायालय में तीन साल बाद चार्जशीट पेश कर उनके खिलाफ मुकद्दमा दर्ज किया गया है, उसकी वि​धिवत सुनवाई भी अभी इस वजह से शुरू नहीं हो पाई है क्योंकि दिल्ली पुलिस ने अभी तक इस मामले में कानूनी तौर पर लाजिम दिल्ली सरकार की अनुमति ही प्राप्त नहीं की है। मगर इसकी महत्ता समूचे भारत के लोगों के लिए इसलिए है कि केवल आरोपों के आधार पर ही कुछ लोगों ने कन्हैया बाबू को राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया है जबकि कन्हैया ने पूरी सत्ता को चुनौती दी है कि वह चन्द नारों में शिरकत करने के आरोप पर उन्हें राष्ट्रद्रोही घोषित नहीं कर सकती है क्योंकि उनकी लड़ाई मूल रूप से देश में संविधान का शासन कायम रहने के खिलाफ काम कर रहे ऐसे लोगों और ऐसी मानसिकता के खिलाफ है जो राष्ट्रप्रेम की आड़ में संविधानेत्तर कार्य करने वाली शक्तियों को संविधान से ऊपर का दर्जा देना चाहते हैं।

वह भुखमरी और किसानों की आत्महत्याओं से भारत में आजादी की मांग करते हैं और देश के सभी धर्मों के गरीब व पिछड़े लोगों को मजबूत बनाने की तरफदारी में नारे लगाते हैं और आम जनता को सजग करते हैं जो कि उनका लोकतान्त्रिक अधिकार है। अपनी इस मुहिम को उन्होंने ‘संविधान बचाओ’ का नाम दिया है। मगर ठीक ऐसी ही मुहिम विपक्ष के कद्दावर नेता श्री शरद यादव भी पिछले दो साल से चला रहे हैं। दोनों ही मुहिम की मीडिया में कभी चर्चा नहीं होती जबकि राम मन्दिर निर्माण और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर न्यूज चैनलों में रोजाना गला फाड़ बहस होते हम अक्सर सुनते रहते हैं। ऐसा क्यों होता है? इसका उत्तर बहुत सरल है क्योंकि आस्था और धर्म के मुद्दों से बाहर निकलते ही हमें संविधान के उन मूल्यों का बेबाकी के साथ मूल्यांकन करना पड़ेगा जो भारत की आम जनता को इस लोकतन्त्र का मालिक बनाते हैं और हर अमीर-गरीब को सत्ता में बराबर की भागीदारी का हकदार बनाते हैं।

राम मन्दिर और तीन तलाक पर महीनों चर्चा इसलिए सुविधाजनक है जिससे इस कम्प्यूटर व इंटरनेट के युग में हम किसी बढ़ई या लुहार अथवा सुनार या आतिशगर या कुम्हार के बेरोजगार हो जाने पर उसके पुनर्वास की समस्या के सवालों को आसानी से भुला सकें और सफाई अभियान के सबसे बड़े सिपाहियों ‘गटर में उतरने वाले कर्मचारियों’ की जहरीली गैस से मरने की घटनाओं को ‘हादसा’ समझ कर भाग्य पर छोड़ सकें। हमारी समझ में इन सब बातों को डालने के लिए ही हर पांच साल बाद चानाव आते हैं। पं. जवाहर लाल नेहरू ने आजाद भारत में हुए पहले 1952 के आम चुनावों में पूरे छह महीने तक पूरे भारत में घूम-घूम कर चुनाव प्रचार किया था और लोगों से अधिक से अधिक संख्या में वोट डालने की अपील की थी और कहा था कि चुनाव आम जनता के लिए राजनीति की पाठशाला का काम करते हैं जिससे उन्हें यह एहसास हो सके कि वे अपनी किस्मत उस वोट के द्वारा ही बना–बिगाड़ सकते हैं जिसका हक उन्हें डा अम्बेडकर के लिखे संविधान ने दिया है।

