‘कार्ति’ और ‘कानून का राज’ - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

‘कार्ति’ और ‘कानून का राज’

NULL

भारत का लोकतन्त्र इसलिए महान नहीं है कि यहां सरकारों का गठन सीधे लोगों द्वारा उनके एक वोट के अधिकार से किया जाता है बल्कि इसलिए महान है कि इन सरकारों का गठन उस संवैधानिक तन्त्र के मजबूत शिकंजे में किया जाता है जिसकी पहरेदारी स्वतन्त्र न्यायपालिका करती है और हर कदम पर तय करती है कि सत्ता पर काबिज लोग हर हाल में उस कानून की ताबेदारी करें जो उन्हें यह रुतबा बख्शता है। इसलिए भारत के बारे में जब यह कहा जाता है कि यहां ‘कानून का राज’ चलता है तो राजनीतिक भेद-विभेद या द्वेष केवल राजनीतिक दायरे में आ जाते हैं और प्रशासनिक व्यवस्था में उनकी दखलंदाजी की कोई जगह नहीं रहती।

कानून की निगाह सिर्फ गुनाह करने वाले पर रहती है और उसके गुनाहों की शिनाख्त करके उसे सजा देने पर रहती है। पूर्व वित्त मन्त्री श्री पी. चिदम्बरम के सुपुत्र कार्ति चिदम्बरम पर चल रहे मुकद्दमे को हमें इसी नजर से देखना चाहिए और साथ ही यह ध्यान भी रखना चाहिए कि इसमें राजनीतिक बदले की नीयत का कहीं भी इजहार होता नजर न आए। हमारे बहु-राजनीतिक दलीय ढांचे पर खड़े लोकतन्त्र की अगर सबसे बड़ी ताकत किसी को माना जा सकता है तो वह यही है कि कानून किसी सामान्य नागरिक या राजनीतिज्ञ में अन्तर नहीं करता।

बेशक संसद या अन्य सदनों में चुने जाने वाले राजनीतिज्ञों के विशेषाधिकार होते हैं मगर वे इन सदनों की भीतर की व्यवस्था को बेखौफ और सत्ता के प्रभावों से निरपेक्ष बनाये रखने के लिए ही होते हैं जिससे इन सदनों में चुनकर आये सदस्य अपनी बात पूरी स्वतन्त्रता के साथ कह सकें और यदि जरूरत हो तो सरकार के फैसलों को चुनौती दे सकें। हमारा संविधान राजनीतिक दलों की सरकारें बनाने की इजाजत तो देता है मगर अपराध के मामले में इन्हें केवल इतना ही अख्तियार देता है कि वे ऐसे मामलों की जांच विधि सम्मत स्थापित जांच एजैंसियों से कराने के आदेश दे सकें। इन जांच एजैंसियों पर किसी राजनीतिक दल की सरकार को खुश करने की जिम्मेदारी नहीं होती बल्कि संविधान के अनुसार देश के कानून के तहत कार्रवाई करने की होती है और पुख्ता सबूतों के आधार पर गुनाहगार की पहचान करने की होती है।

श्री कार्ति चिदम्बरम पर चल रहे मुकद्दमे को भी सीबीआई चला रही है और सबूत जुटाने का दावा कर रही है। सीबीआई एेसे गवाहों के बयानों को सबूत बनाना चाहती है जो पहले से ही खुद घिनौने जुर्मों के आरोपों में जेल की सींखचों के पीछे बन्द हैं। क्योंकि इन्द्राणी वह महिला है जिस पर अपनी ही युवा बेटी की बर्बरतापूर्वक हत्या करने का आरोप लगा है और इस काम में उसने अपने पति पीटर मुखर्जी की शिरकत के आरोप भी लगाये हैं। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि मध्य प्रदेश में ‘व्यापमं घोटाले’ की जांच भी सीबीआई कर रही है और यह एेसा दर्दनाक वित्तीय घोटाला है जिसमें देश के युवा वर्ग के उन 50 से अधिक लोगों की जानें गई हैं जो अपने पेशेवर जीवन की शुरूआत करना चाहते थे।

तर्क रखा जा सकता है कि यह जांच सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशन में चल रही है अतः घुमा-फिरा कर सबसे बड़ी जिम्मेदारी उस न्यायपालिका पर आ जाती है जिसकी प्रतिष्ठा आम भारतीयों की निगाहों में अभी तक निष्कलंक है। हम बखूबी जानते हैं कि भारत के स्वतन्त्र इतिहास में जब कभी भी लोकतन्त्र की राजनीतिक व्यवस्था प्र​​तिद्वंद्विता की सीमाएं तोड़कर रंजिश के दरवाजे तक पहुंची है तो न्यायपालिका ने पूरी व्यवस्था को अपने कंधों पर उठाकर पूर्ण सुरक्षित रखा है। सवाल यह बिल्कुल नहीं है कि गुनाहगारी के जाल में कौन फंसा है और किसके आगे फंसने की संभावना है बल्कि सवाल यह है कि गुनाह हुआ है या नहीं।

इसे कहीं उत्पादित तो नहीं किया जा रहा है क्यों​कि इसी मुल्क ने देखा है कि 1975 में देश की प्रधानमन्त्री स्व. इदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला देते हुए साफ कर दिया था कि वह तभी तक प्रधानमन्त्री बनी रह सकती हैं जब तक कि सर्वोच्च न्यायालय उन्हें कानूनी नुक्ता-ए-नजर से किसी प्रकार की मोहलत न दे दे।

इसका मतलब यही है कि कानून राजनीतिक अवधारणाओं से कभी प्रभावित नहीं होता। अतः बार-बार हिरासत बढ़ाने की सीबीआई की कानूनी कवायद को प्रसिद्ध वकील श्री अभिषेक मनु सिंघवी के उस तर्क पर कसा जाना चाहिए जिसमें जमानत को हर आरोपी का कानूनी अधिकार तब तक कहा गया जब तक कि उसके खिलाफ बाकायदा चार्जशीट दायर नहीं होती और आरोपी जांच एजैंसियों के साथ सहयोग करने से इंकार नहीं करता अथवा सबूतों को मिटाने में नहीं पकड़ा जाता या बुलाये जाने पर नहीं आता अथवा कहीं भाग जाना चाहता है परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि कार्ति के पिता श्री पी. चिदम्बरम के रुतबे को ध्यान में रखते हुए उनके साथ किसी तरह की रियायत बरती जाए क्योंकि आरोप यह भी है कि कार्ति ने अपने पिता के रुतबे का ही फायदा उठाया। अगर सबूतों के तार श्री चिदम्बरम से जुड़ते हैं और सीबीआई उन्हें अदालत में सिद्ध कर सकती है तो उसे आगे बढ़ने से कानून नहीं रोकता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

five × one =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।