कांवड़िये और डर का माहौल

कांवड़िये और डर का माहौल
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सर्वोच्च न्यायालय ने हरिद्वार से कांवड़ लेकर आ रहे यात्रियों के मार्ग में पड़ने वाले खाने-पीने के ढाबों व दुकानों पर मालिक का नाम लिखने के उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड की सरकारों के आदेश पर लगाई गई रोक को 5 अगस्त तक आगे बढ़ा दिया है परन्तु यात्रा मार्ग के दुकानदारों में यह डर बैठ गया है कि पुलिस के रवैये के कारण कांवड़िये उन्हें परेशान कर सकते हैं इसलिए वे ढाबों व दुकानों पर अपने नाम लिख रहे हैं और फलों की रेहड़ी वाले तक भी एहतियात बरत रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष स्वतन्त्र भारत में यह अजीब स्थिति है कि जिसमें डर की वजह से दुकानदार व फल विक्रेता अपना नाम व मजहब उजागर कर रहे हैं । हकीकत यह है कि साम्प्रदायिकता की राजनीति के चलते नागरिक अपने उन मौलिक अधिकारों को भी भूल रहे हैं जो संविधान ने उन्हें दिये हैं और जिन्हें कोई भी सरकार नहीं छीन सकती। यह मौलिक अधिकार खाने-पीने या भोजन की स्वतन्त्रता का है। जिस भी नागरिक का जैसा मन हो वह वैसा अनुयाज्ञिक ( परमिटेड) शाकाहारी व मांसाहारी भोजन खा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यही आदेश दिया था कि भोजनालयों या ढाबों को केवल यह लिखने की आवश्यकता है कि वे शाकाहारी भोजन परोसते हैं अथवा मांसाहारी। मालिक का नाम उजागर करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जबकि शुरू में हरिद्वार के बाद पड़ने वाले मुजफ्फरनगर पुलिस ने आदेश जारी किया था कि यात्रा मार्ग में पड़ने वाला हर दुकानदार यह लिखेगा कि उसका नाम क्या है। यह आदेश पूरी तरह गैर संवैधानिक था मगर राज्य सरकार ने इसे पूरे प्रदेश में ही लागू कर दिया जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी। मगर सितम यह है कि नाम उजागर करने से दुकानदार का मजहब भी उजागर होता और कांवड़ियों के सामने यह विकल्प खुल जाता कि वे मुस्लिम दुकानदारों से सामान न खरीदें चाहे वे शाकाहारी भोजन ही क्यों न परोस रहे हों। यह आदेश धर्मनिरपेक्ष भारत में न केवल गैर संवैधानिक था बल्कि समाज में हिन्दू-मुस्लिम बैर-भाव बढ़ाने वाला भी था। मुजफ्फरनगर व मेरठ समेत समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, गूर्जर, राजपूत, त्यागी आदि के साथ पिछड़े वर्ग की भी एेसी जातियां हैं जो दोनों समुदायों में पाई जाती हैं। इन दोनों ही समुदायों में अपनी-अपनी जातियों के लोगों के घरों पर ब्याह-शादी के समय एक-दूसरे के घर आना-जाना होता है क्योंकि इन सबके पुरखे कभी एक ही रहे हैं। अतः हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर इनमें भेदभाव केवल पूजा पद्धति को लेकर ही रहता है। मुजफ्फरनगर जिले में ही हिन्दू व मुस्लिम मिलकर संयुक्त रूप से व्यवसाय भी चलाते हैं। मगर खुद राज्य सरकार द्वारा इन्हें धर्म के आधार पर बांटा जाना संविधान के विरुद्ध ही नहीं बल्कि मानवता के विरुद्ध भी कदम है। कांवड़िये बेशक हिन्दू होते हैं मगर न फल-फूल का कोई धर्म होता है और न