बिहार की धरती राजनीतिक रूप से सर्वाधिक उपजाऊ भूमि रही है। यहां के मतदाता भी सर्वाधिक सजग मतदाता माने जाते हैं। अंग्रेजों के खिलाफ महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले आन्दोलन से लेकर स्वतन्त्र भारत में जय प्रकाश नारायण की अगुवाई में हुए संघर्ष में इस राज्य के लोगों की भूमिका क्रान्ति के सिपाहियों के रूप में देखी जा सकती है। यदि और पीछे जायें तो कुंवर सिंह जैसे क्रान्तिकारी के कारनामों ने बिहार की छवि को जुल्म के खिलाफ हर मोड़ पर चुनौती देने वाले भूभाग की बनाई है।
आजाद भारत में सामाजिक न्याय की गुहार लगाने के मामले में इस राज्य ने कर्पूरी ठाकुर जैसा सपूत पैदा किया जिसने जमीनी चुनावी राजनीति के नये समीकरण तब लिख दिये जब पूरे देश में कांग्रेस का डंका बजता था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के झंडे के नीचे स्व. ठाकुर ने समाज के दबे-कुचले लोगों की सत्ता में सीधी भागीदारी तय करने का रास्ता ‘जाति तोड़ो–दाम बांधो’ के राजमार्ग से निकाला और घोषणा की कि सत्ता को उन गलियों से होकर गुजरना ही होगा जहां अर्थव्यवस्था के मानक दम तोड़ते नजर आते हैं।
स्व. ठाकुर के पीछे उन डा. राम मनोहर लोहिया की प्रेरणा थी जिन्होंने आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के साथ मिलकर अहिंसा के औजार को तीखा करके प्रयोग करने का रास्ता खोजा था। यह सत्य है कि 1967 में कांग्रेस से ही बाहर आये स्व. चौधरी चरण सिंह ने इस लड़ाई को अपने तरीके से आगे बढ़ाया और उन्होंने ग्रामीण भारत को सशक्त करने को भारत के विकास की शर्त बनाने की पहल बहुत धमाकेदार व शालीन तरीके से की। देखते-देखते ही डा. लोहिया के अनुयायी उनके साथ होते चले गये और इन्होंने जाति व धर्म की दीवारें तोड़कर ‘वंचित’ भारत को ‘सम्पन्न’ बनाने की राजनीति शुरू की। आज के राजनीतिज्ञों को आश्चर्य हो सकता है कि 1969 में ही चौधरी साहब ने जब अपनी अलग पार्टी ‘भारतीय क्रान्ति दल’ की स्थापना की और उत्तर प्रदेश विधानसभा का मध्यावधि चुनाव लड़ा तो अपनी पार्टी के घोषणा पत्र में ‘न्यायिक सुधारों’ को मुद्दा बनाया।
चौधरी साहब ने निचले स्तर पर न्यायिक प्रणाली में व्याप्त प्रक्रियागत सांस्थानिक भ्रष्टाचार को खत्म करने के उपाय ढूंढने का वादा मतदाताओं से किया। चौधरी साहब तब अपनी जनसभाओं में कहा करते थे कि ‘हमारी जिला स्तर न्याय प्रणाली की हालत यह हो गई है कि लोग एक-दूसरे से सच बयानी के बारे में कहते हैं कि भई ये कोई कचहरी थोड़े ही है, यहां तो कम से कम सच बोल दे।’ उनका तर्क था कि अंग्रेजों ने हमें जो न्यायिक व्यवस्था का ढांचा सौंपा है वह साधारण और औसत नागरिक के हक की जगह सत्ता के हक में ज्यादा है।
यह अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए बनाया था मगर भारत में लोकतन्त्र है और आम जनता का राज है इसलिए इसका ढांचा लोकहित के नजरिये से खड़ा होना चाहिए। चौधरी साहब की यह राजनीति जड़ से सामाजिक न्याय दिलाने की व्यवस्था कायम करने की थी। यही वजह थी कि उनके साथ भारत के वे सभी लोग खिंचे आ रहे थे जो इस देश में आर्थिक व सामाजिक गैर बराबरी समाप्त करना चाहते थे। अतः जब 1977 में लोकसभा के चुनाव हुए और जनता पार्टी का गठन हुआ तो इसके टिकट पर चुनकर आने वाले कुल साढ़े तीन सौ के लगभग सांसदों में चौधरी साहब के घटक दल लोकदल के 270 से अधिक सांसद थे।
