अमरनाथ यात्रियों पर हुए आतंकवादी हमले की निन्दा पूरे देश में सभी पक्षों द्वारा एक स्वर से की गई है और यहां तक कि कश्मीर की हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने भी इसकी पुरजोर मजम्मत की है। मीरवाइज उमर फारूक ने तो इस हमले को कश्मीर की संस्कृति पर हमला तक बताया है। इस जज्बे का सभी भारतवासियों ने स्वागत किया है और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इसी का इस्तकबाल करते हुए ‘कश्मीरियत’ की बंदगी की है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि हमले को अंजाम देने में लश्करे तैयबा का हाथ है मगर यह भी सवाल अपनी जगह पर वाजिब है कि पूरे जम्मू-कश्मीर में पुख्ता और जंगी इंतजाम होने के बावजूद यह हमला किस तरह हो गया। इसकी जवाबदेही से सरकार नहीं बच सकती। भारत ऐसा लोकतांत्रिक देश है जिसमें प्रशासन की हर चप्पे-चप्पे पर जिम्मेदारी तय रहती है इसलिए आम लोगों को सरकार से यह पूछने का अधिकार है कि किस तरह आतंकवादियों ने 24 घंटे कड़ी सुरक्षा में रहने वाले कश्मीर में आए अमरनाथ यात्रियों को अपना निशाना बना लिया। विपक्षी दलों का इस बारे में सवाल उठाना गैर-वाजिब नहीं है, क्योंकि गुजरात की जो बस अमरनाथ यात्रियों को वापस श्रीनगर से जम्मू-कटरा ले जा रही थी वह राज्य सरकार और प्रशासन द्वारा किये गये सुरक्षा इंतजामों की पाबंदी में ही थी। उसकी सुरक्षा में यदि चूक हुई है तो उसका मुआवजा सिर्फ आंसू बहा कर पूरा नहीं किया जा सकता, बल्कि ऐसे हादसों की जिम्मेदारी तय करने से ही पूरा हो सकता है।
सवाल यह पैदा होता है कि इस बस को सुरक्षा घेरे से बाहर जाने की इजाजत किस तरह मिल गई और इसमें सवार यात्रियों की जान को जोखिम में डाल दिया गया। इन सवालों के पीछे राजनीति ढूंढने की कोशिश बेकार है, क्योंकि इनका सीधा संबंध प्रशासकीय व्यवस्था से है। मुझे याद है जब 2002 में अमरनाथ यात्रा पर ही गये तीस यात्रियों की हत्या कर दी गई थी तो भारत की संसद में कोहराम मच गया था और तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण अडवानी से एक स्वर से समूचे विपक्ष ने इस्तीफे की मांग कर डाली थी। तब अडवानी का मन इतना खिन्न हुआ था कि वह राज्यसभा में कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद द्वारा इस्तीफा मांगे जाने के बाद कोरे कागज पर कुछ लिखने भी बैठ गये थे, परन्तु वर्तमान में स्थितियां 2002 जैसी नहीं हैं। कश्मीर में खुलेआम पाकिस्तानी ताकतें जेहाद छेड़े हुए हैं। स्थानीय लोगों को बरगला कर ये ताकतें भारत की एकता को तोडऩा चाहती हैं और कश्मीर में कट्टरपंथ को फैलाना चाहती हैं मगर इन ताकतों को यह इल्म नहीं है कि कश्मीर में कट्टरपंथ किसी भी तौर पर पैर नहीं पसार सकता, क्योंकि इस सूबे की संस्कृति हिन्दोस्तानियत से ऊपर से लेकर नीचे तक इस कदर सराबोर है कि यहां के पवित्र अमरनाथ तीर्थ स्थल का मुख्य पुजारी का कार्यभार एक मुसलमान नागरिक ही संभालता है।
ये कश्मीरी ही हैं जो सदियों से हिन्दू तीर्थ यात्रियों के सेवक बनकर उन्हें पवित्र गुफा तक के दुर्गम मार्ग को पार कर भगवान भोलेनाथ के दर्शन कराते रहे हैं। ये कश्मीरी मुसलमान ही हैं जो पवित्र गुफा के निकट भोलेशंकर की शृंगार सामग्री से लेकर विभिन्न वस्तुओं को बेचते हैं और यात्रियों की पुन: आगमन की प्रतीक्षा करते हैं। आतिथ्य सत्कार का यह हिन्दोस्तानी भाव कश्मीरियों की पहचान है। अत: जब भी यात्रियों पर किसी प्रकार का संकट आता है तो सबसे पहले कश्मीरी ही शोक में डूब जाते हैं मगर पाकिस्तान कश्मीर से इसी ‘कश्मीरियत’ को खत्म करना चाहता है और मौका मिलते ही उसकी नामुराद फौजों की शह पर काम करने वाली दहशतगर्द तंजीमें ऐसी वहशियाना हरकतों को अंजाम दे देती हैं। उसकी इन्हीं हरकतों का जवाब देने के लिए तो इस राज्य में फौज से लेकर अद्र्धसैनिक पुलिस बल व पुलिस रात-दिन चौकसी में लगे हुए हैं। यदि इस चौकसी को तोडऩे में लश्करे तैयबा कामयाब हो जाता है तो हमें जरूर अपने भीतर उसी तरह झांक कर देखना होगा जिस तरह हमने 2008 नवम्बर में मुम्बई पर हमला होने के बाद देखा था। उस समय भाजपा विपक्ष में थी और इसके नेताओं ने संसद से लेकर सड़क तक मनमोहन सिंह सरकार को कठघरे में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
तब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल को तो इस्तीफा देना ही पड़ा था, बल्कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देशमुख को भी अपना बोरिया-बिस्तरा बांधना पड़ा था और रक्षामंत्री एके एंटोनी ने साफ कह दिया था कि वह इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं मगर अमरनाथ बस यात्रियों की हत्या के मामले में जम्मू-कश्मीर के उपमुख्यमंत्री निर्मल सिंह बयान दे रहे हैं कि बस के जाने में सुरक्षा चूक हुई है। नियमों का ध्यान नहीं रखा गया है। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती फरमा रही हैं कि हम कश्मीरियों का सिर शर्म से झुक गया है लेकिन असली सवाल वहीं का वहीं है कि यात्रियों से भरी बस को क्यों ‘लावारिस वाहन’ की तरह रात में खतरनाक रास्ते पर सफर करने दिया गया। लोकतंत्र में जो जनता को मूर्ख समझता है उससे बड़ा मूर्ख कोई दूसरा नहीं होता। हम पाकिस्तान की मंशा जानते हैं खासतौर पर इस मुल्क की नामुराद फौज की नीयत को पहचानते हैं, क्योंकि इसके अपने वजूद के लिए कश्मीर का लगातार विवादों में रहना जरूरी शर्त है। इसके बावजूद इस जमीन में फल-फूल रही दहशतगर्द तंजीमें हमारी जमीन पर आकर हमारी गैरत को ललकारने की हिमाकत कर जाती हैं। कश्मीर को ही अपनी ‘कश्मीरियत’ बचाने के लिए हमें तैयार करना होगा और पाकिस्तान के कब्जे में पड़े उस कश्मीर को सबसे पहले अपने कब्जे में लेना होगा जिसे पाकिस्तान ने दहशतगर्दों का जंगी अखाड़ा बनाकर वहां ‘कश्मीरियत’ को रौंद डाला है।