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निन्दक नियरे राखिये

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भारत का लोकतन्त्र इतना कमजोर नहीं है कि किसी राजनीतिक दल के सत्ता से बाहर होने पर उसके राष्ट्र निर्माण में किये गये योगदान को हाशिये पर डालकर उसके नेताओं की अवमानना करने लगे। हमारी संसदीय प्रणाली में जिस लोकसभा का गठन प्रत्यक्ष चुनावों के माध्यम से होता है उसमें बैठने वाले प्रत्येक सदस्य को आम जनता ही चुनकर भेजती है। अतः प्रधानमन्त्री से लेकर साधारण सदस्य तक की इस सदन में बैठने की पात्रता आम मतदाता को मिले उस एक वोट के अधिकार से ही तय होती है जो संविधान ने उसे दिया हुआ है। इस सदन के भीतर सरकार का गठन किसी एक दल या बहुत दलों के गठबन्धन से बने बहुमत के आधार पर होता है और इसका नेता प्रधानमन्त्री के पद पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है, मगर इसी सदन में जो अल्पमत का पक्ष होता है उसे ‘विपक्ष’ कहा जाता है और इसके नेता की हैसियत सीधे प्रधानमन्त्री से किसी भी मुद्दे पर जवाब-तलबी की होती है। सभी राष्ट्रीय पर्वों पर हमारी संसदीय प्रणाली के सभी अंगों की शिरकत इस प्रकार रहती है कि समूचा देश एक स्वर से अपनी महान विरासत और वर्तमान का उत्सव संगठित होकर मना सके। एेसे पर्वों में विपक्षी दलों के नेताओं की अहमियत को कभी भी कम करके नहीं तोला जाता क्योंकि हमारी बहुरंगी व बहुआयामी संसदीय प्रणाली में जड़े हुए वे एेसे हीरे होते हैं जिनके बिना हमारा राजनीतिक तन्त्र आभाहीन हो जाता है।

हमारे लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक प्रतिस्पर्धा विचारों की एेसी प्रतिद्वन्दिता होती है जिसमें व्यक्तिगत सम्मान को इसके दायरे से बाहर रखा जाता है। गणतन्त्र दिवस एेसा राष्ट्रीय पर्व होता है जिसका किसी राजनीतिक दल या उसकी सरकार से सम्बन्ध न होकर इस गणतन्त्र में भागीदार हर व्यक्ति से लेकर राजनीतिक दल तक का सरोकार होता है। इसमें कम्युनिस्टों से लेकर कांग्रेस व सभी क्षेत्रीय दल तक आते हैं क्योंकि सभी दल भारतीय संविधान की परिधि के भीतर अपनी राजनीतिक गतिविधियां चलाने की कसम उठाते हैं। यह महान और शानदार विरासत हमें देश को आजादी दिलाने वाले कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने ही सौंपी है और इस तरह सौंपी है कि वक्त बदलने पर भारत के लोग अपनी मनपसन्द के किसी भी राजनीतिक दल की सरकार बनवा सकें। श्री राहुल गांधी इसी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष हैं। गणतन्त्र दिवस पर लोकसभा में उनकी पार्टी के जीते हुए अपेक्षाकृत कम स्थानों से उनकी पार्टी की भूमिका भारत को महान लोकतान्त्रिक व गणतन्त्र देश बनाने में कम नहीं हो सकती। कांग्रेस शासनकाल में ही वे महान परंपराएं हमारे लोकतन्त्र में पड़ीं जिनके तहत विपक्षी पार्टियों के नेताओं का सम्मान हर राष्ट्रीय पर्व पर समान रूप से किया गया। पं. जवाहर लाल नेहरू तो एेसे प्रधानमन्त्री थे जिन्होंने एक बार नहीं बल्कि कई बार लिखा कि भारत में कोई भी सरकार तब तक बेहतर काम नहीं कर सकती जब तक कि उसके कामों की समालोचना करने वाला मजबूत विपक्ष न हो।

