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लालू यादव हुए बन्धनमुक्त

राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष और बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री लालू प्रसाद यादव सोमवार को जमानत पर बाहर आ जायेंगे।

राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष और बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री लालू प्रसाद यादव सोमवार को जमानत पर बाहर आ जायेंगे। श्री लालू प्रसाद की पहचान भारतीय राजनीति में एक ऐसे ग्रामीण इंसान की है जो अपनी जीवन शैली से आम लोगों में लोकप्रिय हुए। मगर उन पर बिहार का मुख्यमन्त्री रहते भ्रष्टाचार के आरोप जिस तरह लगे उससे उनके एक ईमानदार और सीधे-सादे जनता से जुड़े राजनीतिज्ञ की छवि धूमिल होने से नहीं रुक सकी। इसके बावजूद ग्रामीण जनता में लालू जी का आकर्षण इस हकीकत के बावजूद माना जाता है कि वह बिहार के चारा घोटाला कांड के चार मामलों में समानान्तर सजाएं काटते रहे। तीन मामलों में  पहले ही वह जमानत पा चुके हैं जबकि चौथे ‘दुमका’ खजाने से अवैध तरीके से धन निकलवाने के मामले में भी उन्हें झारखंड उच्च न्यायालय ने गत शनिवार को जमानत दे दी है। यह स्वयं में कम विस्मय की बात नहीं है कि लालू जी की अपने बिहार राज्य में लोकप्रियता जस की तस की बनी हुई है क्योंकि विगत वर्ष नवम्बर माह में हुए इस राज्य के विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी राजद के सबसे ज्यादा विधायक जीत कर आये जबकि वह स्वयं जेल में थे और उनकी पार्टी की कमान उनके पुत्र तेजस्वी यादव ने संभाली हुई थी। 
असल में लालू यादव राजनीति में संभ्रान्त व सुंस्कृत कहे जाने वाले कथित समाज के लोगों में ‘फूहड़पन’ के लिए भी जाने गये परन्तु उनके विचार में यह नितान्त और विशुद्ध देशीपन था। इसी देशी पुट की वजह से उन्होंने भारतीय राजनीति में अपनी विशिष्ट जगह भी बनाई परन्तु यह भी हकीकत है कि उनकी लोकप्रियता केवल गंगा के किनारे वाले उत्तर भारत के राज्यों तक ही सीमित रही। उनके जेल से बाहर आने के बाद देखना यह होगा कि वह विपक्ष की राजनीति में किस तरह की भूमिका निभाते हैं क्योंकि वास्तविकता यह है कि समूचे भारत में विपक्ष इस समय बुरी तरह बिखरा हुआ है और कमजोर है किन्तु लालू जी में सबसे बड़ा गुण यह माना जाता है कि वह विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने का हुनर जानते हैं। इस हुनर के पीछे उनकी वह राजनीतिक विरासत प्रमुख भूमिका निभाती है जो उन्होंने 1974 के जेपी आंदोलन में एक छात्र नेता की हैसियत से सीखी थी। इसके बावजूद यह कार्य सरल नहीं होगा क्योंकि आज भारत की राजनीतिक जमीन पूरी तरह बदल चुकी है और देश में नरेन्द्र मोदी जैसा भाजपा का लोकप्रिय नेता अपने चरमोत्कर्ष पर है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के सामने विपक्षी एकता का नारा कई बार पहले भी दम तोड़ चुका है। देखना केवल यह होगा कि लालू जी को आगे रख कर विपक्ष कैसे स्वयं को जोड़ पाने में सफल हो सकता है जबकि स्वयं लालू प्रसाद भ्रष्टाचार के मामले में घोषित अपराधी हैं। यह स्थिति बहुत रोचक भी हो सकती है क्योंकि वर्तमान में ग्रामीण समाज का कोई मान्य नेता पूरे उत्तर भारत में ऐसा नहीं है जिसकी आवाज पर गांव उठ कर खड़े हो सकें। 
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी मृतप्रायः हो चुकी है और सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी दम तोड़ती नजर आ रही है। यह सब श्री नरेन्द्र मोदी का कमाल ही है कि जातिवाद की राजनीति अब राष्ट्रवाद के झंडे के तले आकर हुंकार भर रही है। जबकि लालू जी का भी कहीं न कहीं जातिवाद की राजनीति के समीकरणों से लेना-देना रहा है क्योंकि यादव-मुस्लिम गठजोड़ उनका पक्का जनाधार रहे हैं। जाहिर है कि लालू यादव के लिए पुराने समीकरणों को जागृत करना आसान काम नहीं होगा, खास कर बिहार से बाहर ग्रामीण समाज में यह कार्य बहुत दुष्कर होगा। मगर एक सच्चाई यह भी है कि लालू यादव में वह कूव्वत मानी जाती है कि वह समस्त खेतीहर ग्रामीण जातियों को गोलबन्द कर सकते हैं। 
चौधरी चरण सिंह के बाद यह कार्य कोई भी जमीन से उठा हुआ नेता नहीं कर सका। मगर लालू यादव में एक विशेषता यह है कि वह ठेठ ग्रामीणपन को लेकर भी नहीं जीते हैं । केन्द्र में रेल मन्त्री रहते हुए उन्होंने बहुत प्रयत्नों से यह सिद्ध किया था कि गांव में पला-बढ़ा एक इंसान भी वाणिज्यिक गतिविधियों का विशेषज्ञ हो सकता है परन्तु इस श्रेय को उन्होंने स्वयं तब मिट्टी में मिला दिया जब 2009 के लोकसभा चुनावों में यूपीए से नाता तोड़ कर अपना अलग गठबन्धन बनाने का ऐलान किया था। स्व. राजनारायण के बाद राजनीति में उन्हें विदूषक की संज्ञा से भी कुछ लोगों ने नवाजा मगर असलियत यह भी रही कि उनके इस हंसी-मजाकिया लहजे को सबसे ज्यादा शहरों के लोग ही पसन्द करते थे। मगर लालू यादव कभी इस भ्रम में नहीं रहे कि उनका कथित ‘जोकरी’ अन्दाज राजनीति में उनके अंक कम कर सकता है। हालांकि लालू जी पर यह आरोप बहुत संगीन है कि उन्होंने राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने के चक्कर में अपनी पार्टी को खुद ही कमजोर किया। आज की राजद को लालू परिवार का ही नाम दिया जा सकता है। यह तय है कि राजनीति में वर्तमान चुनौतियां बदल चुकी हैं और आज का भारत उस चरण में प्रवेश कर चुका है जिसमें आम मतदाता की अपेक्षाएं निजी विकास का नया पैमाना खोज रही हैं। इस माहौल में राजनीति के तेवर बदलना भी लाजिमी है, मगर यह भी भारत की हकीकत है कि जब भ्रम अधिक फैलने लगता है तो लोग स्वयं ही आगे बढ़ कर दिशा ज्ञान देने लगते हैं। आज का अकाट्य सत्य राष्ट्रवाद है जिसके विरोध में लालू जी की पूरी राजनीति रही है। यह राजनीति उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर की जो अब तुष्टिकरण के रूप में स्थापित हो चुकी है। अतः यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि ग्रामीण राजनीति के धुरंधर लालू यादव कौन सी रणनीति बना कर सियासी चौसर बिछाते हैं।

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