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महाराष्ट्र में ‘खेला चालू आहे’

महाराष्ट्र में जो राजनीतिक ‘खेला’ चल रहा है वह किसी सस्ती जासूसी फिल्म की पटकथा की तरह का है जिसमें एक के बाद एक ऐसे रहस्य खुल रहे हैं जिनका सम्बन्ध किसी तरह फिल्म को आगे बढ़ाने का हो।

महाराष्ट्र में जो राजनीतिक ‘खेला’ चल रहा है वह किसी सस्ती जासूसी फिल्म की पटकथा की तरह का है जिसमें एक के बाद एक ऐसे रहस्य खुल रहे हैं जिनका सम्बन्ध किसी तरह फिल्म को आगे बढ़ाने का हो। मुम्बई पुलिस की सेवा से मुअत्तिल सहायक सब इंस्पेक्टर सचिन वझे जिस तरह के आरोप राज्य के मन्त्रियों पर लगा रहा है उसके दो आयाम हैं। एक तो किसी मन्त्री का स्तर अब इतना नीचे गिर गया है कि वह किसी डान की तरह अवैध वसूली पुलिस की मार्फत कराये और दूसरा यह कि सचिन वझे अपनी जान बचाने के लिए ये आरोप इस गरज से लगा रहा है कि पूरा मामला राजनीतिक वितंडावाद में फंस कर सियासी कोलाहल पैदा व्यक्ति है। वह मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना का ही अपनी पहली 16 वर्ष की मुअत्तिली के दौरान सक्रिय कार्यकर्ता रह चुका है और अच्छी तरह समझता है कि कई दलों की मिलीजुली सरकार की क्या परेशानियां और मजबूरियां होती हैं और किसी दल के मन्त्री पर लगाये गये आरोपों की राजनीतिक प्रतिध्वनियां किस अन्दाज से प्रकट होती हैं। मगर यह भी सत्य है कि किसी सहायक सब इंस्पेक्टर के दर्जे के पुलिस कर्मी में इतना विश्वास अचानक ही नहीं भर सकता कि वह सीधे मन्त्रियों पर ही रिश्वत लेने और अवैध उगाही करने के आरोप लगाने लगे। यह तो शिवसेना को सोचना ही होगा कि उसके राज में किस प्रकार एक सब इंस्पेक्टर सीधे उसके ही एक मन्त्री पर 50 करोड़ रूप की उगाही करने का आरोप लगा दे। 
राष्ट्रीय जांच एजेंसी के न्यायालय को लिखे गये एक पत्र में वजे ने राज्य के परिवहन मन्त्री अनिल परब पर आरोप लगाया कि उन्होंने उससे मुम्बई के एक न्यास (ट्रस्ट) से पचास करोड़ रुपए उगाह कर देने का हुक्म दिया और बदले में उस ट्रस्ट के खिलाफ चल रही प्राथमिक जांच को निरस्त करने का वादा करने को कहा। वझेे ने अपने पत्र में मुम्बई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह द्वारा पूर्व गृहमन्त्री अनिल देशमुख पर लगाये गये इन आरोपों को भी सही बताया कि उस पर श्री देशमुख ने मुम्बई की बार व रेस्टोरेंटों से 100 करोड़ रुपए प्रतिमाह उगाहने के लिए कहा था। इतना ही नहीं उसने राष्ट्रवादी कांग्रेस के सर्वोच्च नेता श्री शरद पवार को भी लपेटने की कोशिश की और कहा कि जब पिछले साल 16 वर्ष तक पुलिस सेवा से मुअत्तिल रहने के बाद उसकी बहाली की गई थी तो श्री पवार ने इस पर आपत्ति की थी और गृहमन्त्री अनिल देशमुख ने उससे श्री पवार की नाराजगी दूर करने के एवज में दो करोड़ रुपए की मांग की थी। यह आरोप ऐसा है जिससे सचिन वझे की कहानी के सत्य का आंकलन बड़ी आसानी के साथ किया जा सकता है। पहला तो यह है कि श्री पवार जैसी शख्सियत किसी सब इंस्पेक्टर की बहाली या बर्खास्तगी जैसे मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ले सकती और दूसरी यह कि अनिल देशमुख गृहमन्त्री के पद पर रहते हुए किसी सब इंस्पेक्टर के मामले में अपनी पार्टी के सर्वोच्च नेता का नाम घसीट कर अपने राजन​ीतिक जीवन को जोखिम में नहीं डाल सकते। अतः बहुत साफ है कि सचिन वझे अपने ऊपर आयी बला को एेसे आरोपों के जरिये टालना चाहता है जिससे राज्य में राजनीतिक तूफान खड़ा हो जाये। मगर इसके समानान्तर यह भी हकीकत है कि राज्य की उद्धव सरकार की विश्वसनीयता का पैमाना बुरी तरह गिर चुका है और शिवसेना को अपने ही किये पुराने पापों का फल भुगतना पड़ रहा है क्योंकि सचिन वझे उसी का खड़ा किया गया ऐसा भस्मासुर साबित हो रहा है जो पूरी सरकार की साख को ही जला डालना चाहता है। राजनीतिक नैतिकता व शुचिता का तकाजा तो यही है कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन होना चाहिए और तीनों दलों को बैठ कर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि लोकतन्त्र में जवाबदेही का क्या अर्थ होता है? वैसे भी कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस व शिवसेना का यह गठबन्धन सैद्धान्तिक गठबन्धन न हो कर केवल शासन करने के लिए किया गया गठजोड़ है जो राजनीतिक परिस्थितियों के दबाव में तब किया गया था जब डेढ़ साल पहले चुनावों के बाद महाराष्ट्र में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था। हालांकि भाजपा व शिवसेना ने मिल कर चुनाव लड़ा था और इसके गठबन्धन को पूर्ण बहुमत भी प्राप्त हो गया था मगर सरकार इसलिए नहीं बन पाई थी क्योंकि शिवसेना ने अपना मुख्यमन्त्री बनाने की जिद ठान ली थी। जबकि भाजपा चुनावी प्रचार के समय ही घोषणा कर चुकी थी कि चुनावों के बाद मुख्यमन्त्री पद पर निवर्तमान मुख्यमंत्री श्री देवेन्द्र फडनवीस ही बैठेंगे परन्तु अब जो हालात परमबीर और सचिन वझे के पत्रों से बने हैं वे बताते हैं कि शासन करने के लिए बने सत्तारूढ़ गठबन्धन के बीच शासन के कुछ कारिन्दे ही रंजिश के गुल खिलाने में मशगूल हैं। बेशक यह शासन के लोकोन्मुख होने के सिद्धान्त को तिलांजिली कहा जा सकता है लेकिन राजनितिक बाजियां भी शासन के कारकुनों के कन्धों पर ही बिछाई जाती हैं, इसलिए किसी को भी गफलत में रहने की जरूरत नहीं है। देखना केवल यह है कि अब पूरे मामले पर मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे क्या कहते हैं क्योंकि अन्त में सरकार तो उन्हीं की है।

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