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कोशियारीः नाहक ही होशियारी

महाराष्ट्र के राज्यपाल श्री भगत सिंह कोशियारी ने अपने विवादित क्षेत्र सूचक बयान पर क्षमा याचना या खेद प्रकट करते हुए कहा है कि उनकी मंशा समाज के किसी वर्ग का अपमान करने की या उसकी उपेक्षा करने की नहीं थी।

महाराष्ट्र के राज्यपाल श्री भगत सिंह कोशियारी ने अपने विवादित क्षेत्र सूचक बयान पर क्षमा याचना या खेद प्रकट करते हुए कहा है कि उनकी मंशा समाज के किसी वर्ग का अपमान करने की या उसकी उपेक्षा करने की नहीं थी। श्री कोशियारी मंजे हुए राजनीतिज्ञ माने जाते हैं और कुछ समय के लिए उत्तराखंड के मुख्यमन्त्री भी रहे हैं। मगर मुम्बई के देश की वित्तीय राजधानी होने के गौरव का उन्होंने जिस तरह वर्णन किया वह महाराष्ट्र के ही हित में नहीं था। दुनिया जानती है कि मुम्बई भारत का सही अर्थों में  बहु-सांस्कृतिक महानगर (मेट्रोपोलिटन सिटी)  है। समुद्र के किनारे बसा होने की वजह से यह बहुराष्ट्रीय नागरिकों का भी बसेरा रहता है इसके साथ ही देश में औद्योगिक व वाणिज्यिक क्रान्ति का भी इसे शहर कह सकते हैं। मुगल शासक औरंगजेब के जमाने में अंग्रेजों ने पहली कपड़ा मिल 1700 के करीब मुम्बई में ही स्थापित की थी। स्वतन्त्रता से पहले ही यह शहर देश के महान उद्योगपति घराने टाटा समूह का गृहक्षेत्र था।  इसके बाद बिड़ला व डालमिया समूह ने भी इसे अपने कार्यक्षेत्र का केन्द्र बनाया। साथ ही इसी शहर में लाहौर के बाद फिल्म उद्योग जमा और इसका आभा मंडल पूरे भारत में जगमगाता रहा। इसे वित्तीय राजधानी में भारत के सभी राज्यों के लोगों ने अपना भरपूर योगदान किया। फिल्म उद्योग की शान पंजाब राज्य के अभिनेताओं व अभिनेत्रियों से लेकर संगीतज्ञों व फिल्म लेखकों और  गीतकारों ने बढ़ाई तथा गुजराती व राजस्थानी मारवाड़ी सेठों ने उद्योग व वाणिज्य के क्षेत्र में अपने झंडे गाड़े और मराठियों ने सबके साथ कंधे से कंधा मिला कर इस शहर को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों ने नागरिक सुविधाओं में अपनी सेवाएं देकर यहां बसने वाले लोगों का जीवन सुगम बनाया। मगर माननीय कोशियारी पिछले दिनों एक सार्वजनिक समारोह में न जाने किस रड़क में कह गये कि अगर मुम्बई व ठाणे से गुजराती और राजस्थानियों को निकाल दो तो यहां पैसा नहीं रहेगा। फिर यह वित्तीय राजधानी नहीं कहलाई जा सकेगी। श्री कोशियारी पुरानी पीढ़ी के राजनीतिज्ञ हैं। उन्हें पता होगा कि आज भी पूरे भारत में यह कहावत चलती है कि ‘‘जहां न जावे गाड़ी, वहां पहुंचे मारवाड़ी।’’मारवाड़ी या राजस्थानी बहुत ही मेहनती और व्यापार कुशल लोग होते हैं और अपने दिमाग से वे सुदूर व दुर्गम इलाकों तक में जाकर वाणिज्य करके उस क्षेत्र में सम्पन्नता लाने में मदद करते हैं। धर्मादा या खैरात का काम करने में भी ये सबसे आगे होते हैं और अलिखित व्यापारिक सिद्धान्त का पालन करते हुए अपनी कमाई का एक अंश प्रत्येक वर्ष सामाजिक या धार्मिक कार्यों पर लगाते हैं। यही काम इस देश के नामी औद्योगिक घराने भी करते रहते हैं ( हालांकि अब माहौल बदल रहा है)। यह कार्य वे टैक्स बचाने के लिए नहीं बल्कि समाज व देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझ कर करते हैं। इसकी अपेक्षा हम विदेशी कम्पनियों से नहीं कर सकते हैं। गुजराती भी बहुत कर्मशील होते हैं और भारत ही नहीं बल्कि विदेशों तक में जाकर ये अपनी कामयाबी के झंडे पंजाबियों की तरह ही गाड़ते हैं, विशेषकर व्यापार व वाणिज्य के क्षेत्र में । 