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कानपुर की हिंसा : सच की खोज

भारत दुनिया का अजीम मुल्क इसलिए नहीं है कि 80 प्रतिशत हिन्दू आबादी होने के बावजूद यह धर्म या पंथ निरपेक्ष राष्ट्र है।

भारत दुनिया का अजीम मुल्क इसलिए नहीं है कि 80 प्रतिशत हिन्दू आबादी होने के बावजूद यह धर्म या पंथ निरपेक्ष राष्ट्र है। यह इसलिए भी दुनिया का अद्वितीय राष्ट्र नहीं है कि यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है बल्कि इसलिए अतुलनीय है कि इसकी मूल हिन्दू या भारतीय संस्कृति में रूढ़ीवादी ‘एक निष्ठ’ सोच के लिए कोई स्थान नहीं है।  श्रीमद् भागवत गीता में स्वयं भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ‘कर्मण्ये वाधि कारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ अर्थात मनुष्य को फल की इच्छा के बिना ही अपना कार्य निष्ठा पूर्वक करते रहना चाहिए परन्तु इसी के समानान्तर शास्त्रोक्त वाणी है कि ‘भाग्यं फलोति सर्वत्रः न च विद्या न च पौरुषं’ । यही वह तार्किक स्थापना व प्रतिस्थापना का विचार है जो भारत को ‘अप्रतिम’ बनाता है और इसी कारण से दुनिया के विभिन्न पंथ व मत मतान्तर इसकी संस्कृति में समविष्ट होते गये और भारतीय कहलाये परन्तु इतिहास का यह भी सच है कि इस्लाम धर्म के साथ ऐसा  नहीं हो सका क्योंकि इसके धर्मोपदेशकों ने भारतीय संस्कृति के इस उदार और समावेशी विचार की मुखालफत की और समानान्तर रूप से अपनी पहचान को अलग ही बनाये रखने की कवायद की जिसमें मुल्ला, मौलवियों व काजियों तथा उलेमाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई। दूसरी तरफ सैयद अमीर अली ने ‘स्पिरिट आफ इस्लाम’ अर्थात ‘इस्लाम की मूल भावना’  जैसी पुस्तक लिख कर इस धर्म के उदारवादी रुख को प्रकट करना चाहा मगर इसकी प्रशंसा में कोई आगे नहीं आया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के मुसलमानों का बहुत बड़ा गुट कट्टरपंथी या रूढ़ीवादी ही बना रहा और मुल्ला-मौलवियों व उलेमाओं द्वारा की गई विवेचना को अन्तिम सत्य मानने लगा।  
ऐसा  नहीं है कि हिन्दू धर्म में पोंगापंथ या रूढ़ीवादिता नहीं है परन्तु इस पंथ में रुढ़ीवादिता को तोड़ने के भी सैकड़ोंं रास्ते विद्यमान हैं। इसी वजह से एक नास्तिक भी हिन्दू हो सकता है, मूर्ति पूजा न करने वाला भी हिन्दू हो सकता है और हद तो यह है कि मूर्ति पूजा की कटु आलोचना करने वाला भी स्वयं को हिन्दू कह सकता है। कर्म को लेकर ऊपर की पंक्तियों में मैंने जो दो उदाहरण हिन्दू शास्त्रों से ही दिये हैं वे इस बात का प्रमाण हैं कि भगवान श्री कृष्ण द्वारा दिया गया संभाषण ही अन्तिम सत्य नहीं है बल्कि इसके समानान्तर ‘भाग्यवाद’ भी एक संपुष्ट विचार है जो व्यक्ति को कर्म के स्थान पर ‘भाग्य’ पर भरोसा रखने का उपदेश देता है। ये परस्पर स्थापनाएं और प्रतिस्थापनाएं केवल हिन्दू या सनातन धर्म में ही संभव हो पाई हैं। 
