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कश्मीर‘कोसावो’ नहीं है!

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कश्मीर समस्या का जिस तरह पुनः अन्तर्राष्ट्रीयकरण हो रहा है उससे भारत को सावधान होने की जरूरत हैऔर भारत के इस मुकुट कहे जाने वाले राज्य को जो ताकतें ‘कोसावो’ बनाना चाहती हैं उन्हें चौतरफा घेरने की जरूरत है। राष्ट्रसंघ के जिनेवा स्थित मानवीय अधिकार उच्चायोग कार्यालय ने इस सूबे के भारतीय संघ में विलय होने के बाद पहली बार अपनी रिपोर्ट जारी करके जिस तरह कश्मीर में मानव अधिकारों के हनन चिन्ता का विषय बताते हुए भारतीय सेनाओं की भूमिका की आलोचना की है और इसके लिए भारत सरकार की नीतियों को जिम्मेदार बताया है वह इस समस्या में किसी तीसरे पक्ष की अपेक्षित दखलंदाजी की तरफ इशारा कर रहा है। अपनी रिपोर्ट में उच्चायोग कार्यालय ने पाक अधिकृत कश्मीर को ‘आजाद कश्मीर’ इलाका बताते हुए मानव अधिकारों की बात कही है मगर उसे नागरिक विचार स्वतन्त्रता के दायरे में ज्यादा रखा है और कहा है कि इस इलाके के गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र के लोगों को पाकिस्तानी हुकूमत ने विरोध प्रकट करने के हक से महरूम रखा हुआ है और उन पर जोर–जुल्म भी गालिब किया हुआ है।

रिपोर्ट में यह तो स्वीकार किया गया है कि 80 के दशक के अन्त से भारतीय कश्मीर मे सक्रिय दहशत गर्द गिरोहों ने आम नागरिकों की हत्याएं और अपहरण किये हैं। पाकिस्तान की सरकार के इन्हें समर्थन न देने के दावे के बावजूद इस मुल्क की फौज का इन गिरोहों को समर्थन जारी है। मगर भारत के बारे में उच्चायोग ने जो टिप्पणी की है वह पूरी दुनिया में इस शान्तिप्रिय लोकतान्त्रिक देश की छवि को बिगाड़ने वाली कही जाएगी क्यों​िक इसने मध्य जुलाई 2016 से मार्च 2018 तक सुरक्षा बलों द्वारा कुल 165 व्यक्तियों को गैर कानूनी तरीके से मौत के घाट उतारे जाने की बात कही है आैर लिखा है कि बड़ी संख्या में नागरिक जख्मी भी हुए। नागरिकों के विरोध-प्रदर्शन पर भारतीय सेना द्वारा पेलेट शाट गन का प्रयोग किए जाने को इसने खतरनाक तरीका बताया है और 1990 से लागू सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम ( अफस्पा) और नागरिक सुरक्षा अधिनियम –1978 को नागरिक अधिकारों के उल्लंघन का खुला जरिया बताते हुए इन्हें न्यायपूर्ण कानून के शासन में अवरधक तक कहा है। जाहिर है कि उच्चायोग का यह मत भारत की उस संप्रभुता और सार्वभौमिकता को चुनौती देता सा लगता है जो संविधान के तहत इसकी चुनी हुई सरकार को प्राप्त है और जिसके तहत इसकी भौगोलिक सीमाओं की रक्षा करना उसका दायित्व है।

बेशक भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवीय अधिकार अध्याय से जुड़ा हुआ है परन्तु राष्ट्र विरोधी गतिविधियों पर अंकुश लगाने का उसे पूरा अधिकार है। इसके साथ यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को भारतीय संविधान में इस प्रकार स्वतन्त्रता दी गई है कि वे अपनी सामाजिक व आर्थिक संरचना की व्यवस्था स्वयं अपने विशिष्ट संविधान के तहत करें। इसी वजह से हर छह साल बाद यहां होने वाले चुनावों के जरिये आम कश्मीरी अपनी मनपसन्द सरकार का चुनाव करता है। इस प्रणाली के तहत सभी प्रकार की नागरिक शिकायतों के निपटारे का मजबूत ढांचा बना हुआ है। सवाल यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि लगभग 1990 से शुरू हुए इस राज्य मे आतंकवाद को पनाह देने का काम कौन कर रहा है? बकौल उच्चायोग के यदि पाकिस्तानी फौज का दहशतगर्दी को समर्थन जारी है तो इसकी जिम्मेदारी किस पर जाती है? जाहिर है कि पाकिस्तान पूरे जम्मू-कश्मीर में एसा माहौल बना देना चाहता है जिससे भारत की सरकार को आतंकवाद समाप्त करने के लिए सख्त कदम उठाने पड़ें और माकूल जवाबी कार्रवाई करनी पड़े।

बेशक हिन्दोस्तान की सरकार ने स्व. पी.वी. नरसिमहाराव के प्रधानमन्त्री रहते जम्मू-कश्मीर की हकीकत को पहचानने में गलती की थी और अपने से पहली वी.पी. सिंह सरकार की गलतियों को सुधारने के बजाय इस राज्य में अलगाववादियों को फलने–फूलने दिया था मगर इसके बाद की सरकारों ने भी कभी पाकिस्तान के कब्जे से उस कथित आजाद कश्मीर को लेने की रणनीति तैयार नहीं की जिस पर भारत का संवैधानिक हक है। 1972 में स्व. इंदिरा गांधी ने जो ऐतिहासिक शिमला समझौता करके पाकिस्तान को चारों तरफ से बांध दिया था उससे बाहर निकलने के लिए पाकिस्तान लगातार कूटनीतिक शतरंजी बाजियां चलता रहा और हम कश्मीर को हिन्दू–मुस्लिम खेमों में बंटते देखते रहे।

हम भूल गए कि हमने 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर डाले थे जिससे तिलमिलाया हुआ पाकिस्तान हमारी एकता को तोड़ने की हर चाल चलने से बाज नहीं आ रहा था। क्या गजब हुआ कि हमने अपनी ही धरती पर आए हुए पाकिस्तानी फौजी हुक्मरान के मुंह से 1948 के राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव का जिक्र तो सुना मगर शिमला समझौते की बात नहीं सुनी। यह ध्यान रखा जाना चाहे कि पाकिस्तान की राष्ट्रीय असैम्बली के अगले महीने जुलाई में ही चुनाव होने जा रहे हैं और वहां की सियासत मे कट्टरपंथियों के हाथ में कश्मीर मुद्दा भारत से दुश्मनी को तल्ख करने का औजार बन सकता है जिसकी वजह से भारत के शांति प्रयासों को धक्का लग सकता है अतः सभी राजनीतिक दलों को एक मत से भारत के इस प्रण का पालन करना चाहिए कि पूरा ‘जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है’ इसमें कोई तीसरा पक्ष हस्तक्षेप नहीं कर सकता। सर्बिया के राज्य ‘कोसावो’ की तरह इसकी परिस्थितियां बताने की कोई बी साजिश कामयाब नहीं हो सकती।

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