कश्मीर और भारतीय सेना

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कश्मीर और भारतीय सेना
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भारत के लोकतन्त्र के लिए वह दिन निश्चित रूप से अंधकारपूर्ण होगा जिस दिन इस देश में सेना का राजनीतिकरण कर दिया जायेगा। उस दिन भारत और पाकिस्तान के बीच का वह भेद मिट जायेगा जिसने हिन्दोस्तान को पूरी दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातन्त्र घोषित किया हुआ है। इस देश के संविधान निर्माताओं ने बड़ी मशक्कत और मेहनत करने के बाद सेना की भूमिका पूरी तरह गैर-राजनीतिक रखते हुए उसकी जिम्मेदारी लोकतन्त्र की रक्षक की तय की थी और संविधान के प्रति उसकी जवाबदेही संसद के माध्यम से तय की थी। भारत की सेनाएं किसी सत्ता प्रमुख की वफादारी की कसम नहीं उठाती हैं बल्कि संविधान की शपथ लेकर राष्ट्र की सुरक्षा का प्रण लेती हैं। हमने यह परिवर्तन बहुत सोच-समझ कर दूरगामी दृष्टि से किया था क्योंकि आजादी से पहले भारत की सेना ब्रिटेन के सम्राट के साथ वफादारी निभाने की कसम उठाती थी। हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के राष्ट्रपति को सेनाओं का सुप्रीम कमांडर केवल शोभा के लिए नहीं बनाया बल्कि संविधान की सत्ता को सर्वोच्च स्थापित करने की नजर से बनाया क्योंकि राष्ट्रपति ही संविधान के संरक्षक होते हैं। यही वजह है कि राष्ट्रपति की निजी सुरक्षा में सेना के तीनों अंगों के अफसर तैनात रहते हैं। गणतन्त्र दिवस 26 जनवरी को जब हमारी सेनाएं राष्ट्रपति को सलामी देती हैं तो वे इस देश की उस जनता को सलामी देती हैं जिनके एक वोट की ताकत से पांच वर्ष के लिए परोक्ष रूप से राष्ट्रपति का चुनाव होता है।

यह सलामी जनता की ताकत को होती है और उसके लोकतान्त्रिक अधिकारों के संरक्षण की गारंटी करती है। हमने संसद में कानून बनाकर ऐसी व्यवस्था लागू की जिससे भारत की सेना अपने आन्तरिक कार्यों में पूर्ण स्वायत्त रहकर अपना गठन एक पेशेवर फौज के रूप में कर सके और इसमें किसी प्रकार का राजनीतिक हस्तक्षेप न हो। उसका यही अराजनीतिक चरित्र उसे आम भारतीय जनमानस में उच्च प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाता है तथा एक रिटायर्ड फौजी तक को समाज विशिष्ट नजरिये से देखता है। दुनिया के बहुत कम मुल्कों में फौजियों को ऐसा सम्मान प्राप्त है जैसा कि भारत में है। इसकी प्रमुख वजह यही है कि फौज आवश्यकता पडऩे पर देश के आन्तरिक मामलों में लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार की दरख्वास्त पर आती है और अपना कार्य पूरा करके वापस बैरकों में लौट जाती है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि किस राजनीतिक पार्टी की सरकार किस अशान्त क्षेत्र में है और कौन सा राजनीतिक दल विपक्ष की भूमिका में है। वह निरपेक्ष भाव से अपना कार्य करके आम जनता को आश्वस्त करती है। यह आश्वासन कुछ और नहीं होता बल्कि यही होता है कि इस देश के किसी भी हिस्से में संविधान का शासन ही रहेगा और उसकी मजबूती के लिए सेना अपनी भूमिका का निर्वाह करेगी। सेना की इस विशिष्टता को देखते हुए स्वतन्त्र भारत में एक बार यह विचार भी रखा गया था कि क्यों न देश के सभी पुलिस थानों में सेना के जवानों की नियुक्ति कर दी जाये मगर देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. नेहरू ने इस मत को अधकचरा और बिना सोचा-समझा बताया और कहा कि ब्रिटिशकालीन पुलिस को सुधारने के लिए संस्थागत संशोधनों की आवश्यकता होगी क्योंकि पुलिस का संस्थागत ढांचा हर उस आदमी को थोड़े दिनों बाद अपने अनुसार ढालने में समर्थ हो जायेगा लेकिन उन बुद्धिजीवियों का क्या किया जाये जो कश्मीर के सन्दर्भ में वर्तमान थल सेनाध्यक्ष बिपिन रावत की तुलना 'वायर वेबसाइट' पर लेख लिख कर 'जलियांवाला बाग कांड' को अंजाम देने वाले अंग्रेज जनरल डायर से कर रहे हैं। यह 'बौद्धिक आतंकवाद' के अलावा और कुछ नहीं है।