हालांकि इसमें संसोपा व स्वतन्त्र पार्टी व बीजू पटनायक की पार्टी का विलय हो चुका था। जनता पार्टी में संगठन कांग्रेस व जनसंघ का भी विलय हो गया था। यह भी महत्वपूर्ण है कि तब जनता पार्टी ने चौधरी साहब की पार्टी के चुनाव चिन्ह ‘कन्धे पर हल लिये किसान’ पर ही चुनाव लड़ा था मगर यह पार्टी दक्षिण भारत के चारों राज्यों में पूरी तरह असफल रही थी और इसके एकमात्र प्रत्याशी स्व. नीलम संजीव रेड्डी ही आन्ध्र प्रदेश से चुनाव जीत सके थे। यह भी हकीकत है कि इन चुनावों में आजकल चारा घोटाले में फंसे श्री लालू प्रसाद यादव को स्वयं चौधरी साहब ने ही लोकसभा का टिकट दिया था और वह सबसे कम उम्र (29 वर्ष) के सांसद चुने गये थे।
लालू जी में चौधरी साहब ने गांव व देहात और खेती में लगे लोगों के समग्र विकास की तड़प देखी थ। लालू जी में यह जज्बा 1990 में बिहार का मुख्यमन्त्री बनने के बाद भी बना रहा मगर राजनीतिक परिस्थितियों में मूलभूत बदलाव आने से यह जातिगत समीकरणों में बदलता गया। मंडल आयोग ने ग्रामीण भारत को जातियों में बांट डाला और कृषि पर निर्भर समाज की राजनैतिक एकता को तार-तार कर डाला। इसकी वजह से उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कहीं ‘दलित-मुस्लिम’ और कहीं ‘यादव-मुस्लिम’ समीकरण उभरे।
श्रीराम मन्दिर आन्दोलन से उपजे समग्र हिन्दू एकता के अराजनैतिक एजेंडे का जवाब देने का यह अस्त्र कारगर भी रहा मगर इससे राजनीतिक वातावरण लगातार गैर-राजनीतिक मुद्दों के अधीन होता चला गया और देश की प्रमुख कांग्रेस पार्टी इस गणित में अपना स्थान खोती चली गई। यह राजनीति के कबायलीकरण का दौर भी कहा जा सकता है। इसका स्थान जाति गौरव साम्प्रदायिक पहचान लेते चले गये और हम आर्थिक उदारीकरण में शुरू हुई बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के शोशेबाजी के विकास में उलझते चले गये। इस दौर में जमीन पर मजबूत पकड़ रखने वाले राजनीतिज्ञों के समक्ष भारी संकट पैदा होता चला गया क्योंकि वे भी इसी अर्थव्यवस्था के भीतर अपनी चमक दिखाने के लिए मजबूर बना दिये गये।
मजबूत जनाधार वाले नेता इस व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती कभी भी साबित हो सकते थे, इसलिए इनकी छवि को दूषित करने में वे सभी ताकतें इकट्ठी हो गईं जो भारत को ‘इंडिया’ के रूप में ही दिखाना चाहती थीं। लालू जी इस भंवर में तब फंसे जब उन्होंने स्वयं ही सबसे पहले चारा घोटाले की जांच करने के आदेश अपने मुख्यमन्त्री रहते 1994 में दिये थे। सरकारी प्रक्रिया में व्याप्त भ्रष्टाचार का शिकार होना कोई हादसा तो नहीं हो सकता? इस पर 14 साल की सजा कोई अफसाना भी नहीं हो सकती ! राम नवमी से पहले सुनाई गई इस सजा को 14 वर्ष के वनवास के रूप में देखने वाले लोग भी कम नहीं हैं मगर असली सवाल तो लौट फिर कर उसी राजनीति का है जो भारत और इंडिया में पुल बनना चाहती है।