अनाज का। वही गेहूं हिन्दू के खेत में भी उगता है और वही मुसलमान के खेत में और बाजार में आकर जब वह बिकता है तो उसे हिन्दू भी खरीदते हैं और मुसलमान भी और अपने पेट की क्षुधा मिटाते हैं। इसी प्रकार मांसाहारी हिन्दू भी होते हैं और मुसलमान भी। किसी हिन्दू पर सरकार यह दबाव कैसे बना सकती है कि वह केवल शाकाहारी भोजन ही करे। इसी प्रकार किसी मुस्लिम पर यह दबाव कैसे बनाया जा सकता है कि वह केवल मांसाहारी ही भोजन करे। भोजन को चुनने का अधिकार व्यक्ति का निजी मामला होता है। मगर इससे भी बड़ा मामला यह है कि धर्मनिरपेक्ष भारत में सरकार किसी विशिष्ट धर्म के अनुयायियों को विशेष सुविधाएं नहीं दे सकती है और उनके लिए पूरी सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था का गला नहीं घोट सकती है क्योंकि धर्म व्यक्ति का निजी मामला होता है।
मगर उत्तर प्रदेश सरकार कांवड़ यात्रा के दौरान राजमार्गों को बन्द तक कर देती है और सामान्य परिवहन के रास्ते तक बदल देती है। इससे कांवड़ यात्रा मार्ग में पड़ने वाले शहरों व कस्बों की पूरी अर्थव्यवस्था ही चरमरा जाती है जिसका व्यापक असर समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। छोटे उद्योगों में इन दिनों कच्चे माल की कमी हो जाती है और शहरों में तैयार उत्पादों की आवक कम हो जाती है। बेशक राज्य या सरकार का कर्त्तव्य होता है कि वह यात्रा मार्ग में कानून-व्यवस्था बनाये रखे इसके लिए जरूरी है कि कांवड़ यात्रा को सुगम बनाने के इंतजाम किये जायें मगर मार्ग में पड़ने वाले शहरों के स्कूल तक बन्द कर देना कहां की जिम्मेदारी है और कांवड़ियों को ऊंची-ऊंची आवाज में डीजे बजाने की छूट देना कौन सा इंतजाम है? कांवड़िये हिन्दू बाद में हैं पहले भारत के नागरिक हैं और उनका कर्त्तव्य बनता है कि वे समाज में अराजक वातावरण न फैलायें। मगर हम आये दिन खबरें पढ़ते रहते हैं कि कांवड़ियों की अन्य नागरिकों के साथ मुठभेड़ हो गई। पुलिस का काम इसी तरह की घटनाएं रोकने का है। भारत तो वह देश है जिसमें हिन्दू-मुसलमान मिलकर एक-दूसरे के त्यौहार मनाते रहे हैं। क्या भारत में हिन्दुओं का कोई मेला या पवित्र समागम मुस्लिमों के सहयोग के बिना हो सकता है। अब सावन का महीना चल रहा है कुछ महीनों बाद ही जाड़ों के मौसम में पश्चिम उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर में गंगा स्नान का मेला लगेगा। क्या यह मेला मुस्लिम कारीगरों व फनकारों या मिस्त्रियों की आधारभूत सेवाओं के बिना लग सकता है? गंगा स्नान के मेले में टेंट लगाने से लेकर रोशनी का प्रबन्ध तक करने में मुस्लिम मजदूर व मिस्त्री मदद करते हैं। यह भारत न केवल हिन्दुओं का और न मुसलमानों का बल्कि यह सबका है। सभी की मेहनत से हिन्दोस्तान आगे बढ़ रहा है और भविष्य में भी एेसा ही होगा। गंगा स्नान का मैंने सिर्फ उदाहरण दिया है सबसे बड़ा उदाहरण कोरोना काल का था जिसमें हिन्दुओं की लाशों को जलाने का जिम्मा कई स्थानों पर मुस्लिम नागरिक ले रहे थे। कोई भी सरकार इस आन्तरिक भाईचारे की बनावट को नहीं तोड़ सकती।

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