यही वजह है कि चुनावों को भारत में ‘लोकतन्त्र के उत्सव’ का नाम दिया गया। मगर यह भी हकीकत है कि भारत के पहले आम चुनावों के बाद देश में दूसरे नम्बर की पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ही थी जिसके कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा सांसद चुन कर आये थे। इसी पार्टी के सांसद स्व. ए.के. गोपालन व्यावहारिक रूप से विपक्ष के नेता थे। तभी से बिहार के बेगूसराय को भारत का ‘लेनिनग्राद’ कहा जाने लगा था क्योंकि बिहार में इसी शहर से कई जन आन्दोलनों का जन्म हुआ था और 1962 तक इस राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी भी भाकपा ही थी हालांकि संसोपा व प्रसोपा का भी बाद में यहां खासा प्रभाव रहा। उत्तर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का सबसे ज्यादा दबदबा बिहार में ही रहा और एक से बढ़ कर एक सांसद भी इस राज्य ने देश को दिए जिनमें स्व. रामानन्द शास्त्री का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।

शास्त्री जी के बाद बिहार ने कन्हैया कुमार जैसा तार्किक और तीक्ष्ण बुद्धि नेता कई दशकों बाद दिया है जिसकी वजह से इस राज्य की विपक्षी जातिगत राजनीति के पैर उखड़ने का खतरा पैदा हो चुका है और इसी वजह से बेगूसराय एक बार फिर उत्तर भारत की ‘राजनैतिक अयोध्या’ बनता सा दिखाई दे रहा है मगर इसमें भारतीय जनता पार्टी का योगदान ज्यादा है जिसने इस सीट से केन्द्रीय मन्त्री गिरिराज सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया है। गिरिराज सिंह भाजपा के ऐसे ‘दंगली’ नेता हैं जो विचारों की जगह ‘हाथ’ से काम लेना ज्यादा पसन्द करते हैं ‘जुबान’ का इस्तेमाल तलवार की तरह करते हैं।

दरअसल श्री सिंह स्वतन्त्र भारत के लोकतन्त्र में संवैधानिक पद की मर्यादा को संविधानेत्तर आभूषणों से इस प्रकार सुशोभित करने में माहिर माने जाते हैं जिससे संविधान की परिभाषा का अर्थ बाजारू जरूरत के सन्दर्भों में देखा जाए। दूसरी तरफ बिहार की पहचान राजनीति को लगातार नये कलेवर देने की रही है। इसकी मुख्य वजह यहां की राजनीतिक रूप से जागरूक व सचेत जनता है जिसका दैनिक जीवन अखबार पढ़ने से शुरू होता है और हर खबर की तह में जाकर उसका अपने हिसाब से पोस्टमार्टम करने पर खत्म होता है परन्तु इस गुण में कमजोरी भी पिछले दो दशकों में आ चुकी है और इसकी जड़ में जातिवादी राजनीति है परन्तु कन्हैया कुमार ने इसे अपने बूते पर ‘जाति सम्मान’ के स्थान पर ‘जन्म सम्मान’ में बदलने का वह बीड़ा उठा लिया है जिसका उल्लेख संविधान में सभी को विकास करने के समान अवसर उपलब्ध कराने का वादा करके किया गया है।

यह राजनीतिक विरोध दलगत वोट बैंक की राजनीति का विरोध करता है इसीलिए विपक्ष के राजनीतिक दलों को सत्ताधारी दल से ज्यादा परेशानी हो रही है जिसके कारण सभी विपक्षी दलों के गठबन्धन ने कन्हैया कुमार के सामने अपना प्रत्याशी वोट बैंक का गुणा-गणित लगा कर उतार दिया है। विपक्षी दल यथास्थिति बनाये रखने के लिए राजनीतिक विमर्श को ‘कार्पोरेट बरक्स कांस्टीट्यूशन’ में उभरने देने से बचना चाहते हैं क्योंकि इसके उभरते ही सार्वजनिक संस्थानों को सिसिलेवार खत्म करने की सरकारी नीतियां संविधान के सामने आकर खड़ी हो जाएंगी और एक राष्ट्र में एक समान शिक्षा जैसे सवाल उठ कर एक समान स्वास्थ्य सुविधा जैसे मुखर मुद्दे उठ जाएंगे और विकास के नाम पर जिस तरह राष्ट्रीय स्रोतों की नीलामी निजी क्षेत्र को करने की होड़ लगी हुई है वह राजनीतिज्ञों को बेनकाब करके फैंक देगी। लोग पूछने लगेंगे कि संविधान की मार्गदर्शिका में लिखा हुआ समाजवाद किस उद्योगपति की तिजोरी में गिरवी रख दिया गया है और ‘ठठेरे’ का बेटा क्यों नहीं किसी जमींदार के बेटे की तरह इंजीनियर बन पा रहा है?

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