जम्मू-कश्मीर के जिन जिलों में भी सेना तैनात है वह वहां की चुनी हुई सरकार के फैसले के आधार पर ही है और उसकी भूमिका नियत है, यह भूमिका राज्य में आन्तरिक शान्ति स्थापित करने की है। इसके अलावा पाकिस्तान से लगी सरहदों की सुरक्षा के लिए सेना दिन-रात सन्नद्ध रहती है। कश्मीर में जिस तरह अलगाववादी तत्वों ने आम लोगों को सेना के खिलाफ भड़काया है उसमें यहां की सियासी पार्टियों की भूमिका को भी कमतर करके नहीं देखा जा सकता। पिछले तीस सालों में कश्मीर की पूरी पीढ़ी को तबाह करने का जो सामान यहां के सियासतदानों ने इकट्ठा किया उसमें हुर्रियत कान्फ्रेंस का जन्म लेना और इसे प्रतिष्ठा देना एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। इसमें केन्द्र की पिछली सरकारों की भी भूमिका रही है जिनमें पिछली वाजपेयी सरकार तक शामिल थी। अत: इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि यहां के लोगों को पत्थरबाज बनाने में किन जमातों और लोगों की भूमिका रही क्योंकि 1947 में देश का बंटवारा होने के वक्त कश्मीर के लोग ही थे जो पाकिस्तान के निर्माण के सख्त खिलाफ थे मगर आज हालात इतने बदल गये कि पाकिस्तान से वित्तीय मदद लेकर यहां के भोले नागरिकों को पत्थरबाज बनाया जा रहा है और युवा पीढ़ी को बरगला कर आतंकवादी बनाया जा रहा है। ऐसे माहौल में माक्र्सवादी पार्टी के मूर्धन्य नेता प्रकाश करात यदि अपनी पार्टी के अखबार 'पीपुल्स डेमोक्रेसी' में यह सम्पादकीय लिखते हैं कि जनरल रावत केन्द्र की मोदी सरकार की नीतियों पर चल रहे हैं तो यह राष्ट्र के लोकतन्त्र को 'अभय' देने वाली भारतीय सेना की भूमिका को विवादास्पद बनाना होगा। कश्मीर समस्या के बारे में माक्र्सवादियों के अपने विचार होंगे और इसके हल करने के तरीके के बारे में उनकी अपनी विशेष सोच होगी मगर इसका सेना की भूमिका से कोई लेना-देना नहीं है। कश्मीर समस्या पर उनका मतभेद भाजपा या केन्द्र सरकार से हो सकता है मगर इसके लिए सेना को निशाना बनाना पूरी तरह अनुचित है। भारत के कम्युनिस्टों का यह मत रहा है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। यहां तक कि 1956 में सोवियत संघ के सर्वोच्च कम्युनिस्ट नेता स्व. ख्रुश्चेव जब भारत यात्रा पर आये थे तो उन्होंने साफ कहा था कि जम्मू-कश्मीर कोई अन्तर्राष्ट्रीय समस्या नहीं है। इसका विलय भारत में हो चुका है। असली सवाल इस राज्य में लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सर्वत्र पुनस्र्थापना है जिसे पाकिस्तान परस्त तंजीमें नहीं होने देना चाहती हैं। बेहतर होता श्री करात इस बारे में कोई सम्पादकीय लिखते।

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