चारा घोटाले से जुड़े पांच मामलों में से दूसरे में राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष और बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री लालू प्रसाद यादव को दूसरी बार दोषी करार देते हुए सीबीआई की विशेष अदालत ने साढे़ तीन वर्ष की कैद की सजा सुनाई है। कुछ लोगों को भ्रम हो सकता है कि जब चारा घोटाला समूचे रूप से एक है तो अलग-अलग पांच मामले बनाकर अलग-अलग मुकदमे क्यों चलाये जा रहे हैं? संभवतः यह पहला मामला होगा जब सर्वोच्च न्यायालय ने सभी मामलों को एकमुश्त रूप से चलाने की लालू प्रसाद की अपील खारिज कर दी थी। लगभग बीस वर्ष पहले हुए चारा घोटाले के चलते लालू प्रसाद को मुख्यमन्त्री की कुर्सी भी छोड़नी पड़ी थी और वह सीबीआई द्वारा गिरफ्तार किये गये थे। सबसे मजेदार पूरे मामले में यह तथ्य है कि बिहार के विभिन्न जिलों में चारा खरीद के लिए फर्जी फर्मों के जरिये कोषागार से धन निकलवाने की साजिश की स्वयं लालू जी ने ही मुख्यमन्त्री रहते शिकायत की थी, लेकिन इसके बाद जो घटनाक्रम घूमा उसमें लालू जी ही स्वयं फंस गये, मगर इसके साथ ही लालू जी के पूरे परिवार के लोगों पर भी वित्तीय गड़बडि़यां करने के आरोप लगे हुए हैं। विशेषकर उनकी पुत्री मीसा यादव के खिलाफ उनके पति समेत प्रवर्तन निदेशालय ने मुकदमा दायर किया हुआ है। यह मामला वित्तीय हेराफेरी करके सम्पत्ति बनाने का है। इसी प्रकार उनके दोनों पुत्र तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव भी आरोपों के घेरे में हैं।
तेजस्वी यादव तो राज्य के उप मुख्यमन्त्री भी रह चुके हैं। तेजप्रताप कैबिनेट स्तर के मन्त्री नीतीश कुमार की पिछली सरकार में रहे हैं, जबकि उनकी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी राज्य की मुख्यमन्त्री रही हैं। उन पर भी स्रोत से अधिक सम्पत्ति रखने का आरोप लगा है। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह भी पहला अवसर है कि जबकि किसी प्रमुख राजनीतिज्ञ के समूचे परिवार के मुख्य लोगों को विभिन्न आरोपों में घेरा गया है। इसे एक संयोग भी कहा जा रहा है, जबकि इसके विपरीत लालू जी की पार्टी के नेता एक सोची-समझी साजिश बता रहे हैं। मगर सारे मामले अदालत में हैं इसलिए उनके बारे में ज्यादा कुछ कहा जाना उचित नहीं है मगर इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लालू जी की पार्टी इस मामले को राजनीतिक धरातल पर लड़ने के लिए तैयार है। यह भी कहा जा सकता है कि लालू जी को अदालत द्वारा चारा मामले में दोषी करार देने के बावजूद उनकी लोकप्रियता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है। इससे पहले 2013 में चारा कांड के पहले मामले में उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई थी और वह जमानत पर बाहर आ गये थे। इसके बाद ही उन्होंने बिहार विधानसभा का चुनाव नीतीश बाबू की जनता दल(यू) पार्टी सके साथ मिलकर लड़ा था और विधानसभा में सबसे ज्यादा सीटें प्राप्त की थीं।
जनता दल(यू) ने उन्हीं के कन्धे पर बैठ कर अपनी सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की थी जिसमें लालू जी की पार्टी भी प्रमुख हिस्सेदार थी। मगर बीच में ही जब लालू जी के दोनों मन्त्री पुत्रों पर आरोप लगने शुरू हुए और सीबीआई ने उनकी जांच शुरू की तो मुख्यमन्त्री पद पर बैठे नीतीश कुमार ने अपना पल्ला झाड़ लिया और इस्तीफा देकर उसी दिन कुछ घंटों बाद विपक्षी पार्टी भाजपा से हाथ मिला कर पुनः सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। इससे राजनीतिक रूप से लालू जी के पीडि़त पक्ष होने का सन्देश जनता में गया, जबकि नीतीश बाबू ने इसे नैतिकता का सवाल बनाकर समझाने की कोशिश की वह भ्रष्टाचार से किसी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं हैं। उनके इस दावे में ज्यादा जान इसलिए नहीं थी कि उन्होंने चारा कांड में अदालत द्वारा जमानत पर छूटे लालू जी के साथ हाथ मिलाकर ही बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा था आैर बहुमत प्राप्त किया था। लालू-नीतीश के इस गठबन्धन को ‘महागठबन्धन’ का नाम दिया गया जिसमें कांग्रेस पार्टी भी शामिल थी। मगर अब यह गठबन्धन टूट चुका है और लालू यादव का पूरा परिवार एक पीड़ित पक्ष के रूप में खुद को पेश कर रहा है। इसमें सफलता तभी मिल सकती है, जबकि बिहार की जनता इससे सहमत हो।
लेकिन राज्य की राजनीति में यह एक मुद्दा न बने इसका कोई कारण भी नजर नहीं आता है। इसकी वजह यह है कि बिहारी मतदाता सबसे ज्यादा प्रबुद्ध और सचेत मतदाता माना जाता है। वह राजनीति के उन पक्षों की समीक्षा अपनी बुद्धि के ज्ञान से आसानी से कर देता है जिसके सिरे ढूंढने में स्वयं राजनीतज्ञ भी कभी-कभी खो जाते हैं। अतः बिहार के मतदाताओं के बारे में यह कहा जाता है कि ‘‘वे उड़ती चिड़िया को हल्दी लगाने में सक्षम होते हैं।’’ इसलिए यह बेवजह नहीं हैं कि चारा कांड में पूर्व कांग्रेसी मुख्यमन्त्री जगन्नाथ मिश्र के बरी हो जाने का मसला उछला। बेशक इसका न्यायिक अर्थ तथ्यों और सबूतों का आधार हो मगर राजनीतिक अर्थ निकालने से किसी को रोका नहीं जा सकता है। यह तो हकीकत है कि लालू जी पिछड़े वर्ग व अल्प संख्यकों के निर्विवाद नेता हैं और इस हकीकत के बावजूद है कि उन्होंने राजनीति में अपने परिवार को ही बढ़ाया है। लेकिन उनके पूरे परिवार के ही विभिन्न आरोपों के घेरे में आ जाने से उनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न होने को रोका नहीं जा सकता। राजनीति में अक्सर एेसा होता रहता है। राजनीति में ‘बेचारा’ हो जाना भी एक‘राजनीति’ ही होती है। केवल यह देखना होता है कि आम जनता उसे किस नजरिये से देखती है। फिलहाल राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति बेचारा बनने की राजनीति की तरफ मुड़ती दिखाई पड़ रही है।