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कावेरी का जल और किसान संकट

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कावेरी नदी के जल बंटवारे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना जिस तरह केन्द्र सरकार ने संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण के चलते की है उससे पूरे देश में यह सन्देश चला गया है कि सरकार किसानों की समस्याओं को चुनावी चौसर की तराजू पर रखकर तोलती है। किसानों के खेतों में बिना पानी के कुछ भी पैदा नहीं हो सकता और सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी न मिलने से उसकी खेतों में खड़ी फसल कभी पूरी उपज नहीं दे सकती।

विगत 16 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि छह सप्ताहों अर्थात 29 मार्च तक केन्द्र सरकार कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल व पुड्डुचेरी के मध्य कावेरी नदी का जल बंटवारा करने हेतु एक प्रबन्धन मंडल का गठन कर दे और उसके बताये फार्मूले के अनुरूप जल का बंटवारा करे। संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण 5 मार्च से शुरू होकर 6 अप्रैल तक चला और इस मुद्दे पर तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक पार्टी के सांसद पूरे सत्र में लोकसभा में अध्यक्ष के आसन के निकट आकर ‘वी वांट जस्टिस’ के नारे लगाते रहे और हो-हो की आवाजें निकालते रहे।

वास्तव में प्रबन्धन मंडल के गठन की मंजूरी संसद को नहीं देनी थी। यह पूरी तरह एक अधिशासी फैसला था मगर सरकार ने 30 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दाखिल कर दी जिसकी सुनवाई 9 अप्रैल को हुई। इसमें सरकार की तरफ से कहा गया कि कर्नाटक के चुनावों को देखते हुए माननीय न्यायालय अपने आदेश के पालन की तििथ तीन महीने आगे कर दे जबकि यह हकीकत है कि कर्नाटक के चुनावों की तारीख घोषित करते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त ने साफ कर दिया था कि न्यायालय के आदेश की अनुपालना में आदर्श चुनाव आचार संहिता आड़े नहीं आएगी। इससे स्पष्ट था कि सरकार यदि चाहती तो जल प्रबन्धन बोर्ड का गठन कर सकती थी।

पिछले कई दशकों से कर्नाटक व तमिलनाडु के बीच में कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर जो विवाद चल रहा था उसे सर्वोच्च न्यायालय ने चारों राज्यों के बीच उनके हिस्से के वाजिब पानी का बंटवारा करके निपटा दिया मगर इस बार केन्द्र सरकार अपना दायित्व पूरा करने से पीछे केवल इसलिए हट गई कि कहीं 12 मई को कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनावों पर इसका प्रभाव न पड़े।

इसके साथ ही संसद में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक पार्टी सांसदों ने परोक्ष रूप से सत्ताधारी पार्टी भाजपा की मदद शोर-शराबा और हंगामा खड़ा करके की उससे सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों द्वारा रखा जाने वाला अविश्वास प्रस्ताव विचारार्थ स्वीकृत नहीं किया गया क्योंकि लोकसभा में व्यवस्था न बन पाने को इसकी अध्यक्ष ने प्रमुख कारण बताया। इससे कहीं न कहीं यह संदेश गया कि केन्द्र सरकार जानबूझ कर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करना नहीं चाहती क्योंकि एक तरफ उसे कर्नाटक में अपनी पार्टी भाजपा का चुनावी भविष्य देखना था और दूसरी तरफ स्वयं अपना चेहरा साफ दिखाये रखना था।

हालांकि इस राजनीति में संसद का चेहरा जरूर दागदार हो गया जिसमें 5 मार्च से 6 अप्रैल तक एक दिन भी कामकाज कायदे से नहीं हो सका परन्तु 9 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को आदेश दिया है कि वह आगामी 3 मई तक जल बंटवारे के बारे में एक स्कीम तैयार करके उसके सामने पेश हो जिससे कावेरी नदी का जल उसी प्रकार से चारों राज्यों के बीच में बंट सके जिसकी घोषणा 16 फरवरी को न्यायालय ने की थी।

मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने यह तो साफ कर दिया कि वह सरकार को और आगे तीन महीने स्कीम तैयार करने के लिए नहीं देगी। उसे अब 3 मई को स्कीम का खाका तैयार करके न्यायालय के पास आना चाहिए जिससे यह पता लग सके कि उसकी इस बारे में नीयत नेक है। सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक को पिछले राज्य नदी जल पंचाट के फैसले से हटकर कर्नाटक को थोड़ा अधिक पानी दिया था और बेंगलुरु शहर के लिए पेयजल उपलब्ध कराने हेतु यह परिवर्तन किया था। तमिलनाडु के हिस्से में पानी को थोड़ा कम किया गया था मगर इसकी भरपाई कावेरी के तटवर्ती इलाकों से भूमिगत जल निकालने की इजाजत देकर की गई थी।

हालांकि तमिलनाडु में इस फैसले को लेकर थोड़ा गुस्सा था किन्तु इसके बावजूद न्यायालय के फैसले को सभी राज्य मानने को तैयार थे तो केन्द्र ने अपना पेंच लगा दिया। जाहिर तौर पर गर्मियां शुरू होने पर जल संकट गहराता है जिससे एेतिहासिक रूप से कावेरी नदी के जल पर निर्भर तमिलनाडु के किसानों का व्याकुल होना स्वाभाविक है। कावेरी को दक्षिण की जीवनदायिनी सलिला इसीलिए कहा गया है कि यह यहां के सूखे इलाकों को हरा-भरा बनाती है। सवाल कर्नाटक या तमिलनाडु का नहीं बल्कि भारत का है क्योंकि किसान चाहे किसी भी राज्य का हो, धरती का सीना चीर कर अन्न उगाता है और उसके लिए जल जरूरी होता है। अतः चुनाव तो आते-जाते रहेंगे मगर प्यासी धरती बिना जल के हरी-भरी नहीं रह सकती इसलिए सबसे पहले इसी तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए। कर्नाटक में कोई भी पार्टी जीते या हारे मगर किसान नहीं हारना चाहिए।

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