1956 तक तो महाराष्ट्र व गुजरात का बहुत बड़ा इलाका ‘बम्बई राज्य’ कहलाया जाता था जिसके स्वतन्त्र भारत में 1952 में  पहले आम चुनाव होने के बाद इस राज्य के पहले मुख्यमन्त्री एक गुजराती स्व. मोरारजी देसाई ही बने थे।अतः श्री कोशियारी को किसी सार्वजनिक समारोह में अपनी जुबान खोलने से पहले सौ बार सोचना चाहिए था और एहसास करना चाहिए था कि वे किसी राज्य के राज्यपाल हैं जो पूरी तरह ‘अराजनैतिक’ होता है और केवल राष्ट्रपति की प्रसन्नता के भरोसे ही अपने पद पर बना रह सकता है। इसी वजह से महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री श्री एकनाथ शिन्दे व उपमुख्यमन्त्री फड़णवीस ने उनके बयान से मतभिन्नता प्रकट की। राज्यपाल का पद राजनीति या उसके अंश कारकों से बहुत दूर रहता है क्योंकि उसका काम केवल और केवल अपने राज्य में संविधान का शासन देखने का होता है। वह यह कार्य राष्ट्रपति के प्रतिनिधि  के रूप में करता है जिसके कार्यकाल की कोई सीमा नहीं होती औऱ उसके स्थायित्व की भी कोई गारंटी नहीं होती। राष्ट्रपति उसे विवेक के आधार पर अपनी प्रसन्नता के चलते नियुक्त करते हैं और अप्रसन्न होने पर उसकी छुट्टी भी कर सकते हैं। संसदीय प्रणाली के लोकतन्त्र की सफलता के लिए स्वतन्त्र भारत में यह पद इसलिए आवश्यक समझा गया जिससे राज्यों के संघ भारत की एकता व अखंडता की गारंटी हर परिस्थिति में हो सके। संविधान सभा में इस पद के सृजन को लेकर खासी लम्बी बहस चली थी और तब हमारे पुरखों ने एेसी व्यवस्था की थी कि हर हालत में संविधान की सर्वोच्चता के साथ भारत राष्ट्र की संप्रभुता का ध्वज लहराता रहे। वरिष्ठ राजनीतिज्ञों को इस पद पर नियुक्त करने की परंपरा भी इसीलिए शुरू की गई क्योंकि वे संविधान की अंतर्निहित बारीकियों से वाकिफ होते हैं अतः सार्वजनिक समारोहों को सम्बोधित करने से प्रायः राज्यपाल महोदय बचते हैं क्योंकि उन्हें ऐसा करने का कोई जनादेश नहीं होता। यहां आकर उनकी स्थिति राष्ट्रपति से भिन्न हो जाती है क्योंकि राष्ट्रपति का चुनाव हर पांच साल के लिए परोक्ष रूप से जनता ही करती है। इस भेद को राज्यपालों को पहचानना चाहिए। राज्य में चुनी हुई सरकारों का ही यह कर्त्तव्य होता है कि वे अपने प्रदेश को सुख-समृद्धि से भरपूर रखने के लिए जनता के विभिन्न वर्गों के बीच उनकी प्रतिभा व योग्यता का अधिकाधिक लाभ उठाये। इसमें गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी या मराठी कहां से आ गये? अतः श्री कोशियारी ने क्षमा मांग कर अपने पद की प्रतिष्ठा के अनुरूप ही कार्य किया है
‘‘कासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिये,
उसकी खता नहीं है, ये मेरा कुसूर था !’’ 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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