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कश्मीरः सौ दिन चले अढ़ाई कोस

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जम्मू-कश्मीर की चार साल पुरानी पीडीपी-भाजपा गठबन्धन सरकार का आज अन्त हो गया। इस दौरान जम्मू-कश्मीर राज्य की समस्या में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि इसके उलट जमीन पर मसले और उलझते चले गए जिससे यह कहा जा सकता है कि दो धुर विरोधी विचारों की पार्टियों के बीच बने गठबन्धन का प्रयोग पूरी तरह असफल रहा। यह सौ दिन चले अढ़ाई कोस की कहावत को याद दिलाने जैसा ही है। जब 2015 में स्व. मुफ्ती मुहम्मद सईद ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई थी तो इसे चुनावों से उपजे जनादेश के गणित की मजबूरी बताते हुए कहा गया था कि इससे कश्मीर घाटी में उभरी बड़ी पार्टी पीडीपी और जम्मू क्षेत्र की सर्वाधिक सीटें लेकर आने वाली भाजपा के करीब आने से पूरे सूबे में राष्ट्रीय व क्षेत्रीय शक्तियों का समागम इस तरह होगा कि राज्य की पेचीदा स्थिति को सुधारने मे मदद मिलेगी परन्तु यह समागम केवल सत्ता का सुविधावादी मंच ही साबित हुआ और इसने पहले से ही सुलगते कश्मीर को और ज्यादा झुलसा दिया। यह इसी तथ्य का प्रमाण था कि ये दोनों पार्टियां कश्मीर समस्या को पूरी तरह अलग- अलग नजरिये से देखती हैं।

भाजपा का नजरिया जहां राष्ट्रवाद के साये में कश्मीर समस्या का हल देखता है वहीं पीडीपी का दृष्टिकोण कश्मीर मूलक नागरिकता के आधार पर राष्ट्रीयता में जगह तलाशता है। राजनीतिक आधार पर इन दोनों नजरियों में आधारभूत विरोधाभास है। इसके बावजूद इन दोनों का गठबन्धन चार साल तक चला और जनवरी 2016 में मुफ्ती साहब की मृत्यु के बाद सरकार की बागडोर पीडीपी की नेता उनकी पुत्री महबूबा मुफ्ती के हाथ में रही लेकिन अब उनकी सरकार से भाजपा ने हाथ खींच लिया जिसकी वजह से महबूबा ने इस्तीफा राज्यपाल एन.एन. वोहरा को सौंप दिया। जाहिर तौर पर अब राज्य में राज्यपाल शासन ही विकल्प नजर आता है मगर इससे केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा की जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ जाएगी। उस पर कश्मीर के भीतर पनप रहे आतंकवाद को शान्त करने के लिए दबाव इस तरह बढ़ेगा कि पड़ोसी देश पाकिस्तान की इस बाबत की जा रही सारी कोशिशों पर पानी फिर जाए मगर जम्मू-कश्मीर का दुर्भाग्य यह रहा कि जब 1990 से लेकर 1996 तक यहां राज्यपाल शासन था तो राज्य की राजनीतिक समस्या का साम्प्रदायीकरण हो गया और पाकिस्तान की तरफ से इस राज्य में मजहबी तास्सुब फैलाने की कोशिशें की गईं।

बिना शक रियासत की सियासत में वजनदार समझी जाने वाली नेशनल कान्फ्रेंस, पीडीपी व कांग्रेस ने आपस में 2002 से 2015 तक मिली-जुली सरकारें बनाकर आम लोगों में वह विश्वास पैदा नहीं किया जिससे कश्मीरी नागरिकों की वास्तविक समस्याओं के हल के लिए आन्तरिक स्तर पर कोई कारगर ढांचा खड़ा किया जा सके। इस दौरान कोई भी चुनी हुई सरकार राज्य के अन्दरूनी मामलों में फौज की भूमिका को कम करने का कोई उपाय नहीं सुझा सकी। इस मोर्चे पर केवल कोरी बयानबाजी होती रही जिससे कश्मीरियों में और ज्यादा गफलत ही पैदा हुई। इसका लाभ लगातार पाकिस्तान उठाता रहा और घाटी में आतंकवाद को पनपाता रहा तथा स्थानीय लोगों को इसमें शामिल करने के लिए उसने उस फौज को ही निशाना बनाना शुरू कर दिया जिसे आम कश्मीरी अपना मुहाफिज मानता था। पीडीपी- भाजपा गठबन्धन सरकार के चार सालों के दौरान राज्य में उग्र रूप से फैले इस विचार-प्रदर्शन को ठंडा करना अब पहला मुख्य काम होना चाहिए क्योंकि इसकी जड़ें कश्मीर की सियासत में दबी हुई हैं।

पीडीपी और नेशनल कांफ्रैंस की आपसी लागडांट में उपजी पत्थर मारने की संस्कृति ने जो रौद्र रूप लिया है उसका सिरा अब कश्मीर से निकल कर पाकिस्तान से जुड़ गया है। इतना ही नहीं सेना को बेइज्जत करने और उसके प्रति तिरस्कार का भाव स्व. मुफ्ती मुहम्मद सईद के 2002 से 2005 के शासन के दौरान ही शुरू हुआ था। इसके विरोध में बाद मे कांग्रेस व पीडीपी तथा कांग्रेस व नेशनल कांफ्रैंस की सरकारों ने भी कोई सकारात्मक वैकल्पिक विचार पैदा नहीं किया और न ही पीडीपी-भाजपा सरकार ही कोई मजबूत नजरिया पेश कर पाई जिसकी वजह से आज देशभक्त कश्मीरी लोगों को मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है वरना कोई वजह नहीं है कि जम्मू-कश्मीर के लोग भारत के समन्वित और व्यापक दायरे को अपना सुरक्षा कवच न मानें।

सरकार से हटने के बाद महबूबा मुफ्ती का यह कहना कि भाजपा के साथ रहते हुए उन्होंने अनुच्छेद 370 को बाकायदा सुरक्षित रखा और रमजान के महीने में इकतरफा युद्ध विराम लगवा कर अपनी नीयत साफ कर दी, किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं है क्योंकि महबूबा के रहते ही पत्थरबाजों की रिहाई होने के बावजूद एेसी गतिविधियां और बढ़ीं तथा युुद्ध विराम का फैसला गृहमन्त्री राजनाथ सिंह ने यह सोच कर किया था कि आम कश्मीरी एेसे सच्चे भारतीय हैं जो आतंकवाद को एक सिरे से खारिज करते हैं। इस सदाशयता को तोड़ने का काम अलविदा जुम्मे के दिन जितनी दरिंदगी के साथ पत्रकार शुजात बुखारी व एक सैनिक औरंगजेब की हत्या करके किया गया उससे महबूबा सरकार की बेचारगी साबित हुई। अतः एेसी बेचारी सरकार के काबिज रहने का कोई मकसद नहीं बचता है। जहां तक अनुच्छेद 370 का प्रश्न है तो वह संवैधानिक अनिवार्यता है। राजनीतिक बयानबाजी से इसे केवल संदेहों में खड़ा किया जा सकता है क्योंकि इसी अनुच्छेद को किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं जम्मू-कश्मीर के लोगों ने अपनी विधानसभा के माध्यम से संशोधित किया था और यहां के चुने हुए सत्ता प्रमुख को प्रधानमन्त्री से मुख्यमन्त्री और राज प्रमुख को सदरे सियासत की जगह राज्यपाल कहना लाजिमी कर दिया था। यह काम 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण से पहले ही किया गया था।

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