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कर्नाटक की राजनैतिक ‘कला’

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इसी महीने में चार राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान व मिजोरम के विधानसभा चुनावों से पहले कर्नाटक में हुए तीन लोकसभा सीटों व दो विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में सत्ताधारी भाजपा पार्टी की पराजय से इस संभावना को बल मिला है कि यदि विपक्षी पार्टी संयुक्त रूप से एकजुट होकर आगामी होने वाले लोकसभा चुनावों में उतरती हैं तो हवा का रुख मोड़ सकती हैं परन्तु लोकसभा चुनाव 2019 के मार्च-अप्रैल महीने में होने हैं और इससे पहले राजनैतिक मोर्चे पर जबर्दस्त उतार-चढ़ाव और नाटकीय घटनाक्रम की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। इससे पहले ही जिन चार राज्यों में प्रादेशिक चुनाव होने हैं उनमें कर्नाटक के उपचुनाव परिणामों का लाभ विपक्ष को न मिले इसकी संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। कर्नाटक में जिन तीन लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें शिमोगा, मांडवा व बेल्लारी थे इनमें से भाजपा को केवल शिमोगा सीट ही मिली जबकि खनन माफिया के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त बेल्लारी सीट पर इसकी कांग्रेस के हाथों पराजय हुई और मांडवा में जनता दल (स) को विजय मिली। राज्य की दो विधानसभा सीटों राम नगर व जामखंडी मंे भाजपा के प्रत्याशी हार गये।

हार-जीत का बड़ा अन्तर भी यह बताता है कि मतदाताओं में भाजपा का मोह भंग हो रहा है। सत्तारूढ़ पार्टी के लिए कर्नाटक राज्य का महत्व इसलिए अधिक रहा है कि समूचे दक्षिण भारत में अकेला यही राज्य एेसा था जिसमंे 2014 के लोकसभा चुनावों में उसे विपक्षी दलों के मुकाबले शानदार बढ़त मिली थी और राज्य की कुल 28 सीटों में से भाजपा को 17 व कांग्रेस को 9 और जनता दल (स) को दो सीटंे ही मिली थी। बेशक यह कहा जा सकता है कि राज्य की सत्ता पर कांग्रेस व जनतादल (स) के काबिज होने की वजह से चुनाव प्रचार आदि की दृष्टि से वह लाभ की स्थिति में हो सकती थी मगर लोकतन्त्र में इसका तब कोई खास महत्व नहीं रहता जब मतदाता अपना मन बना लेते हैं। अतः भाजपा के लिए ये उपचुनाव आंखें खोलने वाले कहे जा सकते हैं और देश के औसतन राजनैतिक माहौल का सूचक भी इस अर्थ में कहे जा सकते हैं कि लोगों की आंखें खुली हुई हैं किन्तु विपक्षी पार्टियों के लिए भी ये इस बात का संकेत है कि वे आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा को तभी शिकस्त देने की स्थिति में आ सकती हैं जबकि उनमें एकता और एकजुटता का स्तर अवरोध रहित हो।

इस मोर्चे पर विपक्षी दलों के लिए मुसीबतें कम नहीं हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की क्षेत्रीय पार्टियों के मन में क्या है और वे इस एकता को क्या मोड़ दे सकती हैं, इस बारे में कोई भी राजनैतिक पंडित भविष्यवाणी नहीं कर सकता क्योंकि कांग्रेस जैसी शक्तिशाली विपक्षी पार्टी को मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी व सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने ही निर्जीव काया में बदला है। इसकी वजह है कि इन दोनों ही पार्टियों ने बहुत ही चतुराई के साथ कांग्रेस के मूल जनाधार को समाप्त किया है जो दलित व अल्पसंख्यक मतदाताओं के गठजोड़ से अपराजेय माना जाता था। विपक्षी एकता के लिए इन दोनों ही पार्टियों का उत्तर भारत में इसके संयुक्त मोर्चे में आना बहुत जरूरी है।

छत्तीसगढ़ चुनावों में सुश्री मायावती ने जिस प्रकार श्री अजीत जोगी की जनता कांग्रेस से गठबन्धन किया है उसे देखते हुए भाजपा राहत की सांस ले रही है। मध्य प्रदेश में भी अन्त समय में सुश्री मायावती ने कांग्रेस के नेता श्री कमलनाथ के प्रयासों पर पानी फेरने का काम किया है। समाजवादी पार्टी का अस्तित्व सिवाय उत्तर प्रदेश के किसी दूसरे राज्य में नहीं है, अतः इस पार्टी के कर्णधार अखिलेश यादव अपना अस्तित्व बचाने के लिए कोई भी सर्कसी करतब कर सकते हैं। इसके साथ यह समझना जरूरी है कि इन दोनों ही पार्टियों का अस्तित्व कांग्रेस की बदहाली पर ही टिका हुआ है क्योंकि इन्ही की वजह से यह पार्टी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हाशिये पर गई है। अतः विपक्ष की एकता भी कोई साधारण राजनैतिक समीकरण नहीं हो सकता लेकिन फिलहाल लोकसभा चुनावों में पांच महीने का समय शेष है और भाजपा इस दौरान हथियार डाल कर बैठे नहीं रह सकती प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कद का कोई नेता इस समय विपक्षी दल के पास नहीं है। प्रधानमंत्री के तौर पर उनके खाते में उज्ज्वला योजना, आयुष्मान योजना समेत कई उपलब्धियां हैं।

जिस प्रकार कांग्रेस पार्टी ने 8 नवम्बर को नोटबन्दी की दूसरी सालगिरह पर विरोध का इजहार किया है उससे यही लगता है कि विपक्ष का जोर जन-जीवन से जुड़े मूल मुद्दे पर रहेगा जबकि भाजपा का जोर अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण और विकास जैसे मुद्दे पर रहेगा। कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी का यह कहना कि नोटबन्दी बहुत ‘सावधानी पूर्वक बनाया गया वित्तीय आपराधिक घोटाला था’ बताता है कि वह उन लोगों की सहानुभूति बटोरना चाहते हैं जिन्होंने इस कदम का समर्थन इस अपेक्षा के साथ किया था कि नोटबन्दी से न केवल कालाधन बाहर आयेगा बल्कि काला व्यापार करके अपनी कोठियां खड़े करने वाले भी पकड़े जायेंगे लेकिन इन सभी मुद्दों की तसदीक चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में होने वाली है क्योंकि इन सभी राज्यों में कमोबेश असली लड़ाई राष्ट्रीय राजनैतिक माहौल में घुसपैठ किये हुए एेसे विषयों पर हो रही है जिनका सम्बन्ध तसवीर और हकीकत से है। इसके साथ ही इन राज्यों के चुनावों मंे विपक्षी एकता भी अंग-भंग के समान है अतः कुल मिलाकर इनके चुनाव परिणाम हमें भारत के ‘मूड’ का परिचय देंगे।

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