भारतीय मुस्लिमों की रूढ़िवादिता या धर्मान्धता का परिणाम हमें 1947 में भारत के दो टुकड़ों में देखने को मिला और पाकिस्तान का निर्माण मुहम्मद अली जिन्ना ने सिर्फ इस्लाम के नाम पर ही करा लिया । मगर यदि हम सैयद अमीर अली की पुस्तक पढे़ं तो इसमें हमें इस्लाम का कोई दोष नहीं बल्कि इसकी विवेचना करने वाले मुल्ला-मौलवियों का दोष मिलेगा। पाकिस्तान के निर्माण में पंजाब के मुसलमानों की भूमिका बहुत ही सतही थी जबकि उत्तर प्रदेश , बिहार, मुम्बई व मद्रास ,दक्षिण के मुसलमानों की भूमिका अहम थी। एतिहासिक सत्य यह भी है कि अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्रों, अध्यापकों और ‘बरेलवी इस्लामी स्कूल’ के मौलानाओं ने पंजाब में जाकर 1946 के प्रान्तीय एसेम्वली व संविधान सभा के चुनावों में मुस्लिम लीग के पक्ष में मुस्लिम नागरिकों के बीच मजहबी तास्सुबी तकरीरें कर-करके उन्हें धर्मान्ध बना दिया था और डर भर दिया था कि संयुक्त भारत में इस्लाम को समाप्त जैसा कर दिया जायेगा (यह खुद जिन्ना ने अपनी तकरीरों में कहा था)। मुस्लिम लीग के ये पैरोकार तब अपनी जनसभाओं में खुल कर नारे लगाते थे कि ‘पाकिस्तान का नारा क्या-ला इलाही इल्लिल्लाह’। जिन्ना आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी को हिन्दुओं की पार्टी बताता था।  उस समय के चुनावों में लीग के पैरोकार पढे़-लिखे तालिबों से लेकर उस्ताद मुसलमानों को समझा रहे थे कि उनका लीग को दिया गया वोट ‘रसूल- अल्लाह’ को दिया गया वोट होगा। 
यह पूरी कथा लिखने का आशय यही है कि यदि आजादी के 75वें साल में भी भारत के मुसलमानों की मानसिकता को यथावत रखने की कोशिश मुल्ला-मौलवी करते हैं तो यह स्वतन्त्र भारत की अभी तक की गई सारी तरक्की को नकारने की हिमाकत करते हैं। किसी एक विशिष्ट समाज के लोगों को जब तरक्की के सफर से अलग अपना कारवां चलाने की कोशिशें होती हैं तो समझना चाहिए कि उस वर्ग को जानबूझ कर जाहिल बनाये रखने के प्रयास हो रहे हैं। वर्तमान सन्दर्भों में विगत शुक्रवार को ‘जुम्मे की नमाज’ के बाद उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में जिस तरह की हिंसा मुस्लिम सम्प्रदाय द्वारा करने की कोशिश की गई उसकी मज्जमत हर अमन पसन्द शहरी इस वजह से करेगा क्योंकि यह कानून को सीधे अपने हाथ में लेने का मामला है। ‘पैगम्बर हजरत मोहम्मद सले-अल्लाह-अलै-वसल्लम’ की शान में गुस्ताखी करने का प्रयास यदि भाजपा के दो कारिन्दों ने किया था तो उसकी ‘सजा’ गुहार लगाने के  लिए भारत के न्यायालय खुले हुए थे और साथ ही शान्तिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन का रास्ता भी खुला हुआ था। मगर सीधे ही पत्थरबाजी पर उतर आना सिवाय अपनी संख्या की ताकत दिखा कर रुआब बैठाने के कुछ और नहीं कहा जा सकता और इस पर भी यह सीना जोरी कि पत्थरबाजों के पकड़े जाने पर कानून के सामने ले जाने से पहले ही बेगुनाह करार देना पूरी तरह नाकाबिले कबूल है। किसी स्थान पर धार्मिक विवाद हो जाने पर एक तरफ यह कहना कि भारत संविधान से चलेगा और दूसरी तरफ संविधान या कानून को ही अपने हाथ में ले लेना कैसे स्वीकार्य हो सकता है। दंगाइयों की गिरफ्तारी पर कानपुर के काजी का बयान और भी ज्यादा निन्दनीय व भड़काऊ है जो मुसलमानों को सिर पर कफन बांध कर सड़कों पर निकल आने की तीद कर रहे हैं। इस मामले में भी कानून को अपना काम बेखौफ-ओ- हिचक करना चाहिए। भारत कोई कबायली मुल्क नहीं है कि यहां कबीलों के कानून चलेंगे। यह बाबा साहेब अम्बेडकर के दिये गये संविधान से चलता है और यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है।

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