केजरीवाल का इस्तीफा!

केजरीवाल का इस्तीफा!
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दिल्ली के मुख्यमन्त्री श्री अरविंद केजरीवाल ने दो दिन के भीतर अपने पद से इस्तीफा देने का ऐलान करके राजधानी की राजनीति में भूचाल लाने का जरूर प्रयास किया है मगर इसे वर्तमान परिस्थितियों के बीच एक ऐसा कदम भी माना जा रहा है जो भविष्य के संभावित राजनैतिक अचम्भे की काट में चला गया है। राजधानी की राजनीति में केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा व केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) के बीच आंख- मिचौली का खेल 2013 से तब से ही चल रहा है जब पहली बार केजरीवाल केवल 49 दिनों के लिए कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमन्त्री बने थे। राजनैतिक क्षेत्र में यह चर्चा बहुत गर्म थी कि अरविन्द केजरीवाल को जिन सख्त शर्तों पर सर्वोच्च न्यायालय ने जेल से जमानत पर रिहा किया है उनके मद्देनजर मुख्यमन्त्री के औहदे का रुतबा बहुत नीचे आ गया है अतः भाजपा दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाने की सोच रही थी। इसकी वजह यह थी कि जमानत की शर्तों के मुताबिक मुख्यमन्त्री अपनी कुर्सी पर नहीं बैठ सकते थे, किसी फाइल पर दस्तखत नहीं कर सकते थे, सचिवालय नहीं जा सकते थे जिसे भाजपा ने यह संज्ञा दी थी कि 'अदालत से केजरीवाल व्यक्ति के रूप में छूटे हैं एक मुख्यमन्त्री के रूप में नहीं' अतः उसका राष्ट्रपति शासन लगाना दिल्ली के लोगों को वाजिब लगता। कहा जा रहा है कि श्री अरविन्द केजरीवाल ने भाजपा की मंशा भांप कर ही नहले पर दहला मारते हुए अपने पद से 48 घंटे के भीतर इस्तीफा देने की घोषणा कर दी और सबको भौचक्का कर दिया। केजरीवाल ने इसके साथ ही यह भी घोषणा कर दी कि अगला मुख्यमन्त्री पूर्व उपमुख्यमन्त्री मनीष सिसोदिया को भी नहीं चुना जायेगा और इस पद पर किसी अन्य व्यक्ति को बैठाया जाएगा। अतः आप पार्टी में अब अगले मुख्यमन्त्री की खोज भी शुरू हो गई है। बेशक श्री केजरीवाल एक बुद्धिमान राजनीतिज्ञ माने जाते हैं और दिल्ली की जनता में उनकी लोकप्रियता भी सन्देह से परे मानी जाती है। मगर इसके साथ यह भी स्वीकार करना होगा कि दिल्ली के मतदाता भी बुद्धिमत्ता में किसी से कम नहीं हैं। पिछले दिनों हुए लोकसभा चुनावों के दौरान भी सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव प्रचार के लिए श्री केजरीवाल को जमानत पर रिहा किया था। इसमें केजरीवाल ने दिल्ली वालों से अपील की थी कि वे 'जेल के बदले वोट' से चुनावों में उत्तर दें मगर राजधानी की सभी सातों सीटों पर मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी को जिताया जबकि आप पार्टी का कांग्रेस से गठबन्धन था। अब केजरीवाल ने इस्तीफे का एेलान करते हुए कहा कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभाओं के चुनावों के साथ नवम्बर महीने तक कराये जाये और वह अपने पद पर तभी लौटेंगे जब दिल्ली की जनता चुनावों में यह बता देगी कि वह भ्रष्टाचारी हैं या ईमानदार। हालांकि दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल 23 फरवरी 2025 तक का है। बेशक केजरीवाल ताल ठोक कर अपने काम पर जनता से वोट मांगने वाले राजनीतिज्ञ हैं और इसमें वह 2013 से लगातार सफलता प्राप्त कर रहे हैं। 2015 के चुनावों में राज्य की 70 सदस्यीय विधानसभा में उनकी पार्टी को 67 सीटें मिली थीं और 2020 के चुनावों में 62 सीटें मिली थी। इससे यह आसानी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि क्षेत्रीय चुनावों मेंं वह दिल्ली वालों की पहली पसन्द है मगर लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी हारती रही है। अतः राष्ट्रीय चुनावों में वह भाजपा से पिछड़ जाते हैं जिसके अपने अलग राजनैतिक कारण हो सकते हैं। अब सवाल यह खड़ा हो रहा है कि केजरीवाल के मुताबिक वह पद छोड़ने के बाद अपने साथी सिसोदिया के साथ दिल्ली की जनता के पास जाएंगे और उससे कहेंगे कि वह बताये कि 'मैं भ्रष्टाचारी हूं या ईमानदार। यदि जनता ईमानदार मानती है तो मुझे वोट दे वरना हरा दे'। यह तो सर्वज्ञात है कि श्री केजीवाल को कथित दिल्ली शराब घोटाले के तहत विभिन्न आरोपों में प्रवर्तन निदेशालय व सीबीआई ने जेल में डाला हुआ था। आप पार्टी का कहना है कि ये सभी आरोप फर्जी हैं और अभी तक एक रुपये की भी बरामदगी किसी भी आप नेता के पास से नहीं हुई है। खैर यह मामला अब सर्वोच्च न्यायालय में है और वही इस बारे में अन्तिम फैसला करेगा परन्तु इतना निश्चित है कि राजनीति में जन अवधारणा की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिस प्रकार आप पार्टी के विभिन्न नेताओं को शराब नीति मामले में जेल में डाला गया उससे स्वाभाविक है कि जन अवधारणा जरूर प्रभावित हो सकती है अतः केजरीवाल ने जनता का विश्वास जीतने के लिए ही अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी है। मगर इसके जवाब में भाजपा का कहना है कि जब मुख्यमन्त्री को लगभग छह महीने पहले जेल भेजा गया था तो उन्हें इस्तीफा तभी देना चाहिए था और सार्वजनिक जीवन में शुचिता कायम करनी चाहिए थी मगर वह जेल में बैठकर भी मुख्यमन्त्री बने रहे और उनकी सरकार चलती रही। दरअसल राजनीति में कभी वह नहीं होता जो ऊपर से दिखाई पड़ता है। इसके अन्तर्निष्ठ 'कारक' हमेशा कुछ और ही होते हैं। मगर यह सत्य है कि लोकतन्त्र में जनता की अदालत ही सबसे बड़ी अदालत होती है अतः केजरीवाल ने अपना मुकदमा जनता की अदालत में ले जाने का फैसला करके एक तीर से कई शिकार मारने की चाल चल दी है।

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