वास्तव में विपक्षी नेताओं का सम्मान व एहतराम करके कोई भी सरकार आम जनता का ही सम्मान करती है क्योंकि विपक्षी नेताओं के साथ भी लोगों का बहुमत होता है और किसी भी दल की सरकार के संचालन में उनकी सक्रिय हिस्सेदारी संसद के माध्यम से होती है। 26 जनवरी के समारोह में श्री राहुल गांधी को दर्शकों की छठी पंक्ति में जिस प्रकार स्थान दिया गया उससे यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हमारी सरकार इतनी कमजोर है कि वह कांग्रेस अध्यक्ष के अगली पंक्ति में बैठने भर से फीकी पड़ जायेगी ? राहुल गांधी यदि अगली पंक्ति में बैठते तो गणतन्त्र दिवस पर ‘आसियान’ देशों के आये राष्ट्राध्यक्षों को यही सन्देश जाता कि भारत एेसा देश है जो अपने राष्ट्रीय पर्वों पर राजनीति को ताक पर रख देता है। 26 जनवरी तो संविधान के लागू होने की वर्षगांठ के तौर पर मनाई जाती है, जबकि भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को ही बाबा साहेब अम्बेडकर ने संविधान सभा को सौंप दिया था मगर तब की पं. नेहरू सरकार ने इस संविधान को लागू करने का दिन अगले साल 1950 तक इसीलिए टाला क्योंकि आजादी मिलने तक अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष कर रही कांग्रेस पार्टी हर साल 26 जनवरी को ही ब्रिटिश भारत में ‘आजादी दिवस’ मनाती थी।

अतः वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष को पीछे बिठा कर हमने अपनी कमजोरी को ही उजागर किया है। जो लोग इस गलतफहमी में हैं कि भारत का विकास किसी एक व्यक्ति ने किया है अथवा कोई एक व्यक्ति यह महान काम कर सकता है वे मूर्खों के संसार में रहते हैं क्योंकि 15 अगस्त 1947 को पूरे भारत का बजट मात्र 259 करोड़ रु. का था। 1977 में जब मोरारजी देसाई की सरकार ने एक हजार, पांच हजार व दस हजार रु. के नोट बन्द किये तो पूरे देश में कुल मुद्रा प्रसार आठ हजार करोड़ रु. से कुछ ज्यादा का था और आज जब वित्तमन्त्री सात दिन बाद बजट पेश करने जायेंगे तो यह बजट निश्चित रूप से 17 लाख करोड़ रु. के बराबर का होना चाहिए। मौजूदा सरकार द्वारा जो नोटबन्दी की गई थी उसमें पांच सौ और एक हजार रु. के नोट ही 15 लाख करोड़ से ऊपर प्रसार में थे। अतः यह सारा विकास हमने मिलजुल कर किया है और भारत के आम आदमी के बूते पर उसे लगातार सशक्त करते हुए इसी संविधान का पालन करते हुए किया है और यह समझ कर किया है कि असली सत्ता के मालिक वे मतदाता हैं जिनके एक वोट से सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। हमारी असली विरासत वह गांधी बाबा है जिसने कहा था कि लोकतन्त्र की सबसे बड़ी पहचान यह होती है कि उसमें अपने विरोधी को कितना सम्मान दिया जाता है और किसी भी आदमी के बड़े होने की शर्त यह होती है कि वह अपने से छोटे आदमी के साथ कैसा व्यवहार करता है। यही वजह थी कि ‘‘महात्मा गांधी से जब वाशिंगटन पोस्ट के भारत स्थित विशेष संवाददाता लुई फिशर ने पूछा था कि आप अपने राजनीतिक विरोधी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहेंगे तो महात्मा ने जवाब दिया था कि मैं उसे अपने से ऊंचे स्थान पर बिठाकर उसकी बात सुनना पसन्द करूंगा।’’ गांधी ने कुछ विशेष नहीं कहा था बल्कि सन्त तुलसीदास की उसी उक्ति को घुमाकर कहा थो जो भारत के गांवों में आज भी प्रचलित है कि
निन्दक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय।

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